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"अहि बेर गाम में आम खूब फ़रल अईछ , भोला भईया "(इस बार गांव में आम खूब फ़ले हुए हैं , भोला भईया ), जैसे ही फ़ोन पर चचेरे भाई ने ये कहा मैं हुलस पडा , ये जानते हुए भी कि उन आमों के स्वाद तो स्वाद इस बार तो उनकी सूरत भी देखने को नसीब न हो । और इस बार ही क्यों अब तो जमाना हो गया जब आम के मौसम में गांव जाना हुआ हो । और फ़िर अब आम ही कौन सा पहले जैसे रहे , वे भी हर दूसरे साल आने की बेवफ़ाई वाली रस्म ही निभाने में लगे हुए हैं , उसकी भी कोई गारंटी नहीं है । मगर जब चचेरे अनुज ने ये कह कर छेड दिया, तो फ़िर अगले दस मिनट तक तो फ़ोन पर आमों का ही ज़ायज़ा लिया गया । किस किस बाग में कौन कौन से आम फ़ले हैं , पिछले दिनों जो अंधड तूफ़ान आया था उसमें कितना नुकसान हुआ । फ़ोन करके जब बैठा तो अनायास ही वो आमों की दुनिया और उसके बीच पहुंचा हुआ मैं , बस यही रह गए कुछ देर के लिए ।
शहरी जीवन में रहते हुए जो सबसे बडा नुकसान होता है वो होता है कि आप प्रकृति को सिर्फ़ चित्रों और चलचित्रों , टीवी , इंटरनेट पर ही देख सकते हैं , । आज के बच्चों से यदि पूछा जाए कि आम के लीची के , केले के , संतरे के , नींबू के मिर्च के टमाटर के , और इन तरह के तमाम पेड पौधों को असल में कभी देखा है तो उनका उत्तर स्वाभाविक रूप से न में ही होता था । हम पहले के बच्चों की एक खुशकिस्मती तो जरूर ये रही कि हमें , हम जैसे मां बाप नहीं मिले जो ग्राम प्रवास को भी किसी ट्रैवेल ट्रिप की तरह आरामदायक और सुकूनदेह की तरह का निश्चिंतता नहीं पाकर वहां जाने का कार्यक्रम टाल जाते थे । वे तो साल भर किसी न किसी बहाने खुद भी और हमें भी गांव ले जाने की जुगत में लगे रहते थे । और हम बच्चे भी तब शायद मिट्टी , पानी , पेड , बारिश, से ज्यादा प्यार किया करते थे।
आम का एलबम मेरे जीवन में शायद बहुत बचपन में ही खुल गया था । ये तो यकीनी तौर पर कहना जरा कठिन है कि उन दिनों आम के पेड , नानी के गांव में ज्यादा थे या दादी के गांव ( आज जरूर कह सकता हूं कि दोनों ही गांव में अब आधे भी नहीं रहे , नहीं बचे ) मगर शहरी बच्चों को ये छूट थी कि बिना ये सोचे , ये परवाह किए कि वो आम के बगीचे किसके हैं , (उनके भी जिनसे पिछले दिनों हमारे घरवालों की नोक झोंक हुई हो और बातचीत तक बंद हो तो भी , कोई फ़र्क नहीं पडता था , न उनके लिए न हमारे लिए ) , हमें जो जहां जैसा दिखता था हम घुस पडते थे । और रही बात आम के प्रकार की । तो मोटे तौर पर हमें आम की नस्ल के बारें में दो बातें बताई गई थीं । एक आम के पेड कलमी हुआ करते थे और दूसरे जिन्हें शायद "सरही "कहा जाता था । कलमी बडे , मीठे , और सलीकेदार आम हुआ करते थे , उन्हें बाकायदा कलम के द्वारा तैयार किया जाता था और फ़िर बहुत तगडी देखभाल के साथ पाला पोसा जाता था । जबकि इसके ठीक उलट सरही आम वो होते थे जो इन कलमी आमों की गुठली को मिट्टी में रोप दिए जाने से निकलते थे । और उन आमों में ऐसे ऐसे प्रयोग होते थे कि बस पूछिए मत ।
