शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

तोपखाना , तेलीबाग ,ओपन थियेटर,बाबा की मजार ..हॉकी, कंचे ,पतंग ,सायकल.....और एक शहर ...नाम था.....लखनऊ ...






जैसा कि अपनी पिछली पोस्ट में मैंने कह भी दिया था , कि अपने शुरूआती दिनों के कुछ सबसे बेहतरीन पलों को मैंने ,लखनऊ की गलियों में ही बीतते हुए महसूस किया था .............और कहूं कि अब तक महसूस करता रहा हूं ।लखनऊ के सेंट्रल स्कूल में दूसरी कक्षा का वो पहला दिन ...........आदत के अनुसार रोते हुए ही स्कूल पहुंचा था ...और मैं उन बच्चों में से ही एक था ...जो बहुत समय तक तुतलाते हैं ......... बस पहला दिन ही याद रह गया था बहुत दिनों तक .... रिसेस पीरीयड में तो ..अपना गर्दभ रुदन हमारी ,मैडम के इतना नाकाबिले बर्दाश्त हुआ कि उन्होंने हमे चुप कराने की खातिर ....अपना लंच बॉक्स उस दिन हमारे नाम कुर्बान कर दिया.........दीदी की सहेलियों ने बहुत समय तक हमारी तुतलाती बोली को ..अपने सब टीवी समझ कर उपयोग किया ...............


लखनऊ
के दोस्तों में अनिल विनोद की जुडवां भाईयों की जोडी हम दोनों , भाईयों की जोडी के साथ मिल कर बिल्कुल जहां चार यार मिल जाएं वाली गैंग सी बन गई थी .......और उस जमाने के खेल भी उफ़्फ़ ....क्या खेल थे वे भी .............स्कूल में , कागज के तरह तरह के खिलौने , कैमरा , नाव , डौगी .....और जाने क्या क्या .....सोचता हूं उस कागज के कैमरे को बना कर जो खुशी हमें मिलती थी वो आजकल के बच्चों को फ़ेसबुक पर कोई मैसेज भेज कर कहां पाता होगा ?

वो
कंचों की रंगबिरंगी और चंचल चटकीली दुनिया ......वो मिट्टी की गुच्चियों में कंचों को पिलाना ......और फ़िर वो सर्फ़ के बडे वाले मजबूत गत्ते के गोल डब्बे में ...सैकडों कंचे संभाल कर रखना ......जब एक साथ देखो तो लगता था मानो हर कंचे में एक आकाशगंगा समाई होती थी .................फ़िर वो सर्फ़ का डिब्बा सिर्फ़ कंचों के खजाने को ही तो नहीं समेटे रहता था ........उसमें बाद में हमने माचिस की डिब्बियों के कवर भी हजारों की संख्या में भर के रख लिए थे ........ओह और उसका वो ताश टाईप खेल ............ जाने कैसे कैसे खेल बनाए थे हमने ........सायकल के पुराने टायर को डंडे से मार मार के ....पूरी शाम दौडाते रहना ....................वो सडकों पर देखे दिखाए ........सांप नेवले की लडाई ............बंदर बबंदरिया के खेल ......और जादू भी। वो आकाश में उडती चील की परछाई के साथ साथ भागना ............वो कोयल के साथ कू कू कू .......बोलते जाने की आदत ..........और वो मैनों की संख्या को देख देख कर बोलना..........वन फ़ॉर नथिंग , टू फ़ॉर गेस्ट .......थ्री फ़ॉर ..पता नहीं और फ़ोर फ़ॉर ..गेस्ट .....और आगे भी ..


लखनऊ में जिस एक बात ने हमेशा ही बांधे रखा ............वो था ..जितनी धूम से होली मनती थी , उतनी ही रंगीन ईद हुआ करती थी , ..वो पीर बाबा की मजार और वहां के प्रसाद में मिलने वाले बताशे,...और उसी पीर बाबा की मजार के पास वो पापा का फ़ौजी थियेटर .........मुझे याद है कि फ़ौज में रहते हुए पापा की जहां जहां पोस्टिंग हुई वहां की और कुछ जिन बातों में समानता थी उनमें से एक थी ओपन थियेटर ..यानि फ़ौजी सिनेमा ............क्या बात थी उस पिक्चर हॉल की ...कई जगहों पर हफ़्ते में सिर्फ़ एक दिन सिनेमा दिखाया जाता था तो कई जगहों में हफ़्ता भर एक ही पिक्चर देखी जाती थी .............हा हा हा ........पिक्चर के बीच में , वो झमाझम बारिश, का आना ....और सब के सब भीगते हुए पिक्चर देखते थे ......

