ये तो स्वाभाविक है कि, ख़बर और कहानी की तलाश में हर पल भटकते हमारे मीडिया के लिए आगामी आम चुनाव कुछ इस तरह से हैं कि किसी भूखे को बिना मेहनत किए कुछ दिनों तक ढेर सारा खाना मिल जाए। और जहाँ तक हमारी मीडिया की समझदारी, उसका दायित्व, उनकी विचार धारा, या दिशा की बात करें तो पिछली काफी समय से ये सब एक विवाद का विषय बना हुआ है, वो भी ख़ुद मीडिया से जुड़े लोगों की बीच।
चुनाव के मद्देनजर , जो काम रूटीन में मीडिया करती है, मुझे लगता है वो ये हैं, किसी भी प्रत्याशी या राजनितिक दल से शुल्क लेकर विज्ञापन के रूप में किसी और रूप में उनका गुणगान करना, फ़िर चाहे वो गुणगान कैसाभी सच्चा झूठा हो। और इतना ही नहीं कईयों ने तो बाकायदा इसके लिए कई लुभावन स्कीम तक चला रखी हैं। यहाँ मैं एक बात बताता चलूँ कि यूँ तो मुझे लगता है कि मीडिया के सारे स्तंभों में से आज इलेक्ट्रोनिक मीडिया ज्यादा आधारहीन और खोखला है, किंतु जब मैं चुनाव कवरेज़ और इससे जुडी ख़बरों को देखता हूँ तो यही महसूस होता है कि कम से कम इस क्षेत्र में तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया , प्रिंट मीडिया से ज्यादा कुशल दिखाई देता है । ऐसा मैं इसलिए भी कह रहा हूँ कि जहाँ आज लगभग सभी दैनिक समाचार पत्र करीब करीब एक ही ढर्रे पर चलते हुए एक जैसी खबरें छाप रहे हैं वही इलेक्ट्रोनिक मीडिया कम से कम कुछ क्षेत्रों तक ही सही पहुँच कर लोगों को सामने आने का मौका , उन्हें खुल कर बोलने का मौका, और उनके प्रतिनिधियों को भी कटघरे में खड़े करने का काम कर रहा है।
लेकिन इन सबसे अलग जो एक बात मुझे बेहद आखर रही है कि आख़िर क्या वजह है कि न हम ना ही हमारा मीडिया इन पुरातन ढर्रों के छोड़ कर कुछ नया कर रहा है। मसलन किसी से भी ये नहीं पूछा जाता है कि आख़िर जीतने के बाद वो किस तरह से अपने सांसद निधि कोष का उपयोग उनके हित में कर सकेगा, कोई भी किस भी जनप्रतिनिधि से ये नहीं पूछता कि आख़िर वो कितने कम से कम और ज्यादा से ज्यादा दिन हैं कि वे अपने क्षेत्रों के लोगों के आसानी से उपलब्ध रहेंगे , कितने जन प्रतिनिधि ऐसे हैं जो मानते हैं कि वे हारने के बाद भी उसी तरह से सक्रिय रहेंगे और समाज सेवा में लगे रहेंगे। जब ऐसे आसान और बुनियादी प्रश्नों के लिए कोई भी तैयार नहीं है तो फ़िर वैश्विक मंदी, बेरोजगारी, कन्या भ्रूण ह्त्या, विज्ञान एवं तकनीक, सूचना क्रान्ति के बारे में बात करने का तो कोई मतलब ही नहीं है ।
मुझे तो लगता है कि अब समय आ गया है कि जब मीडिया अपने चौथे स्तम्भ होने की जिम्मेदारी समझे और उसे निभानी का प्रयास करे। अपने आर्थिक लाभों को यदि पूर्ण रूपेण दरकिनार न भी कर सकें तो कम से कम इतना तो करें ही कि अपनी रिपोर्टों और ख़बरों से जनता के सामने एक अच्छा और उनके लिए जो सबसे बेहतर विकल्प हो उन्हें ढूँढने में आम लोगों की मदद करें। और ऐसा हो पायेगा, फिलहाल तो नहीं लगता.
समाज ही छिन्न भिन्न हो गया ,तो बेचारे नेता सेवा किसकी करें ? मीडिया को चौथे ख्म्बे होने का एहसास कराते वक्त आप शायद भूल गये कि आप पर तो प्रजातंत्र के दो ढ़हते ख्म्बों को थामने का दारोमदार है । इस बारे में क्या ख्याल है आपका ?
जवाब देंहटाएंअपने आर्थिक लाभों को यदि पूर्ण रूपेण दरकिनार न भी कर सकें तो कम से कम इतना तो करें ही कि अपनी रिपोर्टों और ख़बरों से जनता के सामने एक अच्छा और उनके लिए जो सबसे बेहतर विकल्प हो उन्हें ढूँढने में आम लोगों की मदद करें।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक बात . dhanyawad.
इन चुनावों में विकल्प कहाँ है। सब एक जैसे हैं। मेरा तो मानना है कि इस समय का उपयोग इस बात के प्रचार लिए करना चाहिए कि जनता खुद संगठित होना शुरु करे।
जवाब देंहटाएंajay ji...
जवाब देंहटाएंmain media se hu aur aap ki bhavnao ko behtar samajh sakata hu...
aaj hamara media lalashahi se pidit h.... aaj vishay ka chunav sampadak nahi media owner karat h... mere story subjects ko reject kiya jata tha, uski wajah mere lala mlik ko usase apne riste kharab hone ka dar rahta tha...
aaj media b sirf jyada sr jyada kamai ka sadhan ban chuki h aur kuch nahi...
aap b apne lekhan ki dhanrashi badhwane ki bat kar lijiye... plz take it litterly...
nav varsh ki shubhkamanaye..
atul bhardwaj
aapkaa sabkaa bahut bahut aabhaar, padhne aur saraahne ke liye bhee, mujhe yakeen hai ki yadi ham sab sajhaa hokar sochein karein to yakeenan sthiti badal jaayegee.
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