न न .........न तो मेरी टूर एंड ट्रेवेल्स टाईप की कोई नौकरी है...........और न ही मैं बस या ट्रक चलाता हूं ...आप्स सोच रहे होंगे कि तो आखिर फ़िर क्यों लिखा मैंने कि पहियों पर दौडती जिंदगी ......। जो कुछ चंद बातें मुझे बेहद पसंद हैं ......जैसे पढना , लिखना , मित्रता करना, रेडियो सुनना , खासकर समाचार ........और सबसे अलहदा .....खूब घूमना । अब ये तो नहीं पता कि घूमने का शौक पिताजी की हर तीन साल बाद ट्रांसफ़र वाली नौकरी के कारण दर्जनों शहर डोलते फ़िरते रहने के कारण हो गया ..या इसी कारण से हम खूब शहर दर शहर भटके । पिताजी की नौकरी ने , और उससे भी ज्यादा उनकी परिवार को साथ रखने की प्रतिबद्धता ने हमें बहुत से शहरों से मिलवाया । उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक । और पूर्व से लेकर पश्चिम भारत तक । बहुत सारे शहरों से , बल्कि कहूं कि उस क्षेत्र की सभ्यता से , संस्कृति से , वहां की भाषा से भीतर तक परिचय होता गया मेरा ।
इसके बाद शहरों को धांगने का अगला दौर शुरू हुआ , अपनी प्रतियोगिता परीक्षाओं के दौरान देश के अलग अलग भागों के छोटे बडे शहरों को करीब से देखने का मौका । उन्हें देखने का मौका भर ही कहना ठीक लगता है .......क्योंकि सिर्फ़ चंद घंटों से लेकर चंद दिनों तक में तो उन शहरों कस्बों से बस हाथ भर मिलाते से लगते थे । चाहे वो उडीसा का छोटा सा शहर बालेश्वर हो ...या फ़िर कि ..हैदराबाद-सिंकदराबाद के जुडवां भाईयों जैसे शहर .....चाहे वो उत्तर प्रदेश का छोटा सा कस्बा .........एटा-इटावा, हो या फ़िर नैनीताल और शिमला जैसे पर्वतीय नगर । हर सफ़र ने जिंदगी को एक नई कहानी दी । उस समय तो जैसे एक नियम सा बन गया था और मोटे मोटे तौर पर जोडता हूं तो यही पता चलता है कि औसतन प्रति वर्ष दस हज़ार किलोमीटर और कम से कम तीन शहरों से मुलाकात तो हो रही थी ।
मगर कहते हैं न कि नौकरी तो बेडी है जी बेडी । बस नौकरी में क्या बंधे .....बंध कर रह गए । इसके बाद तो बस बेडी के साथ हथकडी भी लग गए .........और फ़िर बाद में ताला भी जड ही दिया गया ...लो नहीं समझे ..मतलब कि शादीशुदा प्राणी के अनुरूप .पहले एक अदद घरवाली के साथ साथ बाद में दो नन्हें मुन्ने भी आ गए .....तो लग गया न पक्का ताला ।
मगर यहां एक सुखद संयोग रहा .........हमारी श्रीमती जी को भी घूमने फ़िरने का बेशक एडिक्शन न सही ....मगर थोडा बहुत शौक तो था ही । बस फ़ट्टे पर चढाने का काम करना होता है .........वो हम बखूबी कर ही लेते हैं । श्रीमती जी के साथ शादी की स्कीम में ,पंजाब भ्रमण की मुफ़्त स्कीम का पूरा लाभ उठाते हुए .....पंजाब और उसके आसपास के क्षेत्र को ही अपनी भ्रमणस्थली बनाते हुए , पिछले कुछ सालों से दे दनादन छापे जा रहे हैं पंजाब को । पिछले साथ दौरा आगे बढ कर ....डलहौज़ी तक पहुंच गया था ( बदकिस्मती से उस यात्रा वृत्तांत के वादे के बावजूद अब तक उसे नहीं लिख पाया हूं ) और इस तरह से अब फ़िर से घूम फ़िर कर गाडी उसी पटरी पर आ गई है ।