ओह
उस प्यारे से घर को कैसे भूल सकता हूं , कॉलोनी के शुरूआत में ही , पहला घर , खुल्ला खुल्ला दो बडे बडे कमरे , आगे मैदान के बराबर खुली जगह और पीछे बहुत ही बडा अहाता .........वहां पहली बार ही तो ..धनिया के , मूली के , गाजर के , भिंडी के , नींबू के , मिर्च के और जाने किन किन पौधों से पहला परिचय हुआ था ........पिताजी ने लगाए थे ..और उनकी देखभाल भी ऐसी होती थी जैसे , वे भी घर के ही बच्चे हों .........क्या खूब जंचती थी वो क्यारियां सोचता हूं कि आज पिताजी की वो आदत , और वो अहातों और आंगनों वाला मकान हमें भी मिली होती तो ...टमाटर , आलू , गोभी के बढते दामों से हम खुद को तरकारी प्रूफ़ कर चुके होते ............

वहीं
तो सायकल चलाना ....सीखना शुरू किया था ........हा हा हा वो कैंची स्टाईल की सायकल चलाने की अदा .............वाह और क्या रोकते थे उसे ...........बिल्कुल दोनों पैर का घसीटा मार के ...और बहुत बार तो बहुत से लोगों के दोनों टांगों के बीच जाकर भी रुकती थी ..धडाम से ........... अजी तब ये टोबू की सायकलें कहां .......तब तो इंतज़ार होता था कि , कब पापा की आंख लगे ....और कब मौका मिले ...सायकल पर हाथ आजमाने का ........ हेलमेट की टेंशन ......ना लायसेंस की ....कहीं ठोके ठुकाए तो भी घुटना और कोहनी का ही नुकसान का खतरा था बस .........और उसी कैंची स्टाईल से सायकल चलाने में भी रेस तो लगती ही थी .....

बरसात
का मौसम ..........वो सफ़ेद मोटी पन्नी की बरसाती ........आज तक दुकान में वैसी शक्ल तक का रेन कोट देखने को भी नहीं मिला .......जाने बापू जी ने ..कहां से उस मोटी पन्नी का जुगाड कर के ...दर्जी को पटा कर वो अनोखी सी बरसाती तैयार करवाई थी ..........और उसकी वो टोपी ......तो बस अपने लिए भी वो स्कूल बैग को बचाने के ही काम आती थी , बांकी का सारा कोर कसर तो हम पूरी तरह भीग कर पूरा कर लेते थे ..........ओह वो बरसात ...और उससे उफ़नते नाले .....नदियां ....।इस कमब्खत दिल्ली की गलियों में जब नाली के बजबजाते हुए पानी को बारिश के अठखेलियां करते हुए पानी से मिलते देखता हूं , समझ ही नहीं आता कि नाली के पानी को खुशी ज्यादा होती होगी ,या बारिश के पानी को अपनी बदकिस्मती का गम ज्यादा होगा .......


ओह
..........लखनऊ ..........तुझसे जुडी यादें ...और जिंदगी का एक हसीन टुकडा...........जाने कब फ़िर किस मोड पर तेरे आगोश में ....अपना वो खोया ...सब कुछ तलाशूंगा ..........मुझे यकीन है कि ......बेशक ..तूने अपना चेहरा मोहरा बदल लिया होगा ..........मगर तेरी गोद अब भी मुझे जरूर पहचान लेगी ...........पहचान लेगी .............

15 टिप्‍पणियां:

  1. वाह....बचपन की बात चाहे कहीं की हो....सबको अपना बचपन याद आने लगता है. दो तीन चीज़ों के अलावा सब कामन है. :)

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  2. बहुत अच्छी यादें हैं बचपन की ।
    इतेफाकन कभी लखनऊ जाना नहीं हुआ अभी तक ।

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  3. आपका दास्ताने लखनऊ पढ़कर याद हो आयी वह मशहूर पंक्ति -लखनऊ हम पे फ़िदा है हम फिदाए लखनऊ !

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  4. बहुत अच्छा लगा आप के बचपन की यादो के पिटारे को देख्ना धन्यवाद

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  5. लखनऊ में जिस एक बात ने हमेशा ही बांधे रखा ............वो था ..जितनी धूम से होली मनती थी , उतनी ही रंगीन ईद हुआ करती थी

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  6. अजय भाई, हम भी तेलीबाग के रहने वाले हैं, अच्छा लगा उसका नाम देखकर।
    आपकी यादें सचमुच रोमांचित करती हैं।
    ………….
    ये साहस के पुतले ब्लॉगर, इनको मेरा प्रणाम
    शारीरिक क्षमता बढ़ाने के 14 आसान उपाय।

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  7. बहुत खूब याद किया लखनऊ को..जरुर पहचानेगा लखनऊ आपको..जाईये तो..बस, आप शायद न पहचान पायें..इतना कुछ बदल गया है वहाँ. मेरे बचपन का लखनऊ, नरही, केसर बाग भी सब गुम हो चुका है उन भीड़ भरी सड़कों में.

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  8. गनीमत है नाम अभी तक लखनऊ ही है :)
    वैसे बहुत नहीं बदला होगा, आपकी नजरें ही तुलना कर सकती हैं इस चित्र के हिसाब से तो.

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  9. kuch time luknow me raha tha, aapke lekh se wahan ki yaad taaza ho aayi

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  10. कोई मुझको लौटा दे बचपन का सावन वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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