रविवार ,2 अक्तूबर , को जंतर मंतर दिल्ली पर शांति मार्च का आयोजन करते , इरोम की लडाई में साथ आए दोस्त , जिनमें एक मैं भी था , और हमारे मित्र मयंक सक्सेना जी भी , जिनके एक संदेश से मैं यहां पहुंच सका
पिछले दिनों जनलोकपाल बिल को लेकर , जिस तरह से पूरे देश के अवाम के बीच एक उथल पुथल , व्यवस्था और सरकार के विरूद्ध आक्रोश के साथ साथ पहली बार ऐसा हुआ कि किसी प्रस्तावित कानून के मसौदे और उसके प्रावधानों को लेकर जनता के बीच जम कर बहस चली । और इस बहस की न सिर्फ़ आवाज़ संसद तक पहुंची बल्कि थकहार कर उन्हें भी जनता की भावना को पटल पर रखना पडा । ये पिछले साठ सालों में पहली बार हुआ कि जनता ने खुल कर कहा कि यदि कानून समाज के लिए ही बनाए जाते हैं , आम लोगों के लिए बनाए जाते हैं तो फ़िर उन्हें बनाने का हक भी समाज को ही मिलना चाहिए , कम से कम उतना तो जरूर ही कि पिछले सभी बने हुए कानूनों में जानबूझ कर छोडे गए छिद्रों की गुंजाईश को कम किया जा सके । एक साल में दो दो बार आम जनता को सडक पर उतरने के लिए उद्वेलित करने वाले अन्ना हज़ारे ने जब अनशन का रास्ता अपनाया , और न सिर्फ़ अपनाया बल्कि अनशन की ताकत भी दिखा दी तो स्वाभाविक रूप से देश में पिछले कुछ वर्षों में तेज़ हुई एक बहस को फ़िर से हवा दे दी । ये मुद्दा है , मणिपुर की इरोम शर्मिला के अनशन से जुडा हुआ मुद्दा । यानि The Armed Forces (Special Powers) Act,1958, (As Amended in 1972),को मणिपुर , पूर्वोत्तर राज्यों , आदि से समाप्त करना क्योंकि ये जीवन के नैसर्गिक अधिकारों का प्रत्यक्ष उल्लंघन है ।
यूं तो , इस समस्या से जुड कर अब कई पहलुओं पर लोग बहस कर रहे हैं , मसलन क्या पूर्वोत्तर का अलगाववाद , देश, सरकार , समाज द्वारा उन क्षेत्रों की , की गई घोर उपेक्षा से ही पनपा है । लेकिन इरोम की लडाई का मुद्दा है भारत सरकार का ये कानून । वर्ष २००० में इसी निरंकुश कानून का सहारा लेकर सुरक्षा जवानों ने एक युवती के सामने दस लोगों को मार डाला ।इरोम शर्मिला ही वो युवती थीं जिन्होंने इस घटना को देखा था और उस दिन से लेकर आज तक इरोम ने इस निरंकुश कानून को मणिपुर पर जबरन थोपे जाने का विरोध करते हुए अनशन के रास्ते को अपना लिया । सशस्त्र सेना (विशेष अधिकार ) कानून १९५८ ,संशोधित १९७२ , एक ऐसा कानून जिसमें साधारण अधिकार से ज्यादा ताकत दी गई सुरक्षा बलों को । असम , मणिपुर, मेघालय , नागालैंड , त्रिपुरा और अरूणाचल प्रदेश व मिज़ोरम यानि पूर्वोत्तर राज्यों में इस कानून को लागू किए इस कानून के अनुसार , किसी भी अशांत क्षेत्र में शांति की स्थापना के लिए , सुरक्षा बल के अधिकारी व सैनिक सिर्फ़ शक के आधार पर किसी को गोली तक मार सकते हैं । किसी के भी घर में घुस कर तलाशी ली जा सकती है और किसी को भी बिना वारंट के गिरफ़्तार किया जा सकता है । अशांत क्षेत्र का निर्धारण भी सुरक्षा बल ही स्थिति को देखते हुए कर सकते हैं । आज़ादी के इतने बरसों बाद भी देश की जो सरकार एक तरफ़ खुलेआम सबका कत्ल करने वाले आतंकियों को न्याय के नाम पर सालों सालों जीवित रखती है वहीं दूसरी तरफ़ पूर्वोत्तर राज्यों के निवासियों के साथ इतना गहरा भेदभाव जैसा कानून थोपे बैठी है कि , आज इन राज्यों में ये मानसिकता पनप चुकी है कि वो उस दिन को प्रदेश का काला दिन मानते हैं जिस दिन इन राज्यों का विलय पूरे देश के साथ कर दिया गया था ।
