इधर राजधानी दिल्ली में पंद्रह अगस्त की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं ...और क्या तैयारियां हैं ....लानत है ..जिनपर मैं थोडी देर में लानत मुलामत भेजता हूं । मगर जब भी तैयारियों की खासकर छ्ब्बीस जनवरी , और पंद्रह अगस्त की बात आती है तो मुझे अक्सर अपने स्कूल के दिनों की वो एनसीसी , स्काउट्स और गाइड्स की दुनिया याद आती है ।उफ़्फ़ क्या ज़ज़्बा हुआ करता था उन दिनों , वो नन्हें नन्हें शरीरों पे सजी हुई वो खाकी वर्दी , और गाइड्स बनी हुई नन्हीं नन्हीं बालिकाएं ......जैसे एक जुनून सा हुआ करता था ....कि मानो इन तीनों में से एक से जुडना तो है ही । मुझे अच्छी तरह याद है कि शायद वो सातवीं क्लास थी जब मैंने पहली बार एनसीसी कैडेट के रूप में अपने स्कूल की टोली में शामिल होने की सोची थी ......और जब स्टोर रूम में ड्रैस सलेक्ट करने की बारी आई तो ...हा हा हा ..फ़िटिंग देख कर लगा कि ....वर्दी में मुझे टांग दिया गया है ...हाफ़ निकर की लंबाई बस एडियों से कुछ ही ऊपर तक थी और कमीज जो फ़ुल थी उसकी बांहे बस इतनी ही लंबी थी कि यदि आधा काट भी देता तो भी मेरे पूरे हाथ से थोडी लंबी ही बैठती .....। मैं तो झुंझला ही उठा था ........मगर किसी तरह से एक वर्दी उठा कर घर ले कर आया और फ़िर दर्जी ने अपनी पूरी कारीगरी दिखाते हुए उसे जैसे तैसे मेरे साईज का बना ही दिया ।यहां एक बात और बताता चलूं कि हालांकि स्मार्टनेस में हमेशा ही स्काऊट्स की अनोखी ड्रैस , वो कमर पर लटकती रस्सी, चाकू और गले में लाल रुमाल नुमा सा स्टाइलिश स्कार्फ़ जिसमें बडे ही करीने से स्काउट्स का बैज लगा होता था । मगर चूंकि स्काउट्स की ड्रैस और वो तमाम अस्त्र शस्त्र खुद ही खरीदने होते थे इसलिए हम मिडिल क्लास फ़ैमिली बच्चे उस लिहाज से एनसीसी के लिए ही परफ़ैक्ट थे । और गाइड्स बनी हुई वो नीली वर्दी में सजी हुई स्कूल की लडकियां , खूब साथ निभाती थीं इस नन्हीं फ़ौज का ।एनसीसी से जुडने का निर्णय शायद वो पहला ऐसा निर्णय था मेरा जो मैंने घर पर मम्मी पापा को बिना बताए ही ले लिया था और फ़िर वर्दी भी उठा लाया था । मां पिताजी के थोडा सा झुंझलाने के बाद ( हालांकि उनकी झुंझलाहट इस वजह से ज्यादा थी कि मुझ नालायक को पढाई से बचने का एक और बहाना मिल रहा था ) मैं बन ही गया था एनसीसी कैडेट , और उसके बाद तो जैसे अगले पांच छ: वर्षों तक एनसीसी और अपना साथ अटूट सा रहा । हफ़्ते में एक दिन शायद शनिवार का दिन होता था वो , स्कूल के आखिरी पीरीयड के साथ ही ड्रिल , परेड का अभ्यास । मुझे अब भी याद है कि पहले दूसरे दिन और बांकी के कई दिनों तक तो कदम ताल मिलाने के लिए मुझे खासा अभ्यास करना पडा था । और फ़िर वो पैकेट में कभी समोसे तो कभी नमकीन का नाश्ता .....ओह उसका भी अपना ही एक स्वाद था । एनसीसी से जुडने के लिए मुझे सबसे ज्यादा डांट तब पडी जब पहली बार कैंपिंग में जाने के लिए मेरा नाम भी चयन सूची में आया । हालांकि उसके लिए भी मैंने कम तिकडम नहीं लडाई थी । मगर काफ़ी नानुकुर के बाद इज़ाजत मिल ही गई । और पंद्रह दिनों के लिए मैं पहली बार पटना के पास स्थित बिहटा एयरफ़ोर्स स्टेशन में अपने अन्य बहुत से साथियों के साथ पहुंचा ..अब यहां एयरफ़ोर्स की भर्ती परीक्षा आयोजित की जाती है । वो पंद्रह दिन भी यादगार रहे । इसके बाद तो एनसीसी ए सर्टिफ़िकेट से बी सर्टिफ़िकेट तक का सफ़र खूब रोमांच में बीता ।छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त से पहले की तैयारी के दिन ..वाह पढाई लिखाई सब गौण करके पूरी टुकडी जुट जाती थी ..