रविवार, 11 जुलाई 2010

मेरी यादों का एक शहर , लखनऊ .........अजय कुमार झा





पिताजी की घुमक्कडी नौकरी ने हमें जाने कितने ही शहरों से रूबरू कराती गई ........न सिर्फ़ रूबरू बल्कि कहूं कि ..उन शहरों में हमारी यादों की निशानियां छपती रहीं ....और सोचता हूं कि इन शहरों से ..उनमें बिताए लमहों से ...उन सुख दुख के दिनों से ....उन दिनों की पांच पैसे , दस बीस पैसे , चवन्नी अठन्नी वाली जेबखर्ची के दिनों से ....वो कंचे , पतंग , और क्या था वो ....हा हा हा टायर को डंडे से चलाते हुए गोल घुमाते हुए ..घंटो दौडाना ......मानो देखने वाले को यही पता नहीं चलता था कि ..टायर हमें दौडाए हुए है या कि हम ही उसे ठोंक रहे हैं ...........और भी जाने किन यादों से ..नाता ..वाया वो शहर ही हमसे जुडी हुई है । जबलपुर ,सिलिगुडी,फ़िरोज़पुर, लखनऊ, दानापुर,पटियाला,.................ओह फ़ेहरिस्त लंबी है ...कभी कभी तो लगता है कि जीवन से भी लंबी ये फ़ेहरिस्त ही है ........और हो भी क्यों न आखिर एक फ़ौजी के परिवार की यही तो परंपरा रही है ..........।

आज दिल जाने क्यों लखनऊ की गलियों की ओर झांकने बैठ गया .............लखनऊ ...ओह वो शहर जहां शायद पिताजी फ़ौजी पोस्टिंग का कुछ सबसे ज्यादा समय बीता था .....कहने को तो मैंने इस शहर में अपनी दूसरी कक्षा से कक्षा सात तक की पढाई पूरी की थी .....हां इतनी ही तो उम्र थी तब ....मगर आज तक जिंदगी ....उस उम्र में बिताए एक छोटे से पल को भी दोबारा जीने को तरसती है ........और बस तरसती ही रहती है ।लखनऊ से हमारा परिचय बिल्कुल वैसे ही हुआ था जैसे पापा के साथ जाने वाले अन्य सभी शहरों से होता था ।पूरी युनिट का एक साथ मूवमेंट और्डर ..........सबके परिवार ..लगभग एक ही ट्रेन ..जो शायद उन दिनों विशेष तौर पर चलाई जाती थी में सवार होकर ....एक स्टेशन से दूसरे तक पहुंचते थे .......वहां स्टेशन मौजूदा फ़ौजी ट्रक ......वही वन टन , टू टन और थ्री टन से लद कर फ़ौजी कैंट क्षेत्र में स्थित फ़ौजी क्वार्टर्स तक छोडते थे ..।समय का कोई खास उल्लेख जरूरी नहीं ...क्योंकि फ़ौजी जीवन में मैंने अपने पिताजी के लिए दिन रात का कोई भी खास फ़र्क नहीं देखा ....और ऐसा ही हर फ़ौजी के साथ होता है .....।


तो लखनऊ की गलियों में याद आते हैं पहले ..अपने वो दोनों फ़ौजी क्वार्टर्स ..पहला वाला सेंट्रल स्कूल के ठीक बगल में ..जगह का नाम भी अब तो याद नहीं ....और दूसरा वो वहां जहां कभी तेलीबाग ...हां शायद ..इसी नाम की कोई जगह या मंडी हुआ करती थी ...। मुझे या शायद हमें ..पूरे परिवार को वो दूसरे वाला ही ज्यादा पसंद था । कैंटोनमेंट एरिया में , तोपखाने के पास.....एक बडा सा मकान .....खूब खुले खुले कमरे ....आगे पीछे खुले मैदान जितनी जगह , और ऐसा ही पूरा बसा हुआ । और क्या शानदार बस्ती बसी हुई थी वो ..हरेक फ़ौजी कॉलोनी की तरह ......एक बिहारी परिवार , तो अगला बंगाली , एक सरदार जी , तो अगले मराठा परिवार , कोई तमिल है , तो अगला ठेठ मगही परिवार , ..........ओह क्या कहूं ....क्या नज़ारा हुआ करता था ..........कौन सा त्यौहार, कौन सा पर्व ऐसा छूटता था जो उन कॉलोनियों में न मनाया जाता हो,
...............सकूल भी वहां से इतना ही दूर था कि हम मजे से से धूल उडाते हुए ...और बारिश के दिनों में बस्ते को पन्नियों से ढंकने के बाद मजे में फ़चफ़चाते हुए आने जाने का भरपूर आनंद लिया करते थे .सोचता हूं कि उस मुकाबले जो आजे के बच्चे उन डिब्बोंनुमा मारूति वैन में ठुंस कर जाते हैं तो उन्हें तभी लग जाता होगा कि ...कलियुग आ ही गया है ..वहां उस समय दो सेंट्रल स्कूल हुआ करता था .....एक प्राइमरी स्कूल और उससे थोडा सा दूर जाकर ..छठी कक्षा से आगे .............

