वैसे तो बरसात के मौसम की विदाई के साथ ....धूप की चटकीली चमक जैसे जैसे बढती जाती है .....उन तमाम लोगों के मन पर शायद मेरी तरह एक उदासी की पर्त जमने लगती है .....जो कहीं न कहीं ..अपने परिवार ....अपनी जडों से दूर कहीं जडें जमाने की जद्दोज़हद में लगे हुए हैं ....और वो चरम पर तब पहुंच जाती है जब हम जैसा कोई ..टेलिविजन पर दुर्गा पूजा की कवरेज देख देख ....उस पल को कोस रहा होता है ...जिसमें उसे ऐसे महानगरों में आने को अभिशप्त होना पडा था । खैर अब तो ये दस में नौ न सही तो आठ की नियति तो बन ही चुकी है ..।दुर्गा पूजा से जुडी यादों को टटोलने बैठा तो ..याद आया वो १९८० से १९८३ का जमाना ...वो लखनऊ की रामलीला ....उस समय भी शहरों खासकर ..बिहार बंगाल के अलावा ..में शायद दुर्गा पूजा से ज्यादा ..सक्रियता रामलीलाओं की ही होती थी .....। शायद वो चौथा दिन होता था ..जब रामलीला देखने जाने की शुरूआत हो जाती थी । घर के पास ही तोपखाना बाजार के साथ वाले खुले मैदान में रामलीला हुआ करती थी ...और ये वही समय था ..जबकि आम लोगों ने ...रामानंद सागर के राम जी को एक ही तीर से सैकडों राक्षसों को मारने का सीन नहीं देखा था ...इसलिए उस समय सारा मजा इसी में आना होता था और कहूं कि आता भी था । शाम को आठ नौ बजे तक खाना पीना निपटा कर चाचा के साथ हम दोनों भाई उनके दोनों तरफ़ से दोनों हाथ पकड के चल देते थे ....और फ़िर वापसी तो छोटे महाराज की चाचा जी के कंधे पर ही होती थी ....मगर क्या मजाल जो एक दिन भी छूटा हो वहां जाना । ये वही समय हुआ करता था ...जब नवरात्रि में स्वेटर और शॉल निकल जाया करते थी और खत्म होते होते तो बात रजाई कंबल तक भी पहुंच जाती थी । राम सीता, रावण और हनुमान जी के अलावा हमारे लिए वहां का आकर्षण हुआ करता था ...वो छोटी सी लोहे वाली ...पटाखे वाली पिस्तौल , रंगीन गुब्बारे ,,या कोई चूंचूं चींची करता खिलौना ..। ओह क्या दिन थे वे भी ।इसके बाद मुझे थोडा बहुत याद है पूना की दुर्गा पूजा भी ..शायद कोई चतुरसिंही मेला लगता था वहां , ठीक ठीक तो याद नहीं है अब , मगर ये वो साल था जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी यानि उन्नीस सौ चौरासी ...का साल । वहां न तो रामलीला थी न ही दुर्गा पूजा ..मगर नहीं नहीं शायद उस चतुरसिंही मेले में दुर्गा देवी की प्रतिमाएं होती थीं ...एक बहुत ही बडे मैदान में ..उन दिनों में भी बहुत बडा चकाचक मेला लगता था ..खूब बडे वाले झूले लगते थे ....देखिए न आज टटोलने बैठा तो ..बरसों पुरानी एक तस्वीर मिल गई ..। ये तस्वीर उसी मेले में ...वो फ़ोटोग्राफ़र होते थे न ..जो सामने बैठा कर ..खुद एक बडे से काले कपडे में अपनी मुंडी घुसेड कर फ़ोटो खींचते थे ....देखिएबाएं से मेरा अनुज संजय , बीच में स्वर्गवासी दीदी अंजु और सबसे दाहिने मैं खुद ...दुर्गा पूजा और उससे जुडी हुई यादें सबसे ज्यादा समेटी हमने पिताजी की पटना दानापुर की पोस्टिंग के दौरान ....वहां बिताए पांच छ; सालों में दुर्गा पूजा के सारे रंग देख डाले । ऐसा हालांकि कई कारणों से हुआ ..जिसमें से पहला था कि ..उन दिनों से ही या शायद उससे पहले से ही ..