एकदम ऐसी तैयारी मानो जंग के सिपाही तैयार हो रहे हों । और फ़िर चीफ़ गेस्ट को गार्ड और औनर के साथ स्कूल के भीतर तक लाने की वो अनोखी जिम्मेदारी ...कमाल था सब कुछ ।अब सोचता हूं तो फ़िल्मी लगता है । शायद एक फ़ोटो अब भी मम्मी के पुराने संदूक में पडी हो मेरी । रास्ते में चलते हुए एनसीसी की वर्दी कुछ अलग ही गर्व का अनुभव कराती थी । अब तो जाने कितने ही साल हो गए किसी भी नन्हें सिपाही को देखे हुए । यहां राजधानी में तरह तरह के कंपीटीशन की तैयारी में बच्चों को बहुत कुछ बना हुआ देखता हूं ....मगर आंखें उन्हीं एनसीसी, स्काउट्स और गाइडस को तलाशती है ।दिल्ली में पंद्रह अगस्त की जो तैयारी होती है उससे तो चिढ सी हो जाती है । रेहडी पटरियों को बंद कराने का काम पूरे जोरों शोरों पर , जगह जगह पतंग की दुकानें सज रही हैं । पुलिस की नाक में दम , जहां देखिए बस पुलिस ही पुलिस .....और वो भी तब जब उस ऐन दिन .....पूरी दिल्ली इस तरह से बंद मानो मातम मनाया जा रहा हो । एक ऐसा अघोषित कर्फ़्यू कि क्या कहा जाए कि जश्न का दिन है या मातम का । और ये सब इसलिए क्योंकि आतंकी हमले का डर बना रहता है । अजी लानत है ...बताईये एक तरफ़ तो महाशक्ति बनने के सपने ..दूसरी तरफ़ आजादी के दिन को भी ढंग से न मना पाने का मलाल ...........। चलिए छोडिए .....क्या आपको दिखते हैं नन्हें सिपाही .....???? बताईयेगा तो जरा .....
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
कहां हैं वो एनसीसी कैडेट्स, स्काउट्स ,गाईड्स ....और पंद्रह अगस्त की तैयारियां ...अजय कुमार झा
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
स्कूल याद दिला दिया आपने पूरे छ: साल गाइडस बन कर रहे है ..आज भी कभी कभी बाया हाँथ मिला लेते है , टेंट बनाना ,गांठे ,प्राथमिक चिकित्सा ,मीनार बनाना .,..
जवाब देंहटाएंआराम से पूरी पोस्ट लिखूंगी
जयहिंद
दिखते तो है पर ज़बरदस्ती के बनाये हुए ........ इन के दिलो का तो पता नहीं........ हाँ रंग ढंग से भी जोश नहीं दिखता ...........साफ़ पता चलता है मास्टर साहब का रौब इन सब के जोश पर काफी भारी पड़ जाता है !
जवाब देंहटाएंलेकिन जो भी हो साहब कम से कम १५ अगस्त या २६ जनवरी तो मन ही जाती है !
एक तरफ़ तो महाशक्ति बनने के सपने ..दूसरी तरफ़ आजादी के दिन को भी ढंग से न मना पाने का मलाल सच में झुंझलाहट उत्पन्न करता है
जवाब देंहटाएंरोचक आभिव्यक्ति
बी एस पाबला
सर्वप्रथम सुदर प्रस्तुति के लिए धन्यबाद
जवाब देंहटाएंआपने हमें बचपन के दिनों की याद दिला दी जब हम १५ अगस्त के सुबह गली मोहल्ले के बच्चे मिलकर रंग बरंगी ड्रेस के साथ हाथों में तिरंगा और जोर-जोर से नारा लगते हुए प्रभात फेरी करते थे | न तो वो वक्त रहा न ही बच्चों में वो जज्वा | परन्तु तो क्या हुआ ? आप है और आपके ब्लॉग , आज प्रभात फेरी आपके ब्लॉग पर मैं अग्रिम में ही अभ्यास कर लेते है - १५ अगस्त, स्वत्नत्रता दिवस | भारत माता की जय | जय हिंद, जय भारत |
विद्यालयीय समय में स्काउट के रूप में बिताया अपना समय याद आ गया. वो स्वतंत्रता दिवस एवं गणतंत्र दिवस की जिलास्तरीय परेड में भाग लेने के लिये एक महीने पहले से ही जोरदार तैयारियां ताकि हम अपने विद्यालय के एन.सी.सी के कैडेटों से जीत जायें, कैम्प फायर, हाइकिंग, तृतीय सोपान, राज्य पुरस्कार, केरल के पालघाट जिले की जम्बूरी जहां पूरे भारत के साथ देश-विदेश के स्काउट-गाइड-रोवर्स-रेंजर्स का जमावड़ा था, राष्ट्रपति पुरस्कार हेतु हुई गतिविधियों में पहली बार असफल होने के बाद दूसरी बार में राष्ट्रपति पदक प्राप्त करना.... सब याद आ रहा है....स्काउटिंग के अपने दिन बहुत ही स्वर्णिम थे.