लखनऊ का जो भी जैसा कुछ मुझे अब तक याद है , वो सब बिल्कुल ऐसा है जैसा कि किसी की तिजोरी में सबसे सुरक्षित जगह छुपा कर रखा हआ सबसे अनमोल वस्तु ....कहां से शुरू करूं ......बॉटैनिकल गार्डन , कुकडैल वन , बडा ईमामबाडा , छोटा इमामबाडा , भूल भुल्लैया, वो बडा सा रामलीला ग्राऊंड , वो सदर बजारा , वो हज़रतगंज , वो क्या था नाम ही भूल रहा हूं उस लेडिज़ मार्केट का ......वो प्रकाश कुल्फ़ी की नई नई धूम ,या वो लिबर्टी पिक्चर हॉल में .देखने गए थे धर्मेंद्र जितेंद्र की सम्राट और देख कर राजेश खन्ना और हेमामालिनी की मेहबूबा .....फ़िर बाद में उसी में या शायद तुलसी में ..स्कूल की तरफ़ से देखने गए पिक्चर गांधी ...वो चारबाग का लाल लाल स्टेशन और उसके बाहर खडे सैकडों तांगे ..।कभी पतंग का उत्सव तो कभी कोई और ही मेला .....। मुझे ये भी याद है कि उन दिनों पच्चीस पैसे का एक गर्म गर्म समोसा मिलता था ..जिसमें भुने हुए मूंगफ़ली के दाने भी हुआ करते थे ..और साथ में इमली की वो खट्टी मिट्ठी चटनी ..आज की तरह नहीं कि बस ..साला एक ही गंध स्वाद सॉस .....। वो ग्यारह दिनों तक लगातार एक ही घेरे में सायकल चलाने वाले करतब ( मुझे ये नहीं पता कि वो करतब शोर पिक्चर देखने के बाद शुरू हुई थीं या कि उन करतबों से प्रेरित मनोज कुमार ने उसमें ये दृश्य देखा था )............वो सांप नेवले की लडाई...........वो बंदर का रूठना ..बंदरिया का मनाना ..डमरू बजाता मदारी............पैसा फ़ेंको तमाशा देखो वाला बायस्कोप ..एक आंख से डब्बे में पूरी दुनिया की सैर ......चाचा के साथ उनकी उंगली पकडे कभी हाफ़ तो कभी फ़ुल स्वेटर पहने हुए रामलीला देखने जाना ..........सब कुछ जिया मैं वहां , जाने कितने पल ..कितनी हसीन यादें........................

आज तक सोच ही रहा हूं कि एक बार फ़िर से जाकर देखूं कि , वहां क्या कितना बदल गया है , क्या मिलता है कोई निशान अब भी मुझे ,या कि समय के गर्त में सब छुप गया है .................जाने जिंदगी कब इतनी मोहलत देती है कि ....................मैं एक बार फ़िर खुद से ही गले मिल सकूं...........


ज़ारी........................................................

21 टिप्‍पणियां:

  1. अजय जी शुक्रिया मेरे शहर को अपनी यादों में बसाने और उसे पेश करने के लिए.....यादों के संदूकों पर धूल कितनी भी जम जाए....यादें हमेशा उतनी ही ताज़ा रहती हैं....
    लखनऊ लगभग वैसा ही है आज भी.....

    लखनऊ सिर्फ गुम्बद ओ मीनार नहीं,
    ये महज़ कूचा ओ बाज़ार नहीं....
    इसके दामन में मोहब्बत के फूल खिलते हैं,
    इसकी गलियों में फ़रिश्तों के पते मिलते हैं...