इस पूरे घटनाक्रम में कुछ बातें जो विशेष तौर पर निकल कर सामने आई हैं वो ये कि क्या इतने सालों बाद भी पूर्वोत्तर राज्यों को , उनके निवासियों को , वहां के समाज , वहां की समस्याओं को मुख्य धारा में लाकर देखा समझा जा सका है । अपनी अलग शारिरिक छवि , रंग रूप की बहुलता के कारण , उत्तर पूर्व से बाहर उनकी पहचान , एक उपहासात्मक मानसिकता से जोड दी गई है । आज सिक्किम की बाढ हो या मणिपुर का कोई हादसा न वो राष्ट्रीय मुद्दा है और न ही वो मुद्दा ही रह पाता है । आज जिन कानूनों के लागू होने के कारण वहां के मूल लोगों की जिंदगी के अधिकार को ही छीन लिया गया है , उस अधिकार को हटाने तो दूर आज सरकार उस कानून पर बहस तक करने को तैयार नहीं है । इस अराजक और निरंकुश कानून को हटाए जाने की मांग को लेकर अनशन पर बैठीं इरोम शर्मिला से कोई सिर्फ़ और सिर्फ़ तभी मिल सकता है जब उसके पास मणिपुर के मुख्यमंत्री का आदेश हो । इतनी सख्ती , इतना डर , इतना अलगाव , क्यों , आखिर क्यों । उस देश में क्यों , जो अपने देश के , समाज के और देश के सम्मान के हत्यारे को भी बरसों तक जाने अनजाने देश का मेहमान बनाए रखती है । अपने देश के नागरिकों , से निपटने के लिए विशेष अधिकार वो भी इतना निरंकुश कि सिर्फ़ शांति स्थापना की प्रक्रिया में शक शुबहे पर भी किसी की भी जान ली जा सकती है , और सबसे बडी अमानवीय बात ये है कि ये कानून है , एक विधिक अधिकार ।
इरोम की लडाई को आज एक दशक बीत चुके हैं , और उसकी ये लडाई तब शुरू हुई थी जब मीडिया , आज के जैसा मीडिया नहीं था ,मीडिया ने बाज़ार का रूप नहीं लिया था , इतनी व्यावसायिकता नहीं आई थी । अब समय बदल गया है , पिछले कुछ सालों में पूरे विश्व में हो रहे परिवर्तनों में जिस तरह से आम जनांदोलनों ने भूमिका निभाई है और जन विचार , या एक दिशा देने में मीडिया ने जो भूमिका निभाई है उसे देखते हुए अब ये अपेक्षा की जा रही है कि यदि देश को भविष्य में अपना अस्तित्व और देशवासियों को खुद को बचाए रखना है तो फ़िर अब आम आदमी की हर मांग , उसकी हर बात को मुख्य धारा में लाकर पूरे देश के सामने रखना ही होगा ।ये लडाई शुरू हो चुकी है , और अब लोगों ने इरोम की लडाई को दिल्ली की सडकों पर उतारना शुरू कर दिया है । यदि इसी तरह आम आदमी की हर लडाई में देश का आम आदमी जुड जाए तो यकीनन देश का कल , कुछ अलग होगा ॥
अब ये तय कर लिया है कि , इस मुहिम और आम आदमी की हर मुहिम के साथ कदम से कदम और कंधे से कंधे मिला कर चलेंगे ..अब घिसटना मंजूर नहीं है मुझे ...........
पहले भी इस विषय पर पोस्ट लिखी गयी है। यह तो निश्चित है कि पूर्वांचल के प्रति सरकार उदासीन है।
जवाब देंहटाएंThe Armed Forces (Special Powers) Act,1958, (As Amended in 1972),को मणिपुर , पूर्वोत्तर राज्यों , आदि से समाप्त करना क्योंकि ये जीवन के नैसर्गिक अधिकारों का प्रत्यक्ष उल्लंघन है ।
जवाब देंहटाएंgambhir baat hai ye ...
