सोमवार, 19 अप्रैल 2010

अब सिर्फ़ चिट्ठा नहीं , अब चिट्ठी भी...................




आज जाने इस गर्मी में क्या सूझा कि खोल कर बैठ गए अपने एक पुराने संदूक को , बहाना तो था साफ़ सफ़ाई का । उस संदूक पर पडी हुई धूल की पर्त मुझे कई दिनों से चुभ रही थी ,मगर उससे ज्यादा लालच इस बात का था कि रोज के दर्जन भर अखबारों और बहुत सारी पत्र पत्रिकाओं को पढने हुए उनमें से काट काट कर जो कतरनें बेतरतीबी से उन जैसे संदूकों, लिफ़ाफ़ों, और फ़ाईलों में ठूंस देता हूं , वो फ़िर दोबारा की जाने वाली पडताल में और भी दिलचस्प और उपयोगी होकर मेरे हत्थे चढती हैं । क्योंकि इस बार मैं उन्हें उनके लायक ठिकाने पर पहुंचाने की जुगत भी साथ साथ ही करता चलता हूं । इसकी बानगी बहुत जल्द आपको ब्लोग औन प्रिंट पर देखने को मिलेगी जहां ब्लोग्गिंग से जुडी ऐसी ही कई पुरानी कतरनें आपको देखने पढने को मिलेंगी , जो आज तो दुर्लभ कैटेगरी में मानी ही जा सकती हैं । खैर इसे छोडता हूं । तो जैसा कि मैं कह रहा था कि आज "संदूक में संडे " मनाने का पूरा आयोजन बन चुका था हमारा । मगर जब खोला तो वो संदूक निकल आया ढेर सारे पत्रों से भरा हुआ संदूक । जो बरसों पहले लिखे, पाए गए थे ।


           जब भी कोई ऐसा अवसर आता है तो मुझे नहीं पता कि ये मानव मन की कौन सी क्रिया के तहत होता है और ये भी नहीं कि ऐसा सिर्फ़ हम जैसे कागजी कीडों (ये उपमा , हमारे जैसे लोगों को उनकी श्रीमती जी द्वारा अक्सर युनवर्सिली दिया जाता है )में ही होता है , मगर इतना है कि ऐसे अवसरों पर हम अक्सर पूरी बेशर्मी से अपने सारे नियमित अनियमित कामों को छोडछाड कर पूरी तरह रम जाते हैं उन कागजी चीथडों में , आखिर कागजी कीडे जो ठहरे । ओह ! एक एक पत्र ,जैसे यादों की वो पर्तें खोलता जा रहा था , जो मन के किसी कोने में ,कबकी दुबक कर चुपचाप गहरी नींद सो चुकी थीं । उन्हें भी पता था कि आज के इस बदलते दौर में जहां , संवाद शब्दों से निकल कर ध्वनि में रूपांतरित हो चुके हैं , और प्रतीक्षा के क्षणों,दिनों को मिटाते हुए त्वरित हो चुके हैं , उस दौर में अब कोई चिट्ठी पत्री लिखने पढने और उसकी बातें करता भी बेमानी सा ही दिखता है । आज चिट्ठीपत्री के रूप में अधिकांशत: सिर्फ़ व्यावसायिक पत्र व्यवहार ही सीमित रह गया है । अब तो कोई भी जगह इतनी दूर नहीं रही जहां मोबाईल के एसएमएस संदेश की पहुंच न हो या कि उसकी घंटी न सुनाई दे सके , कोई इतना गरीब नहीं है जो कि इन संदेशों को पढ सुन सके ।