दुर्गा पूजा के दौरान ..स्कूल कॉलेजों यहां तक कि शायद बहुत से दफ़्तरों की भी छुट्टियां हो जाती थीं और फ़िर काम ही क्या बचता था । साल भर सहेजे गए ..बढिया बढिया कपडों को निकाल कर बाहर किया जाता और मजेदार बात ये होती थी कि गर्मी की विदाई और शीत ऋतु का आगमन हो रहा होता था इसलिए गर्मी सर्दी के कपडों का कंबीनेशन कमाल का फ़्यूजन बनाता था । और क्या घुमाई होती थी ..शाम को ही निकल जाया जाता था । बी आर सी मंदिर वाली मूर्ति और पंडाल , दानापुर बाजार वाली मूर्ति और पंडाल , तिरहुत कॉलोनी , एल आई सी कॉलोनी ....और जाने कहां कहां ..रोज कम से कम चार पांच जगह का कार्यक्रम बना रहता था । खाना पीना ..और पिक्चर देखना ( उन दिनों तो स्पेशल शो चलाए जाते थे वो रात बारह से तीन वाले भी , पता नहीं अब चलते हैं कि नहीं ) और फ़िर सप्तमी से तो घुमाई ..एकदम एक्स्ट्रीम लेवल पर होती थी ..पटना , कंकडबाग , राजा बजार , कदमकुंआ, दानापुर ..मजाल है जो कोई छूट जाए ...और यही वो समय होता था जब परिवार के परिवार ..इन पंडालों में एक समाज का रूप ले चुके होते थे ...। कहीं शिव जी की जटा से निकलता हुआ पानी आकर्षण बना हुआ रहता था ..तो कहीं रूई से बने हुए उंचे उंचे पहाड ..कहीं माचिस की तीली से मूर्ति बनी होती थो कहीं ....कहीं छोटे बल्बों की रोशनी से ..कहीं पर छोटे छोटे ..हनुमान जी की टोली ..आनंद का पर्याय बनी हुई रहती थी तो कहीं .....निरंतर घूमता हुआ सुदर्शन चक्र ....और इन सबके बीच ....चौधरी जी की दुकान के ..वो समोसे को तोड कर उसके साथ ..चटनी , और मसाले डाल कर बनाई गई चाट या फ़िर साधउ होटल के वो बडे वाले गुलाब जामुन । कुल मिला के ..वो दस दिन ...सच में ही शहर के लिए . और हर शहरवासी के लिए उत्सवमय हो जाते थे । मुझे याद है कि इन छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुला करते थे तो ..सब बच्चों के पास दिखाने के लिए कई खिलौने और सुनाने के लिए बहुत सारे किस्से होते थे ।इसके बाद अगले कुछ सालों तक गांव की दुर्गा पूजा देखने का समय आया । पहले दिन से ही जब वो लकडी के बडे से तख्ते पर कुछ बडी मजबूत से बेंत लगा कर मिट्टे के बडे लोए धर देता था ....इसके बाद उधर से आते जाते नज़र अनायास भी ..उन मूर्तियों पर पडती थीं .....और देखते जाते थे ..आज आठ भुजाएं बन रही हैं ...आज उनके शस्त्र , आज मस्तक बन रहा है ..आज कुछ अन्य देवताओं की मूर्तियां । फ़िर होता थी उन दिनों की शुरूआत जब गांव के हर घर को होता था इंतज़ार ...किसी का बेटा आ रहा है ..किसी का दामाद , किसी का भाई ....आ रहा है , किसी को दुख है कि उसकी बहू और पोते पोतियां नहीं आ रहे हैं इस बार ..तो किसी की बेटी ससुराल से इसलिए नहीं आ रही है क्योंकि उसकी सास की तबियत नहीं ठीक है और मां का मन कचोट रहा है । गांव के यूं तो हरेक घर में उन दिनों उत्सव का ही माहौल रहता था ...सभी घरों से निकलती धूप अगरबत्ती की खुशबू ,.,,,और घंटियों की आवाज ....शाम को सभी महिलाओं का गीत गाते हुए ....कुल देवता डीहबाड बाबा के मंदिर तक ..मिट्टी का ताजा ताजा बनाया हुआ दिया लेस कर आना .वो घर घर में लगातार कई कई घंटों तक ..दुर्गा सप्तशती का पाठ ..
