उस दिन जब इस पोस्ट को प्रकाशित किया तब कुछ तकनीकी गडबडियों के कारण सब दुरूस्त नहीं हो पाया इसलिए , इस कडी में ..पंजाब के सफ़र की अगली और आखिरी कडी पढिए
सफ़र मजे में कट रहा था ....साले साहब ने अपने और बच्चों की पसंद के गाने मजे में लगा रखे थे और एसी की ठंडक को चला बंद करके ....उसे अनुकूल किया जा रहा था । सोनीपत , पानीपत , कुरुक्षेत्र, खन्ना , सरहिंद आदि सब कुछ सरसराते हुए निकलते चले जा रहे थे ...या ये कहूं कि ये सब तो अपने स्थान पर ही थे ....हम ही सरकते जा रहे थे ....।सरहिंद के पास जाकर सबके पेट के चूहे इतनी जोर से ......आइटम डांस करने लगे कि ....साले साहब और हमने तय किया कि अब जो भी ढाबा मिले ...उसमें पेट पूजा हो ही जाए । यहां मैं ये बात बताता चलूं कि इस रास्ते पर सडक मार्ग से जाते हुए मैंने एक बात नोटिस की , वो ये कि , आप चाहे जिस ढाबे पर रुक कर खाना खा लें , खाने का स्वाद आपको अच्छा ही लगेगा ....और फ़िर हमारी किस्मत देखिए ...कि हमें मिला भी तो कौन सा .............जमींदारी ढाबा । सरहिंद में राष्ट्रीय राजमार्ग के बाईं तरफ़ ....हमें मिला ये जमींदारी ढाबा ...ठीक दैनिक भास्कर के दफ़्तर के दाईं ओर ।
वहां आलू के और पनीर के गर्मागर्म पराठों मक्खन के साथ , लस्सी का बडा ग्लास ..और उसके बाद दूध वाली चाय का ऑर्डर दिया गया । देखते ही देखते सबने पराठे कैसे उडाए ये पता भी नहीं चला । मैं अपनी आदत के अनुरूप अपने मोबाईल को काम पर लगा चुका था ...देखिए ...।
(ढाबे में झूले /पालने में बैठे सारी बच्चा पार्टी )
इसके बाद धरती का हरा रंग और भी गहरा होता गया ...मौसम में मादकता को बढाने का काम किया ...धीमी तेज़ गति से होती बारिश ने ....। अंबाला , लुधियाना और फ़िर जालंधर ..पहुंचते ज्यादा देर नहीं लगी । पहले ट्रिप में हम अपने तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार कुल दो दिन रुके ...और कुछ घूमघाम के अलावा ज्यादा नहीं हुआ । हां एक यादगार बात ये रही कि इस दौरान मेरा चेहरा बदल चुका था और फ़िर होशियारपुर में खिंचवाई हुई फ़ोटो आप पहले ही इस पोस्ट पर देख चुके हैं ।
अगली यात्रा इसके कुछ ही दिनों शायद नौ या दस दिनों बाद ही अचानक ही तब हुई जब पता चला कि श्रीमती जी कि नानी जी का स्वर्गवास हो गया । इस बार फ़िर से कमान संभाली साले साहब ने और अगली सीट पर हमेशा की तरह मैं । पीछे हमारी श्रीमती जी , हमारी सासू मां, और ससुर जी । लगभग दो बजे शुरू हुई ये यात्रा बेहद थका देने वाली रही और रही सही कसर पूरी हो गई जब पहले ससुर जी की और फ़िर आगे जाकर मेरी भी तबियत खराब हुई । ये शायद अवसर का भी असर था जो तन मन बोझिल सा महसूस कर रहे थे । अगले दिन दाह संस्कार के बाद हमारी त्वरित वापसी हुई । साथ ही ये भी तय हो चुका था कि ठीक कुछ दिनों बाद हमें दोबारा उनके श्राद्ध , क्रिया वैगेरह के लिए जाना है । इस बार परिवार का पूरा कुनबा और वो भी बाकायदा रेलगाडी द्वारा ।
सुबह शाने पंजाब से निकलना था सो .एक बार फ़िर से वही सुबह की तैयारी । साले साहब और उनके मित्रों को ये जिम्मेदारी दी गई कि वे हमें स्टेशन तक पहुंचा कर आएं । ट्रेन में सफ़र के अपने बहुत पुराने अनुभव के कारण , मेरे ससुर जी और सासू मां किसी भी रेल यात्रा की कमान सीधा मेरे हाथों में थमा देतीं । मसलन , कहां कैसे कब चलना है , कितना सामान लेना है ., आदि आदि । इस बार सफ़र रेल से था , और शायद सुकून भरा भी । हालांकि , इस बार एक अलग बात ये थी कि इस बार हमें पूरे रास्ते और फ़िर वहां भी तेज बारिश का सामना करना था । मगर जिस एक बात ने मुझे थोडा हैरान किया वो ये कि , अपने नाम के मुताबिक .....शाने पंजाब ..कहीं से भी पंजाब का शान तो नहीं ही दिख रहा था उसमें । और तो और लुधियाना जाते जाते तो प्रसाधन का पानी तक खत्म हो चुका था । कुल पांच घंटे का रेल का सफ़र , सबके साथ इतना तेज बीता कि बस पता ही नहीं चला ।
