बेटे को पढाते पढाते जब उसे किताब में तितली दिखाई तो वह जिद करने लगा कि पापा मुझे भी तितलियाँ दिखाओ। मैंने सोचा ये क्या मुश्किल काम है । बेटे को लेकर पार्क की तरफ चल पड़ा। रास्ते में मैं उसे बताने लगा कि कैसे स्कूल से वापस आते समय हम भी तितलियों और टिड्डियों से खेलते थे, कोयल की कूक से अपनी कूक मिलाते थे, तोतों के झुंड के पीछे दौड़ते थे और गिलहरियों को दौडा कर पेड़ पर छाती थे। बेटा रोमांच और ख़ुशी से भर गया फिर थोडे अचरज में बोला, पापा हमें क्यों नहीं मिलते ये सब।
मैं सोचने लगा, हाँ, सचमुच अब कहाँ मिलते हैं ये सब। धरती वही, अम्बर वही, पानी वही, धुप वही, तो फिर क्या बदल गया। नहीं शायद सब कुछ बदल गया है आज, धुप, हवा,पानी ,धरती, सब कुछ।
पार्क पहुँचा तो वही हुआ जिसका डर था। तितलियाँ नहीं मिली.
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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला