मंगलवार, 26 जून 2012

हाय किताबों से इश्क कर बैठा ...........


"आप इस उम्र में भी इतना क्यों पढते हैं ? " ,

मैंने चौंक के सर उठा कर देखा तो एक सहकर्मी महिला मित्र मेरे हाथों में अटकी उस मोटी सी किताब को देखते हुए , मुझसे प्रश्न कर रही थीं । मेरे होठों पर एक मुस्कुराहट तैर गई , वही जो अक्सर ऐसे सवाल ( जो मुझे न सिर्फ़ दफ़्तर , घर ,बल्कि कई बार मेहमानों के यहां भी ) को सुनने के बाद तैर जाया करती थी । और घर पर तो ताने के रूप में मिलता है ये ,सो कई बार झुंझलाहट भी हो जाती है । क्या करूं , मुझे आदत है , मुझे इसके अलावा और कुछ नहीं आता , मुझे लिखना पढना पसंद है , जैसे जाने कितने ही रटे रटाए जुमले दोहराता हूं ।


वो मुट्टली किताब जो इन दिनों मेरे हत्थे चढी हुई है




"अगला प्रश्न होता है ,अच्छा कितना पढ लेते हैं आप , मतलब कितने घंटे लगभग ?" 

" जी मैंने कभी हिसाब नहीं रखा , लेकिन शायद छ; सात या आठ घंटे तो पढ ही लेता हूं , लेकिन सिर्फ़ किताबें नहीं , समाचार पत्र , पत्रिकाएं , और नेट पर भी पढता हूं बहुत कुछ " मैंने उन्हें थोडा सा उकताते हुए जवाब दिया ।

" हमारे तो बच्चे भी इतना नहीं पढते आजकल , कंपीटीशन इतना टफ़्फ़ होता जा रहा है , कहती हूं फ़िर भी नहीं पढते , क्या करें जब हमें ही पढता नहीं देखते । वो तो फ़िर भी समाचार पत्र पढ लेते हैं सुबह मैं तो वो भी नहीं देख पाती ..........और फ़िर जाने क्या क्या ??

उनके साथ मैं हूं हां करता रहा और उनके जाने के बाद बहुत समय तक मन में बहुत सी बातें उमड घुमड करती रहीं । क्या सच में ही मैं किताबी कीडा टाईप का हो चला हूं । मुझे लगा कि नहीं , बिल्कुल नहीं । अभी तो जाने कितना कुछ बांकी बचा है पढने को , समय ही कहां मिलता है । रोज़ की सरकारी नौकरी , वो भी अदालत जैसी जगह पर जहां सुबह से शाम तक , चेहरों , , न्यायिक प्रक्रियाओं , मुकदमों और फ़ैसलों को ही पढते फ़ुर्सत नहीं मिलती तो उसमें अपनी पसंद की किताबों की पढने की बात ही कहां । लेकिन पसंद की किताबें , मुझे तो सब कुछ पढना अच्छा लगता है । कानून की किताबों से लेकर काद्मबनी  तक , और समाचार पत्रों से लेकर विभिन्न वेबसाइट्स , ब्लॉगपोस्ट्स और दोस्तों के फ़ेसबुक अपडेट्स तक । अपनी पसंद की रेंज़ बहुत बडी है या कहा जाए कि कोई रेंज़ ही नहीं है । अजी छोडिए , बेकार की बात है ,इतना ही पढाकू होता तो दसवीं में थर्ड डिवीज़न न आई होती , और सच कहूं तो अब तक विश्वास नहीं होता कि बांकी सब तो ठीक था लेकिन गणित के पेपर में पास कैसे हो गया आखिर ?


जी हां , शुक्र मनाता हूं कि न तो वो जमाना आज की तरह का बच्चों के लिए मेट्रिक परीक्षाओं के समय और शायद उससे पहले भी कर्फ़्यूनुमा हुआ करता था और न ही कम नंबर आने पर उनका कोर्ट मार्शल हुआ करता था अलबत्ता तैंतीस प्रतिशत के लिए अभिभावक आश्वस्त हुआ करते थे सो हम भी फ़ैले पडे रहते थे कि अगर कुर्सी टेबल पास तो हम भी पास । शायद वो मैट्रिक के इम्तहान ही थे जिनके परिणाम ने बदल कर रख दिया । लगा कि नहीं , पढने का अपना ही आनंद है । न सिर्फ़ अकादमिक पढाई में बल्कि फ़िर प्रतियोगिता परीक्षाओं के दौर में और उसके बाद साहित्यिक रुचि जगने के बाद तो जैसे किताबों से इश्क सा हो गया । और किताबों से ही क्यों कहूं , पढने से मोहब्बत हो गई ये कहना चाहिए । हालांकि शुरू में तो पढाई इस वज़ह से शुरू हुई कि , अबे धत जब राकेश  , राजीव  , विजय  , सबको पढने में इतना मज़ा आता है तो कुछ तो आनंद होगा ही पढने में ।


