रविवार, 16 मई 2010

एक चिट्ठी मां के नाम ....जिसे अब वो कभी भी न पढ पाएगी




मां पता नहीं आज क्यों मन इतना व्याकुल है , मुझे नहीं पता । आज न तो कोई त्यौहार है न ही कोई दुख या संकट की घडी मुझ पर अचानक आई है , क्योंकि अक्सर इन्हीं दोनों समय पर तुम मुझे बहुत ही याद आती थी , मगर फ़िर भी मैं नहीं जानता कि आज तेरी इतनी याद क्यों आ रही है मुझे । मां , मुझे नहीं पता कि तुझ तक ये चिट्ठी कैसे पहुंचेगी मगर इतना जानता हूं कि जब यहां भी बिना बोले , बिना कुछ कहे तू मेरी हर बात , समझ जाती थी तो ये बात भी तुझ तक जरूर ही पहुंच जाएगी ।

मां गांव और घर तो उसी दिन छूट गया था जिस दिन पढाई पूरी करने के बाद इस शहर का रुख किया था । काश कि पता होता कि ट्रेन पर शुरू की गई वो यात्रा , गांव की मिट्टी से , तुझसे , गांव के खेत खलिहान से , बगीचों तालाबों से मेरी विदाई जैसा है तो वो यात्रा नहीं शुरू करता । मुझे नहीं पता कि गांव में रहते हुए मेरा भविष्य क्या होता । मैं ये भी नहीं जानता कि यहां राजधानी में रह कर जो नाम पैसा कमाया वो ज्यादा अच्छा था या गांव में किसी छोटी दुकान पर दिन भर में कुछ बेच कर शाम को आंगन में तुम्हारे हाथों की पकाई हुई रोटी और खेडही दाल ( मूंग की छिलके वाली दाल ) की नींबू वाली चटनी के साथ जिंदगी गुजारना । गांव के छूटने का दुख तो पहले ही था ,मगर जब तू थी और बाबूजी के साथ गांव में ही रहने के तेरी जिद थी तो उसके कारण एक बहाना तो था ही , और इस बहाने को अंजाम तक पहुंचाने में तेरा वो आग्रह छठ पूजा मे आने का आग्रह , बसंत पंचमी में आने की जिद , बिलटू के उपनयन में पहुंचने की ताकीद , जाने कितने बहाने थे जिन्हें सुनने को मैं मन ही मन आतुर रहता था और फ़िर लाख इधर उधर होने के बाद अंदर से अपना मन होने के कारण किसी न किसी जुगाड से पहुंच ही जाता था ।

मां इस बार तेरे बैगैर वो घर , घर कम एक सराय ज्यादा लग रहा था । कहने को तो चाची , चाचा सब थे मगर फ़िर भी जितने दिन रुका मैं बिपिन के घर ही खाता पीता रहा । बाबूजी जिद कर रहे थे , कि मुझे यहीं छोड जाओ , मैं कहां रह पाऊंगा , मगर मां ये तो तुझे भी पता था न कि अब गांव में कोई ऐसा भी नहीं बचा है जो दवाई भी ला सके बाहर से इसलिए बाबूजी को भी साथ ले आया । मां , बस यही एक गलती हो गई है शायद मुझसे , मगर क्या करूं उन्हें किसके भरोसे छोडता वहां , अब कौन है वहां तेरे जैसा ? यहां कुछ दिनों के लिए बबलू ले कर गया था बाबूजी को , अपने यहां रखने के लिए , मैं कैसे मना करता , आखिर उनका छोटा बेटा है , मगर मां नहीं बता सकता कि क्यों फ़ोन पर की गई एक बातचीत के बाद मैं उन्हें लेकर यहां आ गया हूं कभी कहीं नहीं जाने के लिए । मां , तू होती तो शायद इस बार भी बबलू की बात को छिपा कर मुझे और उसे भी मना लेती , मगर देख न अब तो वो पूरी तरह निश्चिंत हो गया है, महीनों हो गए उससे बात करते हुए ।