और हर साल अब फ़िर एक दो शहर मेरे अपने मन के नक्शे में छपते जा रहे हैं । वैसे जिस तरह शादी से पहले दोस्तों के साथ , कभी काम बेकाम , शहरों की ओर उड चलना .........मंजिल मकसद से दूर ......सिर्फ़ और सिर्फ़ वहां जाने के लिए .....एक अलग ही अनुभव रहा उसी तरह अब बाल बच्चों को लेकर .....रोज की चकचक से , रोज की मशीनशुदा जिंदगी से .....रोज की उसी बंधी हुई दिनचर्या से ....और सुबह उठ कर रोज ही इस शहर का मुंह देखने की मजबूरी से दूर ......कहीं चल उडने का जब भी विचार बनता है तो ......तन मन रोमांचित हो उठता है । जब कार इस राजधानी की सीमा को अलविदा कह रही होती है .......हम मन ही मन सोच रहे होते हैं ....जब वापस तुमसे हैंड शेक करेंगे तो फ़िर से यादों के एलबम में जाने कितनी ही फ़ोटुएं , जाने कितने अच्छे बुरे पल , जाने कितनी ही बातें , कितने दिन कितनी रातें .......अनमोल बन चुकी होती हैं ।
श्रीमती जो हमारी भ्रमणकारी ट्रिप इसलिए अच्छी लगती है क्योंकि .....उन दिनों में फ़ुल्लम फ़ुल बस उनके ही होकर रह जाते हैं । वैसे यहां बताते चलूं कि सबका मानना है कि मैं बडा केयरिंग हूं ..उनके लिए .....और शायद हूं ही । एक वक्त हआ करता था जब बेफ़िक्र और लापरवाह की तरफ़ सफ़र की तैयारी पर निकल जाते थे ....और फ़िर चाहे वो सफ़र ..हिंदी के सफ़र से शुरू होकर .....अंग्रेजी के सफ़र तक चलता जाए ....हम चल ही देते थे । मगर अब ऐसा नहीं है , अब तो बच्चों की जरूरी दवाई से लेकर , उस स्थान के संभावित मौसम के अनुसार कपडे लत्ते , कैमरा, या मोबाईल ,टॉर्च, एक डोरी ,कुछ मजबूत थैले , टेलिफ़ोन डायरी , और ऐसी ही जरूरी चीज़ें , कैश और उसका विकल्प भी ......सब कुछ बाकायदा तैयार करके ही निकलते हैं ।
सच पूछिए तो सफ़र से एक मुहब्बत सी हो गई है ...............और अब तो तमन्ना भी यही है कि जिंदगी का पहिया और सफ़र का पहिया यूं ही साथ साथ चलता रहे .......और ये जिंदगी यूं ही पहियों पर कटती रहे .....॥
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
पहियों पर दौडती जिंदगी .............अजय कुमार झा
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जिंदगी का पहिया और सफ़र का पहिया यूं ही साथ साथ चलता रहे
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें। लेकिन इस बार मत भूलियेगा संस्मरण लिखना :-)
बिलकुल सही लिखा आप ने... पहले आपकेले होंगे नीरज जाट की तरह से, अब बीबी ओर बच्चो की जिम्मेदारी भी देखनी पडती है, बहुत अच्छी लगी आप की बाते. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंगलती सुधार पहले आप **अकेले**
जवाब देंहटाएंवैसे ज़िंदगी का पहिया तो चलता ही रहता है पर आपकी ज़िंदगी पहियों पर दौड़ती है ...अच्छा लगा ...परिवर्तन से मन में नयी उर्जा आती है ...
जवाब देंहटाएंअरे भैया खतरनाक...मस्त लगा पढ़ के,
जवाब देंहटाएंअब ज्यादा नहीं बोलेंगे हम...:)
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसफरिया मुहब्बत आपको सुख दे।
जवाब देंहटाएंचलती का नाम गाड़ी,बस चलाते रहिए
जवाब देंहटाएंआभार
ब्लॉग4वार्ता की 150वीं पोस्ट पर आपका स्वागत है
Zindagee me awwal to qudrat bahut kuchh sikhatee hai aur uske baad safar!Aap har teen saal kee baat kar rahe hain,ham banjaron ka to kayi baar teen maah me boriya bistar bandhtaa tha!
जवाब देंहटाएंAapka aalekh padhna mazedar anubhav raha!
नयी नयी जगह देखने का रोमांच तो होता ही है | उसके संस्मरण साझा करने से वे दूसरे लोग जो वहाँ नहीं गए हैं,वे भी लाभान्वित होते हैं |
जवाब देंहटाएंचलते रहना ही जीवन है, बहुत शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सफ़र को एन्जाय कीजिए, डोन्ट सफ़र:)
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