यदि पूर्वोत्तर के लोग खुद को पूरे देश से नहीं जोड़ पाते तो वो गलत नहीं है कही ना कही हमारी सरकार इसके लिए जिम्मेदार है | शर्मीला इरोम के प्रति सरकारों ने काफी बेरुखी दिखाई है अब समय आ गया है की उनकी मांगो की तरफ ध्यान दिया जाये और उनके अनशन को सम्प्पत करने का प्रयास किया जाये |
जवाब देंहटाएंअनुशुमाला जी की बात से सहमत हूँ
जवाब देंहटाएंसमय मिले तो कभी आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/
इरोम की के बारे में जहाँ कहीं पढ़ा या देखा मन में एक गहरी कसक उठकर रह जाती है.. न जाने कब महिलाओं के साथ सदियों से चला आ रहा यह भेदभाव ख़त्म होगा...
जवाब देंहटाएंआलेख और फोटो देख मन द्रवित हुए बिना नहीं रह सकता है..... आपका इस सार्थक और अनुकर्णीय प्रस्तुति के लिए बहुत आभार
निश्चित है कि पूर्वांचल के प्रति सरकार उदासीन है...
जवाब देंहटाएंइस विषय पर आपने विशिष्ट चित्रों सहित विस्तृत रोशनी डाली. आखिरकार कब तक सरकार बची रहेगी? बहुत आभार आपका.
जवाब देंहटाएंरामराम
देखते हैं कि सरकार आसानी से मानती है या बड़ी कीमत देकर मानेगी।
जवाब देंहटाएंअजय भाई,
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही बात है शर्मिला की मांगों पर ध्यान दिया जाना चाहिए...
शर्मिला के दिल में गोवा मूल के ब्रिटिश नागरिक डेसमंड कॉटिन्हो के लिए सॉफ्ट कॉर्नर है, शर्मिला का प्रण है कि मिशन में कामयाबी के बाद ही वो डेसमंड के साथ घर बसाएंगी...ईश्वर से प्रार्थना है कि शर्मिला जल्दी से जल्दी सामान्य लोगों की तरह जीवन जीना शुरू कर दें...
शर्मिला अपनी शाखी देवी से मिलना चाहती हैं लेकिन उनकी मां इसके लिए तैयार नहीं है..मां का कहना है कि शर्मिला के आंदोलन की सफलता के बाद ही वो उससे मिलेंगी...मेरे विचार से मां को शर्मिला से मिल लेना चाहिए...
खैर ये तो रही मानवता के नाते शर्मिला की बात...अब रहा एएफएसपीए का विवादित मुद्दा...चिदंबरम ने हाल में इस पर गौर करने की बात कही है...लेकिन जब तक सेना इसे हरी झंडी नहीं देगी ये नहीं हटेगा...ऐसे में सेना के लोगों (जैसे अपने मेजर साहब गौतम राजऋषि) की राय जानना ज़रूरी हो जाता है...ताली दो हाथ से बजती है, एक हाथ से नहीं...एक पक्ष को जानने से ही बात नहीं बनने वाली...
जय हिंद...
मुझे मणिपुर जाने का अवसर मिला है। वहां की हालत सचमुच ख़राब है। यों कहें कि आम जनजीवन कुछ है ही नहीं। चरमपंथियों-माफियाओं के भय से प्रतिपल जीवन असुरक्षित रहता है। विशेष कानून विशेष परिस्थितियों में ही बनाए जाते हैं और ऐसे कानून को फुलप्रूफ तरीक़े से अमल में लाया ही नहीं जा सकता,हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि इरोम के मुद्दे ग़लत हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत ज़रूरी विवरण है यह ।
जवाब देंहटाएंशर्मीला के साथ हैं ...शुभकामनायें उनको !
जवाब देंहटाएंगंभीर समस्या है...
जवाब देंहटाएंसमाधान निकले!
Irom ki mango par sahanubhuti purvak vichar kiya jana chahiye aur aisa koi samadhan khoja jana chahiye jo rashtiya hit mein ho, sath hi wanha ke nagriko ka nagrik adhikar mile
जवाब देंहटाएंऐसा मुद्दा जिसे खाद-पानी नहीं मिला...!
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