मां मैं बाबूजी की सेवा पूरी निष्ठा से कर रहा हूं , यहां उन्हें किसी बात की तकलीफ़ भी नहीं है । मगर फ़िर भी जाने क्यों मुझे लगता है कि मैंने उनका दिल कहीं किसी आलमारी , किसी शैल्फ़ में कैद करके रख दिया है । उनका मन हमेशा ही कहता रहता है कि उन्हें मुक्त कर दूं , उन्हीं अपने घर दालान , खेत खलिहान , आम के पेड, गेहूं धान सब देखने के लिए , अपने हाथों से बेलपत्र तोड कर महादेव मंदिर में चढाने के लिए , मगर मैं चाह कर भी नहीं कर सकता ये । मां उन्हें अब मेरे साथ ही यहीं रहना है वे रह भी रहे हैं , और मां एक और बात बेशक तेरी बहू समझे न समझे तेरे पोता और पोती समझ रहे हैं अच्छी तरह कि वे दादा जी हैं , एक ऐसे व्यक्ति जिनकी उनके पिता बहुत इज्जत करते हैं और शायद यही वजह है कि वे अब उनके साथ खूब समय बिताते हैं ...। मां तू जल्दी चली गई ...कुछ दिन तो और रुकती न .....

मैं नहीं जानता कि मैंने ये क्यों लिखा ...............मगर आज मां की याद आई तो लिखता चला गया ........

28 टिप्‍पणियां:

  1. माँ का सानिध्य, माँ का साया, भगवान सभी को लम्बे समय तक दे। हम तो बचपन से खो चुके हैं

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  2. अजय जी,

    बहुत ही संवेदनशील पोस्ट....मन भर आया इसको पढते पढते....
    आपके ये एहसास हर माँ तक पहुंचें

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  3. बड़े बूढ़े पेड़ की तरह होते है अपनी जड़ों से जुड़े हुए उनको वहां से शहर के मौहोल में लाना तो आसान है पर उनका एकाकीपन कोई नहीं भर पता .
    जहाँ गाँव में हर छोटा बड़ा हाल चाल पूछता चलता है वही शहर में शक की निगाह से देखने लगते है ...
    मार्मिक अभिव्यक्ति

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  4. चिट्ठी ना कोई सन्देश .......... जाने वह कौन सा देश जहाँ तुम चले गए !!

    वन्दे मातरम !!

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  5. maa toh hai maa
    maa toh hai maa

    maa jaisi
    duniya me hai koi kahan ?

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  6. जो बीत चुका है उसकी याद हमेशा आती है।
    उसका स्नेह दुलार डांट फ़टकार प्यार सब

    माँ को याद कर
    चलिए मन हल्का हो गया।

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  7. माँ के नाम यह सन्देश उन तक पहुँच ही गया है..वह तो आप को हमेशा जहाँ भी है वहां से देखती ही रहती होंगी.
    और आप जिस तरह से बाबूजी की सेवा कररहे हैं ,जानकर खुश भी होती होंगी.
    --अब मुस्कुरा दिजीये.माँ हमेशा अपने बच्चों के आसपास ही रहती है.

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  8. कल मेरे पिता जी की बरसी थी, लेकिन हम यहां इसे सही रुप मै मना भी नही सकते, कहां पंडित जी को ढुढे जब कि यहा है ही नही, फ़िर बहुत से रस्मो रिवाज
    बस आंखे बन्द कर के भगवान से मन ही मन उन के लिये शांति का दान मांग लिया, ओर आज आप की यह पोस्ट पढी तो मन भारी हो गया, लेकिन मुझे यकीन है आप की यह चिट्टी मां ने जरुर सुन ली होगी, ओर कही दुर बेठी तुम्हे आशिर्वाद दे रही होगी, बाबू जी का ध्यान रख रहे है यह भी बहुत बडी पुजा है, ओर यह भी किसी किसी को ही सोभागया मिलता है, कुछ नालायक आंखो के होते अंधे होते है, तो कुछ मजबुरी मै.. आज आप के संग मै भी बहुत.......

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  9. बहुत संवेदनशील चिट्ठी - मेरी अपनी माँ याद आ गयी. (माँ किसी की भी हो क्या फर्क पड़ता है)

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  10. आँख भर आई. पिता जी को यहाँ लाया था. नहीं रुके, चार महिने में वापस अपनी जड़ के पास. माँ क्या चली गई, सब खत्म सा हुआ.