साकेत , मेरा स्कूल के दिनों का मित्र , कुल अट्ठाईस पेज (जो कि किसी स्कूल की कौपी से ही फ़ाडी थी उसने ) का वो अनोखा पत्र जिसमें उसके बहुत से जुनून का जिक्र था । कहता था यार अजय कुछ अलग करने के लिए कुछ अलग सोचना पडता है , मैं सोच रहा हूं कि दुनिया का सबसे लंबा पत्र लिख डालूं तेरे नाम से ही , और भी बहुत सी ऐसी ही योजनाएं । स्व. ईच्छावती दीदी का आखिरी पत्र जिसमें सिर्फ़ दो लाईने लिखीं थीं , अजय तबियत ठीक नहीं है , शायद ये आखिरी पत्र हो ( इच्छावती महापात्र दीदी जिनसे मेरी मुलाकात एक रेल यात्रा के दौरान हुई थी और वो हमारी पहली और आखिरी मुलाकात थी ) ,शशि और सरोज मिश्रा , दो जुडवा बहनें , जो मेरी क्लास में थीं , उनका पत्र , लखनऊ पहुंच चुके हैं अजय , अभी शहर नया नया है , जल्दी ही एक नए बसने वाले गोमती नगर में  शिफ़्ट होने वाले हैं , तुम तो रहे हुए हो न लखनऊ में , यहां घूमने वाली जगहों के बारे में बताना , और मैंने बताया भी था । सोचता हूं कि अब वो वो अपने बच्चों ओ घुमा रही होंगी , लखनऊ का बोटैनिकल गार्डन , या फ़िर वो कुकरैल वन , या प्रकाश कुल्फ़ी की वो बडी सी दुकान ।ओह ये किसका पत्र है , विमल भईया की कनिया का , बौआ , अब सुना है कि आपका दिल्ली में ही कोई चक्कर चल रहा है , इससे मुझे भान हो गया है कि आप मेरी बहन से विवाह नहीं करेंगे । दुख हुआ मुझे जानकर , मगर यदि फ़िर भी वहां बात न बने तो आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी मुझे ।और पूरा बक्सा , जैसे जीवन के कितने टुकडों को जीता चला गया मैं ।

मुझे याद है कि जब मेरे पत्र दूसरों को मिलते थे वो वो कहते थे , यार क्या चिट्ठी लिखते हो , सारे संभाल कर रख लिए हैं हमने । आज भी अपने हाथ से कार्ड बना कर नववर्ष पर भेजने की परंपरा को किसी तरह निभाता जा रहा हूं । जबकि अब तो जवाबी कार्ड की जगह जवाबी फ़ोन या जवाबी मैसेज आ जाता है जो शायद किसी और के द्वारा किए गए मैसेज को ही फ़ारवर्ड किया गया होता है । इस कंप्यूटर पर लिखने की आदत ने एक और जो नुकसान कराया है वो है लिखने की आदत । हाथों से कागज पर अपने अंदाज़ में कलम घसीटी का जो मजा है वो इस कंप्यूटर में कहां नसीब होती है । अब भी पहले कोई आलेख , व्यंग्य , कागज पर ही लिखता हूं फ़िर उसे टाईप करता हूं । हां ब्लोग लिखने के लिए वो पद्धति नहीं अपनाता । शाम तक जाने कितने दोस्तों को गले लगा चुका था , जाने कितनों की कल्पना कर चुका था उनके आज के जीवन के बारे में । तो अब सोचा ये गया है कि बस बहुत हुआ , चिट्ठा लिखना ही तो सब कुछ नहीं है , कल से चिट्ठी भी लिखना दोबारा शुरू करना है , बेशक शायद जवाब न मिले बहुत बहुत दिनों तक , मगर कभी न कभी वे भी शायद ऐसा ही कोई बक्सा खोल बैठें ...................

19 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर लगा आप की यादो का यह बक्सा, धन्यवाद

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  2. बदलती दुनिया के बदलते रंग..पुरानी गठरी में खोना कितना अच्छा लगता है.

    विल्स कार्ड नहीं निकले?? :)

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  3. सच मे ये यादे भी बडी अनमोल होती है।बडा सकून मिलता है इन सब से...

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  4. पुराने ख़त फिर उसी बीते पल में ले जाते हैं ...उन्ही एहसासों के साथ ...

    अच्छे ख़त लिखने का कॉम्प्लीमेंट तो मुझे भी कई बार मिल चुका ....

