आरक्षण और रेल , क्रिकेट का खेल , और एक अदद शहीद दिवस ..कुछ भी कभी भी
पिछले दिनों कुछ घटनाएं ऐसी थीं तो बहुत आसपास भी नहीं घटते हुए मस्तिष्क को आंदोलित किए रहीं । ताज्जुब की बात ये रही कि विश्व को अचंभे और अचक में जहां दुर्घटनाओं ने डाला वहीं भारत खुद की उत्पन्न घटनाओं से ही उथल पुथल करता रहा । राजनीतिक घटनाक्रम को बिल्कुल सिर से परे करते हुए ..सिरे से इसलिए क्योंकि भारत की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था पर किसी भी बात या बहस को आगे बढाने से लगता है कि व्यर्थ ही अपना समय और सोच ज़ाया कर रहे हैं ..क्योंकि इस भैंसालोटन प्रजातंत्र की व्यवस्था में फ़िलहाल तो मोहन जी और उनकी मदाम जी ने ये तय कर लिया है कि पूरी बेशर्मी से वो अपने त्याग को इंज्वाय करते ही रहेंगें ..वाह रे त्यागी जी और वाह रे उनका त्याग । तो इससे परे जिस घटना ने सबसे पहले ध्यान खींचा वो था जाटों का आरक्षण आंदोलन । न न न न न, बिल्कुल नहीं न तो आरक्षण , न ही जाट और न ही उनका आंदोलन ही मेरे भीतर उठे मानसिक द्वंद का बायस था ..मैं ये भी नहीं सोच रहा था उस वक्त कि आखिर रेल की पटरियों का रेल के आरक्षण से तो एक पल को सूत्र बिठाया जा सकता है लेकिन रेल की पटरियों के इस सामाजिक आरक्षण से कैसा तालमेल हो सकता है ये अपने बूते से बाहर की बात लगी । मुझे सबसे ज्यादा हैरानी इस बात की हुई कि जाटों ने लगभग पंद्रह दिनों तक एक खास क्षेत्र में रेल का चक्का जाम तक कर दिया । प्रशासन हर बार की तरह फ़िर से एक बार खुद को अपंग और बेबस साबित करने में सफ़ल रही और इसके लिए इस बार भी उसे कोई खास मशक्कत नहीं करनी पडी । विश्व की सबसे बडी परिवहन व्यवस्थाओं में से एक भारतीय रेल ने इसका विकल्प क्या निकाला देखिए , लगभग दस दिनों तक ट्रेनों की आवाजाही बाधित रही और बाद में कुछ रेलगाडियों के परिचालन को स्थगित ही कर दिया गया । सवाल यहां आंदोलन , या फ़िर उसके स्वरूप का नहीं है सवाल यहां ये है कि आखिर क्यों हर बार सडकों , पटरियों को ही ऐसे आंदोलनों , हडतालों , और बंद के निशाने पर लिया जाता है । आम आदमी को कठिनाई में पहुंचा कर उनका ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए जिन्हें ऐसे किसी बंद से कोई फ़र्क नहीं पडता , सडक रेल न सही , हवाई जहाज ही सही । आंदोलनकारी हवा में तो आंदोलन करने से रहे । हर बार इस बात की प्रतीक्षा की जाती है कि आखिरकार बाद में जब न्यायपालिका बुरी तरह लताडेगी तब फ़िर से इस स्थिति पर नियंत्रण पाया जाएगा । आरक्षण की व्यवस्था , उसका लाभ या हानि , असीमित काल तक चलने चलाने वाली प्रथा और इन मुद्दों पर तो बहसें होती और चलती रहेंगी लेकिन अब तो विचार इस बात पर होना चाहिए कि आखिर कब तक , कब तक एक आम आदमी इन आंदोलनों और ऐसे सभी बंद ,हडताल और आंदोलनों के कारण सडक और रेलों के धक्के खाने पर मजबूर किया जाता रहेगा वो भी आम आदमियों के दूसरे झुंड द्वारा ही ।