रास्ते में हमें मिले चिंटू जी । दो छोटे छोटे बच्चे .....अपने नन्हें नन्हें तन मन से छोटे छोटे करतब दिखाते । उन दोनों बच्चों ने हमारे साथ वाले बच्चों की टीम के साथ जैसे पूरी सांठ गांठ कर ली । कभी टोपी के साथ बंधी लंबी चोटी को गोल गोल घुमाते , कभी छोटी छोटे कलाबाजियां करते, हमारी बुलबुल की चहक तो उन्हें देख कर जैसे ....डोल्बी डिजिटल साऊंड में बदल गई थी । मैं हैरान था कि , दो छोटे बच्चे बिना किसी के साथ इतनी दूर तक हमारे साथ चले आए । उन्हें छोटी से अलग करने में हमें खासी दिक्कत आई क्योंकि बुलबुल अपने उन दोनों छोटे से अजीबो गरीब "भईया "को अपने साथ ही ले चलना चाहती थी ...। हम जालंधर पहुंचे तो सीधे उस स्थल पर पहुंचे जहां क्रिया का आयोजन किया गया था ।
जालंधर के अड्डा होशियारपुर चौक के पास ही स्थित ,.......माता अन्नपूर्णा मंदिर ...आसपास कई मंदिरों से घिरा हुआ ..एक बडे से अहाते में स्थित ....एक दम शांत ..शीतल ..और सुकून भरा मंदिर । वहां पहुंच कर ऐसा लगा मानो ....शहर के बीचों बीच कोई शांतिवन या फ़िर कि गुरू रविंद्रनाथ टैगोर का आश्रम निकल आया हो । देखिए
इस अन्नपूर्णा मंदिर की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं लगी ।
एक संत जो यहां रहा करते थे ..एक बार उन्होंने अपने एक साथी से कहा कि वे आने वाले पूर्णिमा को .....आसपास के कुछ ब्राह्मणों को जीमने के लिए न्यौता दे दें .....वो सेवक जाने किस धुन में था कि पूरे जालंधर को न्यौता दे आया । वापस आ कर जब उसने ये बात संत को बताई तो उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं । पूर्णिमा के दिन जब सब भोजन करने आए तो संत ने कहा कि देखो मैं माता के पास बैठा हूं ..उनके आंचल के भीतर कोई झांकेगा नहीं , जिस खाद्य पदार्थ की जरूरत हो मांगते जाना ..और उस रात पूरे जालंधर ने जाने कैसे , किस चमत्कार से भोजन किया ।
शाम को टहलते हुए मैं अड्डा होशियारपुर चौक की तरफ़ बढा तो देखा कि एक मिठाई की दुकान है ..शायद बंगाली स्वीट्स के नाम से ....मगर उस दुकान की रसमलाई ..जिसके लिए दुकानदार ने अलग से लिख कर लगा रखा था ..पहले उसीने मुझे आकर्षित किया और फ़िर जिस तरह से उसने पूरे बडे से टब के बराबर बरतन में भर के रसमलाई रखी हुई थी ...तो उसमें से मैं दो प्लेट कम करने से खुद को नहीं रोक सका ।
वापसी अगली शाम को थी ...वापसी में श्रीमती जी लग गईं अपनी पत्रिका पठन में बच्चे लग गए अपने खेल में ....और मैं ......
मैं सोच रहा था ....ओह ये यात्रा जाने अब कब तक यादों में बसी रहेगी ..............................
गुरुवार, 23 सितंबर 2010
जमीदारी ढाबा .....शाने पंजाब .....जालंधर की बारिश....माता अन्न्पूर्णा का मंदिर ....अड्डा होशियारपुर की रसमलाई ....एक सफ़र ऐसा भी
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बढ़िया यात्रा वृतांत
जवाब देंहटाएंआनन्द आ गया वृतांत पढ़कर,
जवाब देंहटाएंtasviro ke sath yatra vartant padha aur dekhe...
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएंढेर सारी शुभकामनायें.
yatra vritant acha laga
जवाब देंहटाएंzaminada dhaba dainik jagran wala photo bahut pasand aaya.......hahahaha
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