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  5. ख़त लिखना तो जैसे इतिहास हो गया है...इधर मेरे बेटे ने जान बूझ कर एक ख़त लिखा ..कह रहा था कि यूँ तो आपलोगों से स्काइप पर बात हो जाती है लेकिन ख़त लिख कर मैं ये बताना चाहता हूँ की मैं आपलोगों से कितना प्यार करता हूँ...और सचमुच जब वो ख़त पहुंचा हमारे पास...हम ऐसे लूझ पड़े उसपर जैसे कारू का खज़ाना हो....सचमुच जितना अपनापन खतों के अक्षरों में है शायद ही उतना संवाद में हो...बोलते वक्त हम अक्सर झिझक जाया करते हैं लेकिन लिखते वक्त..एक किस्म कि बेबाकी तारी होती है...
    बहुत अच्छी लगी आपकी प्रस्तुति...
    आभार...

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  6. क्से से मानों यादों की बरात ही निकल आयी हो ! पुराने रखे खतों की याद दिला दी अजय भाई

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  7. पुराने बक्‍से ऐसे ही चुम्‍बकीय पिटारे होते हैं। एक बार खोल कर बैठ जाओं तो बस जैसे मक्‍खी मकड़ी के जाल में उलझ जाती है वैस ही हम भी। सच है चिठ्ठियों का जमाना अब गया। लेकिन शायद यह ब्‍लागिंग उसी का दूसरा रूप है।

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  8. आजकल कुछ नौस्टेल्जिया फीवर सा चल पड़ा है...और बहुत contagious भी है एक को लगा नहीं कि दस लोग और ग्रसित हो जाते हैं, आपकी इस पोस्ट ने भी कितनो को क्या क्या ना याद दिला दिया होगा..
    कितनी कवितायें कितने गीत इस ख़त और चिट्ठी शब्द पर बने हैं...अब नयी पीढ़ी तो मरहूम ही रहेगी इन सबसे...पहले पोस्टमैन को देखकर कितनी ख़ुशी होती थी...अब तो बस यही ख़याल आता है,कोई ना कोई बिल लाया होगा...हाल ही में,एक फ्रेंड और उसके मंगेतर ने एंगेजमेंट से शादी के बीच ढेर सारे ख़त लिखे एक दूसरे को...इस सेल फोन के जमाने में, इस प्रयोग ने उन्हें कितना कुछ दिया होगा संजोने को.

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  9. रश्मि जी सच कह रही हैं सचमुच नोस्टालजिक कर दिया आपने -मेरे लिए भी तो वही मरहले हैं ,हैं वही जलन ..जो आग तुम गए लगा वो जली हुयी है बुझी नहीं ...वही कुकरैल ..वही प्रकाश कुल्फी ...वही मेफेयर ..वही लीला ..वही मलीहाबाद के बगीचे से सीधे आये आम ....

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  10. हाथों से कागज पर अपने अंदाज़ में कलम घसीटी का जो मजा है वो इस कंप्यूटर में कहां नसीब होती है

    बात बिल्कुल सही है। वो फाऊँटेन पेन से लिखते हुए नज़र आती स्याही और रोशनी में गुम होती उसकी चमक क्या आनंद देती थी!

    अब तो हस्ताक्षर करते के अलावा हाथ कहीं हिलता ही नहीं कागज़ पर

    अज़ीब यादें होती हैं इन पुराने से बक्सों में

    लेकिन यह दिल्ली में चक्कर वाला मामला कुछ दबा ही गए आप :-)
    हा हा

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  11. यादों की ऐसी सजीव गठरी खोलना हमेशा बहुत सुखद होता है.

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  12. सच मे ये यादे भी बडी अनमोल होती है।बडा सकून मिलता है इन सब से...

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  13. चिठियों का एक पुलिंदा तो हमने भी संभाल कर रखा है । बस कभी खोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ती ।

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  14. "कल से चिट्ठी भी लिखना दोबारा शुरू करना है..."
    ज़रूर करो, लेकिन उन्हें न लिखना जिन्हें आपका ई-मेल पता मालूम है.

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  15. भाई हमने तो अभी भी चिठ्ठियाँ लिखना और उन्हे सहेजकर रखना बन्द नही किया है । मैने अपने पिता के पत्रो की एक किताब भी प्रकाशित की है । अगला प्लान दोस्तो की चिठ्ठियाँ प्रकाशित करने का है ।

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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