अब बात क्रिकेट की , यूं तो वैसे भी विश्व कप की खुमारी चल रही है उपर से मेजबानी भी अपने ही हाथ फ़िर इंडिया ब्लू को तो इस बार लोगों ने इतना ब्लो किया हुआ है कि ऐसा लग रहा है कि विश्व कप इस बार फ़िर हां अट्ठाईस बरसों के बाद एक बार फ़िर से वही दीवानगी पैदा की जाने वाली है क्रिकेट को लेकर । जैसा कि मैं अपने एक पोस्ट में इससे पहले बता भी चुका हूं कि इस बार आश्वर्यजनक रूप से क्रिकेट में सट्टे के जिस खेल से और मेरा परिचय हुआ उसने मुझ जैसे क्रिकेट के बिल्कुल भी नहीं दीवाने आदमी की भी दिलचस्पी इन हो रहे क्रिकेट मैचों में थोडी बहुत तो जगा ही दी । बातों बातों में जब उस दिन मुझे ये पता चला कि ये सारा खेल कुछ खेल से इतर कुछ और ही अलग तरह के खेल जैसा है । इन सब बातों में सच्चाई कितनी है ये तो ईश्वर ही जाने और वे जानें जो इन सबमें लिप्त हैं । लेकिन मेरी समझ में फ़िर भी ये नहीं आता कि सिर्फ़ गेंद बल्ला भांजने के एवज में यदि जनता इन्हें न सिर्फ़ बेशुमार पैसा , नाम , दीवानापन और कई तो अपना सर्वस्व ही लुटाए बैठे हैं और ये सब जानते हुए भी आखिर ऐसा कौन सी वो वजह होती है जो खिलाडी इन सट्टा बाजों के झांसे में फ़ंस जाते हैं । जो भी हो इन दिनों मैं सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर अपने स्टेटस अपडेट में इन सट्टेबाजों की अटकलों का जिक्र भर कर देता हूं और फ़िर विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वही होता है जो लगता नहीं है कि हो पाएगा तो एक बार फ़िर से उन अटकलों को टटोलता हूं । अगर उनकी मानी जाए , ( अब तक लाख मन के न मानने के बावजूद और बहुत बार ठीक उलट हालात हो जाने के बावजूद भी यही हुआ है जो फ़ुसकारा उन्होंने छोड दिया ) तो भारत पाकिस्तान के बीच का सेमीफ़ायनल भारत जीतेगा और विश्व कप भी । और इसके पीछे बडे कमाल के तर्क भी हैं भाई लोगों के ..सचिन का आखिरी विश्व कप है ..आगे सुनिए भारतीय बोर्ड का सीधा सीधा प्लानिंग है कि अगले दस बरसों के लिए यदि भारतीय पब्लिक को पगला के रखना है क्रिकेट के नाम पे तो इस बार का विश्व कप तो लेना ही होगा ..वर्ना आईपीएल का बैंड बजाने की भी धमकाहट मिली है । रही सही कसर पूरी कर दी है डॉन जी ने सुना है ....खिलाडियों के कप प्लेट मांजने वालों तक को ..मंहगे रेस्तरां में मुर्गी खाते देखा गया है । चलिए बहरहाल जो भी हो लेकिन एक बात तो खुशी की है कि भारत अब तक रेस में बना हुआ है और यदि सट्टा बाबा की लफ़्फ़ाजी में कोई दम है तो फ़िर तो इस बार ...ब्लू बीड ...ब्लू बीड हो जाएगा ।
२३ मार्च यानि शहीद दिवस ...ये शहीद दिवस या खेल दिवस या ऐसा ही कोई अन्य दिवस जब आता है और जिस ढंग से उसे मनाने का ढकोसला किया जाता है वो देख कर मुझे अक्सर लगता है कि एक ये बात भी उन कुछ अनुकरणीय बातों में से एक ये भी है कि अपने देश के शहीदों और देश के जवानों और देश पर मर मिटने वालों का कृतज्ञ कैसे रहा जाता है । ऐसे अवसरों पर उनकी भावना , और श्रद्धा सचमुच ही यहां की तरह नाटकीय सी नहीं लगती । इस दिवस पर तो अब सरकार इतनी बेशर्म हो जाती है कि गांधी और नेहरू दिवसों की औपचारिकता को भी निभाने की कोशिश नहीं करती, और करे भी क्यों अब इन शहीदों को , इनकी शहादत को , इनके