.कुल मिला कर यदि कोई आंख बंद करके भी समझ सकता था कि ..दुर्गा पूजा चल रही है और इसके अलावा जिस एक बात में सभी युवा बहुत ही जोश से लगे होते थे वो थी ..आखिरी के चार पांच दिनों में होने वाले नाटकों का मंचन । ओह उन नाटकों पर तो अलग से ही किसी अन्य पोस्ट में लिखना बेहतर होगा ......। पूजा के दौरान ..चो चौकी पर लगी छोटी छोटी दुकानें ..किसी पर मीना बाजार सजा हुआ है तो किसी पर छल्ला फ़ेंको और ईनाम जीतो लगा हुआ है ...चाय पान की गुमटियां तो खैर ...युनिवर्सली और बाय डिफ़ॉल्ट लगी होती ही थीं । बाद के सालों में जब नाटकों से डायरेक्टली दायित्व वाली ड्यूटी से थोडे से फ़्री हुए तो ..दोस्तों के साथ ...पैदल ही घूमते हुए आसपास के कई गावों ..कोईलख , पट्टी टोल , सिंगियौउन , केथाही , रामपट्टी, भगवतीपुर , कोठिया ..आदि में जाकर वहां के कार्यक्रमों को देखते थे ।
यहां रहते हुए एक दशक से ज्यादा हो चुका है , मगर अब जहां रह रहा हूं वहीं पास में ही रामलीला मैदान है जहां रामलीला चल रही है और मेला भी ...सोचता हूं कि एक दिन हो ही आऊं ...मगर फ़िर भी वो दिन ..वो रामलीलाएं .. वो दुर्गा पूजा और सबसे बढकर ..उन दिनों पडने वाली ठंड को कहां तलाश करूं ?????
कुछ तस्वीरें,,,,,,,,,,,,,,,,कुछ स्मृतियाँ कभी भी मन-मस्तिष्क से ओझल नहीं होतीं..........
जवाब देंहटाएंआज हम को भी सेंटी कर दिया आपने .....कलकत्ता की याद आ गई ! देखते ही देखते १३ साल बीत गए .... कैसे ....पता ही नहीं चला !! कहाँ शुरू हुयी थी ज़िन्दगी और आज कहाँ चल रही है ... कभी सोचो तो बड़ा अजीब सा लगता है .... पर शायद यही ज़िन्दगी है ...बस चलती ही जाती है ....घडी की सुई की तरह !
जवाब देंहटाएंNostaligia is overpowering me...tears...beautiful post..
जवाब देंहटाएंरामलीला की और दानापुर की यादें हमें भी हैं। आपका चेहरा तनिक न बदला।
जवाब देंहटाएंअपकी यह पोस्ट अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंतीन गो बुरबक! (थ्री इडियट्स!)-2 पर टिप्पणी के लिए आभार!
That was a very good post, taking me back too, but to the 60's. I have done a couple of posts too on this. 'Nine nights of the goddess' and 'Of drums and dread.' Check them out too.
जवाब देंहटाएंP.S. I don't have Hindi script. otherwise I would have commented in Hindi. Please don't mind my commenting in English.
कभी-कभी पुरानी स्मृतियों को ताजा करना अच्छा लगता है.एक बार फिर से पुरानी यादें ताजा हो आईं..पटना का दुर्गापूजा और सांस्कृतिक कार्यक्रम मुझे अभी भी याद है.स्टेशन के पास मनहर का कार्यक्रम और मुसल्लहपुर हाट की कव्वाली कभी न भूलने वाली यादें हैं.अब ऐसे कार्यक्रम नहीं होते.
जवाब देंहटाएंअहाहा राजीव भाई आपकी टीप ने तो पोस्ट को फिर से हरा भरा कर दिया < सच क्या खूब दिन थे वे भी
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