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  2. अजी लखनऊ की बात ही निराली है
    मुझे याद है स्टेशन पर बाहर प्रतीक्षालय में लिखा हुआ था 'मुस्काराईये की आप लखनऊ में हैं' और हम मुस्कराते थे. इस बार 19 जून को जब लखनऊ गया तो यह बोर्ड नदारद था.

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  3. पुराना लखनऊ तो शायद वैसा ही हो जैसा आपकी यादों में बसा हो लेकिन नया लखनऊ जो गोमतीनगर में बसा है वहाँ अब मॉल संस्कृति ने कब्जा जमा रखा है। अब जेबखर्च के लिए चवन्नी-अठन्नी नहीं हजार-पाँच सौ के नोट लगते हैं।

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  4. आपके लखनऊ शहर से रूबरू कराने के लिए धन्यवाद जी।

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  5. अरे वाह जी आप ने तो हमे भावुक कर दिया, इन पुरानी यादो से, बहुत सुंदर लगी आप की यह ़सब बाते, आप का लखनऊ. धन्यवाद

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  6. ऐसे ही कलकत्ता से बहुत सी यादें जुडी हुयी है मेरी ! क्या करें वह दिन लौट के तो आ नहीं सकते !!
    बहुत उम्दा और भावुक पोस्ट !

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  7. हो आईये फ़िर से.. काफ़ी कुछ बदल गया है..

    कैफ़ी आज़मी साहेब ने कुछ बडा खूब कहा था -

    अज़ाओ मे बहते थे आन्सू, यहा लहू तो नही
    ये कोई और जगह होगी, लखनऊ तो नही...

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  8. बचपन की यादें हमेशा याद आती हैं .. चाहे वो किसी भी जगह से जुड़ी हों.. आगे के संस्मरण का इन्तेज़ार है..

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  9. मेरी भी लखनऊ की यादें जिन्दा कर दी आपने..बढ़िया रहा संस्मरण.

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  10. अरे आज तो आप हमारे लखनऊ की बातें कर रहे हैं........ये शहर कुछ खास है.......कुछ चीजें अब भी वैसी ही हैं, पर आधुनिकता की दौड़ वहां भी शुरू हो गयी है........वैसे हम भी दो साल के बाद, परसों जा रहे हैं वहां।

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  11. लखनऊ में बहुत खूबसूरत वक़्त बिताया है हमने ..
    पिछले चार सालों में लखनऊ बहुत बदला है .. अदब कुछ कम हुआ है ..गंजिंग की बजाय लोग सहारागंज (माल ) जाने लगे है ..
    अभी मई में गए थे हम ..हार कर कहना पड़ा हमको अमीनाबाद जाना है ,चौक में लस्सी पीनी है ..प्लीज़ माल मत ले चलो .

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  12. इतने नगर देखने के पश्चात तो आपका अनुभव घट तो बहुत भरा होगा। बाटते चलें।

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  13. अरे वाह, आप भी लखनउवा हैं, जानकर खुशी हुई।

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  14. खूब घुमाया लखनऊ की गलियों में आपने...

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  15. लखनऊ देखा तो नही मगर मेरे लेखन का सफर इसी शहर की वजह से शुरू हुया। जिन से मुझे कहानी लेखन की प्रेरणा मिली वो यहाँ के महान लेखक महोपाध्याय श्री नलिन चक्रधर जी बाल लेखक हैं। बहुत अच्छा लगा लखनऊ के बारे मे जानकर। आभार।

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  16. 'मुस्काराईये की आप लखनऊ में हैं'
    लखनऊ की बात ही निराली है।
    बढ़िया रहा संस्मरण।
    आभार।

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  17. मुस्काराईये की आप लखनऊ में हैं'
    लखनऊ दो तीन बार ही गया हूं । आपने यादें ताजा कर दी । फिर बचपन तो कभी न भूलने वाली 70 एम एम की फिल्म होती है । हर सीन बड़े आकार में । आभार ।

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  18. क्या बात है ,,, हम लोग 1986 में प्रगतिशील लेखक संघ के स्वर्णजयंती महोत्सव मे गये थे , बहुत सारे कुँवारे , मैं मनोज रूपड़ा , कैलाश वनवासी . .. यार वो चारबाग़ के बाहर " कालीमिर्च का मुर्गा " अभी मिलता है क्या ?

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  19. बहुत उम्दा और भावुक कर देने वाली पोस्ट!

    यादों के ये झरोखे होते ही ऐसे हैं

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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