    मित्र, निश्चित मानो माँ कहीं आस पास से ही हमें देख रही है. मैं महसूस करता हूँ हमेशा. वो तुम्हारा प्यारा पत्र भी पढ़ रही होगी और आज तुम पर गर्व भी कर रही होगी.

    हमेशा महसूस करोगे उसे अपने आस पास.

    बस, बाबू जी की जितनी सेवा कर पाओ, हमेशा कम ही रहेगी, यही मान कर करते जाना.

    भावुक हो गया मैं पढ़ते पढ़ते.

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  11. माँ की याद जब भी आती है ... ऐसे ही न जाने कितने ख़याल अपने आप चले आते हैं ...... वैसे एक बात मैं मानता हूँ.. .... माँ जहां भी है .... हमारी हर बात सुन रही है ... उस का हाथ हमेशा हमारे सर पर है.

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  12. मन को भावनात्मक रूप से झकझोरती पोस्ट / अच्छा लगा आपकी सच्ची भावना को पढ़कर /

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  13. एक शेर याद आ रहा है;
    दर्द कुछ ऐसे भी होते है कि जो फटते नहीं
    फासले गर बढ़ने लगे तो फिर घटते नहीं !

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  14. बहुत ही भावुक लिखा आपने. आंखे नम हैं.

    रामराम.

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  15. बेहद संवेदनशील...भावुक कर देने वाली सामयिक पोस्ट....
    कुछ वक्त पहले एक कविता लिखी थी मां गूंत रही है कविता...शीर्षक से....लगभग यही भावना थी....
    महफूज़ भाई की तरह मैं भी रोया पढ़ते पढ़ते....
    मेरी मां लखनऊ में हैं घर पर...बहुत मिस करता हूं...

    @जलजला जी....आप जैसे भी जलजले हों...इससे कोई फर्क नहीं पड़ता...पर लगता है वाकई आपका दिमाग चल गया है...एक तो बेहूदी प्रतियोगिता की बात करते हैं....महिलाओं के नाम पर और फिर मां जैसी संवेदशील पोस्ट पर अपना वाहियात प्रचार अभियान मूर्खता पूर्ण तरीके से छेड़ देते हैं....क्या वाकई आपको इस पोस्ट की संवेदनशीलता का अंदाज़ा नहीं है....

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  16. माँ की याद तो कभी भी यूं ही चली आती है! मेरा मानना है की उस समय माँ भी हमी को याद करती होगी!आपकी चिट्ठी माँ के पास पहुँच गयी है ऐसा मेरा यकीन है! और देखिये जवाब भी आता ही होगा,...अपने तरीके से!

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  17. एक बेहतरीन पोस्ट अजय जी ये बुढ़ापा अवस्था ही ऐसी है जहां कोई यत्न अकेलेपन को नहीं खत्म कर पाता। यूँ तो मां कभी भूलती नहीं पर इस पोस्ट को पढ़ते हुए हम भी अपनी मां से दो चार बातें कर आये अपने ख्यालों में

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  18. बहुत ही संवेदनशील।
    भावुक कर दिया आपने

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  19. अजय मेरे भाई, तुमने इससे बढिया जीवन मे कु\छ भी नही लिखा होगा. मा शब्द अपने आप मे एक पूर्ण छद है एक कविता है एक महाकाव्य है. आपकी मा को यादकर मै भी अपनी मा को प्रणाम करता हू और आपका इस स्वर्णिम और पवित्रतम पोस्ट के लिये आभार प्रकट करता हू.

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  20. अत्यंत मंर्मिक पोस्ट हर माँ को शत शत नमन ...

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  21. अजयजी ....हर शब्द सच्चा ....हर भावना निर्मल ...स्वच्छ ....पारदर्शी ...जैसे पूरा दिल पलट कर रख दिया हो ...छू गया आपका आलेख ....उसकी सच्चाई

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  22. अजयजी ....हर शब्द सच्चा ....हर भावना निर्मल ...स्वच्छ ....पारदर्शी ...जैसे पूरा दिल पलट कर रख दिया हो ...छू गया आपका आलेख ....उसकी सच्चाई

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  23. अजयजी ....हर शब्द सच्चा ....हर भावना निर्मल ...स्वच्छ ....पारदर्शी ...जैसे पूरा दिल पलट कर रख दिया हो ...छू गया आपका आलेख ....उसकी सच्चाई

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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