जीवन को एक तिल्सम और आकर्षण , एक आदर्श मानने वाले पागल अब बचे ही कितने हैं । कुछ की संख्या में इतिहास को भलीभांति महसूसने वाले कुछ लोग ही भगत सिंह , राजगुरू और सुखदेव को वो मानते हैं कि जिसके कारण आज देश को ये हक मिला है कि वो दिवस भी मना सके वर्ना ब्रिटिश हुकूमत ने तो अपना दिवस करने के लिए सभी गुलाम देशों को एक चिर रात्रि में धकेल दिया ही था । शहीद दिवस पर पढते हुए देखा पाया कि कई स्थानों पर इस बात के लिए रोष व्यक्त किया था कि आज बहुत से इतिहासकार इन बागी देशभक्तों को आतंकवादी करार देने पर तुले हुए हैं और अपनी पुस्तकों में लिख भी रहे हैं । मुझे आश्वर्य हुआ इस बात पर कि , वे जो भी अति बुद्धिमान लोग हैं ..उन्हें ये बात समझ में कैसे नहीं आई कि आज जिस ठसक से वो अपनी पुस्तकों में जिन्हें आतंकवादी कह रहे हैं , ये सब उन्हीं के बलिदान के कारण संभव हो सका है । यदि वे आतंकवादी थे तो फ़िर आज के अफ़जल और अजमल कौन हैं ...क्योंकि कोई पागल भी इन दोनों की तुलना करने की हिम्मत नहीं कर सकता ..लेकिन किंचित ही ये विद्वान सिर्फ़ पागल नहीं महापागल होंगें तभी तो ऐसा लिख बता और साबित करना चाह रहे हैं । सरकार , उससे पोषित संस्थाओं से शहीद दिवस की भावना को समझ सकने की अपेक्षा करना सरासर बेमानी है , इसलिए मुझे लगता है कि ऐसे अवसरों पर सबसे बेहतर कार्य यही हो सकता है कि अपने घर के बच्चों को इन वीर सपूतों की बातें , उनकी कहानियां सुना कर उनसे इनका परिचय कराएं .....मैंने तो यही किया ..
मोहन जी से हम इतनी ही इल्तेजा करेंगे:
जवाब देंहटाएंजागो, जागो, मोहन प्यारे, जागो...:)
ये सब उन्हीं के बलिदान के कारण संभव हो सका है । यदि वे आतंकवादी थे तो फ़िर आज के अफ़जल और अजमल कौन हैं ... जी यह इन के जमई राजा हे, वो शहीद तो हमे आजादी दे कर चले गये हम पागलो को ही यह समभालनी नही आई, ओर इस आजादी को हम ने इन हरामी ओर गुंडे नेताओ के हाथो दे दिया... जो आज हमारे शहीदो को आतंकवादी ओर इन आतंकवादीयो को अपना जमाई राजा बना कर रख रहे हे....
जवाब देंहटाएंआप के लेख से सहमत हे जी
आरक्षण,क्रिकेट और शहीद दिवस तीनों पर आपका रोचक वक्तव्य पढ़ कर अच्छा लगा.यह सही बात है कि हमे अपने बच्चों को शहीदों के बारे में जितना अधिक हो सके बताना चाहिये.
जवाब देंहटाएं'मनसा वाचा कर्मणा'की नई पोस्ट 'बिनु सत्संग बिबेक न होई' पर आपका इंतजार है.
दसरे जो करते हैं, उन्हें उनकी समझ मुबारक. आपने ''... मैंने तो यही किया'' किया, वह जरूर सार्थक लगा.
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार पोस्ट और जरूरी भी
जवाब देंहटाएंअजी मनमोहन जी तो जरदारी जी के साथ क्रिकेट देखेंगे और उनके प्रताप से दोस्ती निभाने के लिए कोशिश भी होगी की जीत का टोकरा भेंट कर दें। त्यागी पुरुष है तो इस बार भी त्याग करने के लिए निमंत्रण तो दिया है। अब देखो अपने खिलाडी उनके त्याग को कैसे लेते हैं? भाई एक साथ एक ही पोस्ट लिखो, तीन तीन पर कोई कैसे टिप्पणी करे? पूरी पोस्ट ही ना हो जाए?
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