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शनिवार, 11 सितंबर 2010

गणेश चतुर्थी .....पुरुकिया , टिकिया , ...और मां की यादें ....






मेल में अचानक ..गणेश चतुर्थी का एक बधाई संदेश पाकर चौंका ..क्योंकि ..हर तरफ़ ईद की ही चर्चा था । वैसे भी सरकारी महकमे में अक्सर उन त्यौहारों पर ज्यादा कनसेन्ट्रेट करने की परंपरा रही है जिसका परोक्ष या प्रत्यक्ष संबंध ..सरकारी छुट्टियों से होता है । और ऐसे में यदि ईद मुबारक ही थी तो फ़िर इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए था । और मुझे आश्चर्य हुआ था गणेश चतुर्थी के आ जाने ने । वो भी इस तरह चुपके से आ जाने के कारण । गणेश जी अपने साइज़ के हिसाब से भी चुपचाप तो आ नहीं सकते थे , इसलिए उन्होंने न तो अपना रूट बदला होगा न रूटीन , ज़रूर मैं ही इन दिनों बेख्याली में रहा होउंगा । समाचार कभी उचटते निगाह से देखा भी तो उसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ दिल्ली के बाढ के आने ...या न आने की ही चर्चा थी । सभी यमुना के पानी पर अपने चैनल का रंग दिखा दिखा कर उसे अपने तरीके से बहा दिखा रहे थे । और फ़िर मुझे पता भी कैसे चलता , इन और इन जैसे तमाम त्यौहारों को मनाने , मनवाने , उसकी तैयारी ,का सारा जिम्मा तो मां ने ही उठा रखा था ...........और मां के जाने के साथ ही .............।

गणेश चतुर्थी .......बोले तो , हमारे यहां इसे कहा जाता है ..चौठचंद्र ....यानि का चौथ का चांद । पहले तो नहीं पता था , मगर अब सोचता हूं कि अबे जब एक उसी चांद को देख कर ..ईद मनाई जाती है ..और उसी चांद को देखकर हम भी गणेश जी को पूज लेते हैं ...तो फ़िर बचा क्या ये बताने समझाने को ....अबे जिस तरह से हर मज़हब , हर भाषा ,और हर क्षेत्र का होने के बावजूद इंसान एक ही होता और रहता है ...उसी तरह ..भगवान यानि ईश्वर भी सिर्फ़ एक और एक ही है । खैर , छोडिए इसे ..तो मैं बता रहा था कि आज के दिन को हमारे यहां चौठचंद्र के नाम से मनाया जाता था , अब भी मनाया जाता है । बडा ही खूबसूरत सा त्यौहार ,उतनी ही सुंदर पूजा , और सबसे विशेष बात इस त्यौहार पर प्रसाद में बनने वाले विशिष्ट पकवान _ पुरुकिया और टिकिया । पुरुकिया ...जिसे आमतौर पर गुजिया के नाम से जाना जाता है ...और यहां दिल्ली में तो ये होली के अवसर पर मिलते बनते देखा है मैंने ...इसे घर मे ही बनाया जाता है ..सूजी और खोया भर के ...। और चावल के आटे , मैदा और गेंहू के आटे को फ़ेंट कर तैयार की मीठी टिकडियां ..जिसे टिकिया कहा जाता था । सबसे खास बात होती थी ......कि ये इतने सारे बनाए जाते थे कि अगले एक हफ़्ते तक स्नैक्स के रूप में यही चलता था । अरे काहे का स्नैक्स जी....हम लोग तो सुबह और शाम का नाश्ता बोलते थे ....।


मुझे अब भी याद है कि किस तरह से मां जाने कितने दिनों पहले से ही तैयारियों में लग जाती थी । बाद के दिनों में जब हम गांव में रहने लगे तो इस त्यौहार का आनंद और भी दूना हो गया था । कच्ची मिट्टी के आंगन में ...गाय के गोबर से लीप कर ....तैयार किया गया पवित्र स्थान ..उस पर अरिपन (जिसे रंगोली कहा जाता है , या शायद उससे थोडा सा अलग , इसमें पीसे हुए चावल के घोल से तैयार गाढे रस से सुंदर आकृति बना कर उसे बीच बीच में सिंदूर से सजाया जाता है ), उस पर कांसे का कलश, बीच में आम का पल्लव और ताजा ताजा गीली मिट्टी का बना हुआ दीया । बडे बडे केले के पत्तों पर सजा कर रखी गई प्रसाद सामग्री । चूडा, दही , चीनी, घी , शहद, केले , पुरुकिया , टिकिया । उसके बाद पूजा , घर के सभी पुरुष , महिलाएं और बच्चे तक , शाम को चांद को देख कर हाथों में फ़ल लेकर उन्हें प्रणाम करते थे । महिलाओं ने जिन्होंने अपना व्रत खोलना होता था वे भी ऐसा ही करके अपना व्रत खोलते थे ।इसके बाद सब बैठ कर वहीं खाना खाते थे ...।


ओह वे दिन और वो शामें .........।
वैसे तो जिस दिन इस शहर का रुख किया ..........समझ गया था कि अब ये सब सिर्फ़ यादों और यादों में सजे हुए पलों की तरह फ़्रेम में जडे रह जाएंगे ......मगर मां के अचानक चले जाने के बाद तो बस .........................