एक वाकया याद आ रहा है बहुत पहले का । मेरी दीदी पढाई लिखाई में बहुत ज्यादा प्रखर और मेधावी  थीं और मैं उतना ही भयंकर भुसकोल इसलिए अक्सर मन में ये अरमान रहते थे कि जैसे मां बाबूजी दीदी को कहते थे , " क्या पूरे दिन किताब हाथ में लिए पढती रहती है , थोडी देर के लिए इसे छोड दे " , हाय कि वो कौन सा दिन होगा जब हमारे लिए भी मां बाबूजी यही कहेंगे । और सच में ही कहने लगे वे जब मैंने प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी शुरू की । अब तेज़ तर्रार तो थे नहीं , सो दे धमाधम , दे दनादन परीक्षा पे परीक्षा , मजाल है जो एक भी छोडी हो और मजाल है कि एक भी पास कर पाए हों । तब अंदाज़ा ही नहीं था शायद , न परीक्षाओं को पास करने के स्तर का और न ही अपनी काबलियत का । फ़िर वो दौर भी आया कि जहां जहां प्रयास किया सफ़लता मिली । और शायद इसी दौर ने पढाई में वो कशिश पैदा कर दी कि हम किताबों से , शब्दों से ही इश्क कर बैठे । अब तो बिना पढे रहा ही नहीं जाता । आदत इतनी खराब कि , सहकर्मियों को ( उनके बच्चों के लिए ) न सिर्फ़ नए आवेदनों के बारे में ही नहीं बताता रहता हूं बल्कि उन प्रतियोगिताओं के लिए मिलने वाली पत्रिकाओं , सामग्रियों के बारे में लगभग जबरन भी बता दिया करता हूं । क्या पता अगला चाहे परेशान ही हो जाता हो ।


हां साहित्य से लगाव स्नातक में अंग्रेजी ऑनर्स के दौरान ही हो गया लेकिन परवान चढा दिल्ली में रहने के दौरान और उन मित्रों के संपर्क में आने के बाद जिन्होंने मुझे गुनाहों का देवता , रतिनाथ की चाची , मुझे चांद चाहिए , का स्वाद लगा दिया । फ़िर तो ये लगी लगाए न लगे और बुझाए न बुझे वाली स्थिति हो गई । शायद ही कोई दिल्ली पुस्तक मेला हो जहां मैं जाकर ढेर सारी किताबें न खरीद लाया हूं । बेशक वो मेरे अलावा सबके लिए " रद्दी वाले का अच्छा खासा स्टॉक "हों लेकिन मेरे लिए किसी पूंजी से कम नहीं । एक दिन हुलस कर जोश में किताबों का कोना भी बना लिया , मगर किताब को पढ कर उनके लिए कुछ लिखने में अब तक आलसी ही निकला , जल्दी ही उस आदत को भी नियमित करता हूं । अब  तो ये इश्क ज़ारी रहेगा , माशूकाएं मिलती रहेंगी और मैं उन्हें पढता रहूंगा ..........................................

थोडी सी किताबों के लिए एक अस्थाई सा ठिकाना अपने कमरे में , बांकी सब बेचारों को संदूक की सज़ा सुनाई हुई है

19 टिप्‍पणियां:

  1. हाय ! किताबें बेचारी मिलन के लिए तड़प रही हैं . :)

    अच्छी आदत है भाई . पुस्तकें मनुष्य की सबसे सच्ची साथी होती हैं .
    बस सौतन न बने तो .

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  2. जी सर अब तो लगता है सौतन ही बन गई हैं :) :)

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  3. शुक्रिया वर्मा जी , आपकी इस दुआ के लिए :)

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  4. किताबों से दोस्ती अच्छी लगी !

    ....महिला-मित्र को यही अखरा होगा :-)

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  5. अकेलापन दूर करने के लिए किताबें ही सच्ची साथी होती है,बस कोई दूसरी ,,,,,,, न बने,

    RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: आश्वासन,,,,,

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  6. इस इश्क की तो रूमानियत ही कुछ अलग है। अच्छी पोस्ट।

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  7. GK Awadhiya :-

    किसी कारण से आपके पोस्ट पर कमेंट नहीं कर पा रहा हूँ अतः यहीं पर टिप्पणी कर रहा हूँ

    इस पोस्ट को पढ़कर स्कूल के दिनों की याद आ गई जब मैं भी पुस्तकों से चिपका रहता था। उन दिनों पढ़ी गई पुस्तकों में से कुछ हैं जासूसी दुनिया के सारे अंक तथा गुलशन नंदा के अधिकतर उपन्यासों के अलावा चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्ता सन्तति, भूतनाथ, रोहतासमठ, झाँसी की रानी, चित्रलेखा, पथ के दावेदार, गोदान आदि।

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  8. क़िताबों से प्रेम बना रहे यूँ ही...
    उनसे बड़ी पूँजी कुछ और नहीं!

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  9. संतोष त्रिवेदी जी @ नहीं माट साब ऊ अपनी सहेली से बतियाने आईं थी , उन्हें न पाके हमही पर पिल पडीं :) । हमारी घराडी भी हमरे साथे दफ़्तर में हैं , आप बिसर जाते हैं क्या हो ।

    धारेंद्र जी @ शुक्रिया
    रजनीश भाई @ शुक्रिया आपका
    अवधिया जी : बहुत आभार आपका
    अनुपमा जी : धन्यवाद
    बुलेटिन टीम (देव कुमार झा ) पोस्ट को स्थान व मान देने के लिए आभार ।

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  10. पुस्‍तकें पढ़कर जो आनन्‍द आता है वह और किसी में नहीं है।

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  11. "अब तो ये इश्क ज़ारी रहेगा , माशूकाएं मिलती रहेंगी और मैं उन्हें पढता रहूंगा ..."

    माशूकाओ को पढ़िएगा तो क्या इश्क़ हम से कीजिएगा ???

    महाराज पहले ही बता देते है ... हम वैसे टाइप के नहीं है जैसा आप सोच रहे है !

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  12. अकेलेपन पन को दीर करने की साथी है किताबे

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  13. आप इतना कैसे पढ़ लेते हैं, आपसे जलन होने लगी है..

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  14. आप इतना कैसे पढ़ लेते हैं, आपसे जलन होने लगी है..

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  15. आप इतना कैसे पढ़ लेते हैं, आपसे जलन होने लगी है..

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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