जवाब देंहटाएंपता नहीं या तो हम बहुत ज्यादा भावहीन, संवेदनहीन, निरूत्साही हो गये हैं या सरकारी पक्ष, जिसके लिये पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी मात्र औपचारिकता भर रह गया है, या फिर हम दोनों....
स्वतंत्रता दिवस की अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएँ...
॥ वन्दे मातरम् ॥
बिलकुल सही बात ...डर के कारण कहाँ रौनक है आज़ादी के त्योहार में ...सार्थक चिन्ता व्यक्त की है ..
जवाब देंहटाएंआप बहुत अच्छा लिखते हैं, क्यों ना ब्लॉग जगत में एक-दुसरे के धर्म को बुरा कहने के ऊपर कुछ लिखें. किसी को बुरा कहने का किसी को भी हक नहीं है. लोगो का दिल दुखाना सबसे पड़ा पाप है.
जवाब देंहटाएंमुझे क्षमा करना, मैं अपनी और अपनी तमाम मुस्लिम बिरादरी की ओर से आप से क्षमा और माफ़ी माँगता हूँ जिसने मानव जगत के सब से बड़े शैतान (राक्षस) के बहकावे में आकर आपकी सबसे बड़ी दौलत आप तक नहीं पहुँचाई उस शैतान ने पाप की जगह पापी की घृणा दिल में बैठाकर इस पूरे संसार को युद्ध का मैदान बना दिया। इस ग़लती का विचार करके ही मैंने आज क़लम उठाया है...
आपकी अमानत
एक बार दस बीस आतांकियो को सरे आम भुन दो गोलियो से फ़िर देखो कोन माई का लाल नजर ऊठा कर देखता है हिन्द की तरह, जब हमारे भडवे नेता हो तो हर कोई ललु पंजु भी आंखे दिखाता फ़िरता है, ओर हम गाये जा रहे है कि शांति शांति... ओर जब हम मजबुत होंगे तभी हम अपने दिन मजे से काट सके गे.....बहुत सूंदर लिखा अजय भाई
जवाब देंहटाएंअरे..हमे भी अपने बचपन के वो दिन याद आ गये .. एन सी सी की परेड के ..
जवाब देंहटाएंजी पुरा स्कुल ही आँखों के सामने आ गया आपकी पोस्ट पढ़ कर | पर काफी सालो से देख रही हु की अब बच्चो में खुद भी १५ अगस्त २६ जनवरी को ले कर कोई उत्साह नहीं रहता है उनके लिए तो बस छुट्टी का दिन से ज्यादा कुछ नहीं रहता | अच्छी पोस्ट |
जवाब देंहटाएंबहुत ही पुरानी यादें कुरेद दी आपने. पर उस समय जो जोश और जज्बा होता था वो आज इन आटम्खियों के चलते नही दिखता.
जवाब देंहटाएंरामराम
मेरा स्कूल प्राइवेट था, इसलिए कभी भी एन सी सी में भाग लेने का मौका नहीं मिला. लेकिन बहुत मन करता था परेड में भाग लेने का. वैसे १५ अगस्त को जलेबी खाने को जरुर मिलता था, और घर के बगल वाला हलवाई स्कूल के बच्चा सब को फ्री में देता था....:)
जवाब देंहटाएंपहले तो तकरीबन हर छोटे बच्चे के पास एक ड्रैस सैनिक वाली होती थी। आज शायद ही कोई खरीदता हो?
जवाब देंहटाएं"माँ मुझको बन्दूक दिला दो
मैं भी सीमा पर जाऊंगा"
यह कविता भी स्कूली किताबों से बाहर हो चुकी है।
बहुत बढिया संस्मरण, आभार
प्रणाम