इन प्रयोगों का परिणाम ये होता था कि सरही आमों की कम से कम पच्चीस हज़ार प्रजातियां , उनका गंध , स्वाद भी बिल्कुल अलग अलग , उनकी शक्ल सूरत भी बिल्कुल अनोखी किसी का मुंह लाल है तो किसी का पिछवाडा , कोई आम ऐसा जो मुट्ठीमें समा जाए , तो कोई ऐसा जो लौकी के आकार और साईज़ का , एक में रेशे ही रेशे , तो एक में सिर्फ़ रस ही रस , एक में छिलका इतना पतला कि ....अब क्या क्या कहा जाए किस किस के बारे में । वो आमों का मौसम भी कमाल हुआ करता था । मेरे ख्याल से आमों की चौकीदारी का समय तब से शुरू हो जाता था जब उनमें गुठलियों का आना शुरू हो जाता था । आमों के बगीचे में सबके अपने अपने बाग होते थे इसलिए सभी वहीं पर अपनी अपनी खटिया लेकर वहां पूरे साजो सामान के साथ डट जाते थे ।इतना ही नहीं बाकायदा , दो तीन महीनों के लिए एक कुटिया बनाई जाती थी जो इतनी मजबूत और सुरक्षित होती थी कि धूप बरसात आदि से मजे से बचाव होता था उनमें । दिन में सब के सब बैठ के गप्पें हांक रहे हैं , गीत गा रहे हैं , और झूले भी खूब डलते थे । मानो पूरा परिवार ही वहीं जम जाया करता था , खासकर बच्चे ।
गर्मी की रातों में अचानक धूल भरी आंधियां और फ़िर बारिश । ये एक अघोषित सा नियम था कि इस अंधड तूफ़ान में टपकने वाले आमों पर , जो लूट सके उसका , वाला फ़ार्मूला लागू होता था । बस वो स्पर्धा तो देखने वाली होती थी । सुबह जब मौसम साफ़ होता था तो अपना अपना स्कोर कार्ड सब दिखाते समय जितने गर्व भरे होते थे उतने तो सहवाग और तेंदुलकर भी नहीं होते सैंचुरी पार्टनरशिप करने पर भी । आमों का उपयोग भी कमाल ही था । अलग अलग साईज़ ,अलग अलग स्वाद के हिसाब से , अचार , चटनी , मुरब्बे , खटमिट्ठी , आम पापड जिसे हम लोग आम तौर पर अम्मट कहते थे , के अलावा कच्चे आम नमक के साथ और पके हुए आम तो थे ही । आमों को जबरदस्ती पकाने की प्रणाली भी कमाल की हुआ करती थी । मिट्टी में एक गहरा गड्ढा खोदा जाता था ,उसके तल में पत्ते बिछा कर आमों के लिए नर्म बिस्तर तैयर करके उन आमों को बडे प्यार से , मजे से रख दिया जाता था , फ़िर उस गड्ढे को पुआल और फ़ूस से अच्छी तरह ढक दिया जाता , बस एक मुहाना छोड दिया जाता था ।उस मुहाने पर एक मिट्ठी का बर्तन उलटा करके , जिसकें पेंदी में एक छेद होता था उसे रख दिया जाता था । अब शुरू होती थी उसे पकाने की प्रक्रिया । उस छेद में हल्दी , और एक पावडर शायद कार्बाईड होता था या कोई और पता नहीं , भूसे में आग लगा कर उसे धीरे धीरे फ़ूंकते थे और गड्ढे को बंद कर देते थे । आश्चर्यजनक रूप से इस प्रक्रिया से अडतालीस घंटे में ही कच्चे आम और केले भी पक जाते थे । ऐसा अक्सर नवयुवक तब जरूर करते थे जब चुरा कर ढेर सारे आम तोड लाते थे और फ़िर छुपा कर उन्हें पका कर काफ़ी दिनों का राशन जमा हो जाता था ।
इधर कुछ वर्षों में आमों की पैदावार में भी काफ़ी परिवर्तन देखने को मिले । इनमें से एक खास तो ये कि अब ये आम के वृक्ष हरेक दूसरे साल ही फ़ल देने को तैयार होते थे । अब तो सुना है कि इसके लिए भी बाकायदा उन्हें इंजेक्शन वैगेरह देना पडता है , ओह दुखद है ये । इन आम के बगीचों से सिर्फ़ इतना ही भर रिश्ता नहीं होता है गांवों में , ये प्रतीक होते हैं सामूहिकता का जहां सब परिवारों के पुरखों की समाधि स्थल बनी होती है । अक्सर दाह संस्कार वैगेरह भी इन्हीं आम के बाग बगीचों के में हुआ करते थे । उपनयन , मुंडन , जूडशीतल , जैसे बहुत से संस्कार और त्यौहार इन आम के बगीचों के बिना पूर्ण नहीं हो सकते थे ।
"भोला भईया , अहि बेर गाम में आम खूब फ़रल अईछ " कानों में अब तक गूंज रहा था ये । पिछले ग्राम प्रवास के दौरान मेरे द्वारा लगाए गए आम के पेडों की खींची गई तस्वीर , सुना है कि अबकि ये भी लदे हुए हैं ...