रविवार, 16 मई 2010

एक चिट्ठी मां के नाम ....जिसे अब वो कभी भी न पढ पाएगी




मां पता नहीं आज क्यों मन इतना व्याकुल है , मुझे नहीं पता । आज न तो कोई त्यौहार है न ही कोई दुख या संकट की घडी मुझ पर अचानक आई है , क्योंकि अक्सर इन्हीं दोनों समय पर तुम मुझे बहुत ही याद आती थी , मगर फ़िर भी मैं नहीं जानता कि आज तेरी इतनी याद क्यों आ रही है मुझे । मां , मुझे नहीं पता कि तुझ तक ये चिट्ठी कैसे पहुंचेगी मगर इतना जानता हूं कि जब यहां भी बिना बोले , बिना कुछ कहे तू मेरी हर बात , समझ जाती थी तो ये बात भी तुझ तक जरूर ही पहुंच जाएगी ।

मां गांव और घर तो उसी दिन छूट गया था जिस दिन पढाई पूरी करने के बाद इस शहर का रुख किया था । काश कि पता होता कि ट्रेन पर शुरू की गई वो यात्रा , गांव की मिट्टी से , तुझसे , गांव के खेत खलिहान से , बगीचों तालाबों से मेरी विदाई जैसा है तो वो यात्रा नहीं शुरू करता । मुझे नहीं पता कि गांव में रहते हुए मेरा भविष्य क्या होता । मैं ये भी नहीं जानता कि यहां राजधानी में रह कर जो नाम पैसा कमाया वो ज्यादा अच्छा था या गांव में किसी छोटी दुकान पर दिन भर में कुछ बेच कर शाम को आंगन में तुम्हारे हाथों की पकाई हुई रोटी और खेडही दाल ( मूंग की छिलके वाली दाल ) की नींबू वाली चटनी के साथ जिंदगी गुजारना । गांव के छूटने का दुख तो पहले ही था ,मगर जब तू थी और बाबूजी के साथ गांव में ही रहने के तेरी जिद थी तो उसके कारण एक बहाना तो था ही , और इस बहाने को अंजाम तक पहुंचाने में तेरा वो आग्रह छठ पूजा मे आने का आग्रह , बसंत पंचमी में आने की जिद , बिलटू के उपनयन में पहुंचने की ताकीद , जाने कितने बहाने थे जिन्हें सुनने को मैं मन ही मन आतुर रहता था और फ़िर लाख इधर उधर होने के बाद अंदर से अपना मन होने के कारण किसी न किसी जुगाड से पहुंच ही जाता था ।

मां इस बार तेरे बैगैर वो घर , घर कम एक सराय ज्यादा लग रहा था । कहने को तो चाची , चाचा सब थे मगर फ़िर भी जितने दिन रुका मैं बिपिन के घर ही खाता पीता रहा । बाबूजी जिद कर रहे थे , कि मुझे यहीं छोड जाओ , मैं कहां रह पाऊंगा , मगर मां ये तो तुझे भी पता था न कि अब गांव में कोई ऐसा भी नहीं बचा है जो दवाई भी ला सके बाहर से इसलिए बाबूजी को भी साथ ले आया । मां , बस यही एक गलती हो गई है शायद मुझसे , मगर क्या करूं उन्हें किसके भरोसे छोडता वहां , अब कौन है वहां तेरे जैसा ? यहां कुछ दिनों के लिए बबलू ले कर गया था बाबूजी को , अपने यहां रखने के लिए , मैं कैसे मना करता , आखिर उनका छोटा बेटा है , मगर मां नहीं बता सकता कि क्यों फ़ोन पर की गई एक बातचीत के बाद मैं उन्हें लेकर यहां आ गया हूं कभी कहीं नहीं जाने के लिए । मां , तू होती तो शायद इस बार भी बबलू की बात को छिपा कर मुझे और उसे भी मना लेती , मगर देख न अब तो वो पूरी तरह निश्चिंत हो गया है, महीनों हो गए उससे बात करते हुए ।

मां मैं बाबूजी की सेवा पूरी निष्ठा से कर रहा हूं , यहां उन्हें किसी बात की तकलीफ़ भी नहीं है । मगर फ़िर भी जाने क्यों मुझे लगता है कि मैंने उनका दिल कहीं किसी आलमारी , किसी शैल्फ़ में कैद करके रख दिया है । उनका मन हमेशा ही कहता रहता है कि उन्हें मुक्त कर दूं , उन्हीं अपने घर दालान , खेत खलिहान , आम के पेड, गेहूं धान सब देखने के लिए , अपने हाथों से बेलपत्र तोड कर महादेव मंदिर में चढाने के लिए , मगर मैं चाह कर भी नहीं कर सकता ये । मां उन्हें अब मेरे साथ ही यहीं रहना है वे रह भी रहे हैं , और मां एक और बात बेशक तेरी बहू समझे न समझे तेरे पोता और पोती समझ रहे हैं अच्छी तरह कि वे दादा जी हैं , एक ऐसे व्यक्ति जिनकी उनके पिता बहुत इज्जत करते हैं और शायद यही वजह है कि वे अब उनके साथ खूब समय बिताते हैं ...। मां तू जल्दी चली गई ...कुछ दिन तो और रुकती न .....

मैं नहीं जानता कि मैंने ये क्यों लिखा ...............मगर आज मां की याद आई तो लिखता चला गया ........
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