शनिवार, 2 अगस्त 2008

कुछ भी कभी भी

पिछले कुछ दिनों से मन अशांत और बोझिल है और जाहिर है की ऐसे में क्या पढ़ , क्या देख , क्या लिख रहा हूँ ख़ुद भी असमंजस में हूँ की उसे क्या नाम दूँ, सो सोचा की यही कह दूँ की जब यही नाम मेरे चिट्ठे का भी है तो यही नाम इस पोस्ट का भी सही।

परमाणु समझौता और सब्जी वाला
पिछले एक साल से भारत अमरीका परमाणु समझौता एक ऐसा मुद्दा बन गया है की राजनितिक और सामाजिक क्या आर्थिक गलियारा भी इसी के इर्दगिर्द घूम रहा है। और सच कहूं तो एक आम आदमी होने के नाते मेरे तो ये बिल्कुल पल्ले नहीं पड़ रहा की इसके सफल या विफल होने से मेरी दिनचर्या, मेरे जीवन स्टार में क्या ख़ास फर्क पड़ने वाला है, कम्भाक्त संसद तक में महा ड्रामा तक हो गया इसी मुद्दे पर। खैर, ये सब निबटा तो थोड़ी सी राहत मिली। कल जब सब्जी खरीदने गया (सब्जी से मेरा मतलब सिर्फ़ आलू, प्याज , और टमाटर ही है, बाँकी सारी चीज़ें तो बस अब मैं ख़ुद और बच्चों को भी सिर्फ़ टी वी में या किताबों में ही दिखाता हूँ ) तो जैसे ही ये पता चला की ये तरकारी जगत की ये तीनो महादेवियाँ भी शिखर पर पहुँच गयी हैं, तो मारे हैरत के मेरी हालत पतली हो गयी। सब्जी वाला मुझे गश खाता देख तपाक से बोला, " कमाल है बाबूजी सुना है की किसी परमाणु उद्योग में आप लोग अमरीका के पार्टनर बन गए हो, कहिये तो इतना बड़ा पार्टनर और एक आलू प्याज के दाम से घबरा गए। आप देखना एक दिन तो हम आपसे डालर में पैसे लेंगे " मैं समझ गया की ये सब्जी वाला परमाणु मुद्दे को बिल्कुल ठीक ठीक समझा है।

मैं अब भी चिट्ठी लिखता हूँ, और आप ....
कल जब पोस्ट ओफ्फिस में मैंने पचास पोस्टकार्ड मांगे तो , देने वाला क्लर्क मुझे इस तरह देख रहा था जैसे की मैं कोई अजूबा हूँ। दरअसल मैं नियमित रूप से अपने ओफ्फिस में बने डाक घर से ही पोस्ट कार्ड , अंतर्देशी, और लिफाफे वैगेरह खरीदता हूँ, मगर कल अचानक किसी दूसरे पोस्ट ओफ्फिस में चला गया। क्लर्क बाबू ने दोबारा पूछ कर तस्दीक़ की,तो मेरे मुंह से वही पचास पोस्टकार्ड सुन कर ख़ुद को पूछने से नहीं रोक पाये की मैं उनका क्या करने वाला। जब मैंने बतायी की मैं इनमें चिट्ठी लिखने वाला हूँ तो उन्हें आश्चर्य हुआ, क्या कहा आपको भी हैरत हो रही है। मगर ये सच है, दरअसल मैं पिछले सत्रह वर्षों से बीबीसी , रेडियो जापान, वोइसे ऑफ़ अमेरिका, जर्मनी, आदि की हिन्दी प्रसारण सेवा सुनता आ रहा हूँ और उन्हें नियमित रूप से लिखता भी रहा हूँ, अब भी नियमित रूप से कम से कम पाँच छ पोस्ट कार्ड तो रोज़ लिख डालता हूँ। इसके अलावा मेरे दोस्तों की संख्या, जिनमें से बहुतों को कभी मैंने देखा तक नहीं , भी बहुत सारी जिन्हें में पत्र लिखता रहता हूँ। मुझे लगता है की पत्रों में जो आत्मीयता, जो खुशबू होती है वो भेजने और पाने वाले की आत्मा तक को आपस में जोड़ कर रख देती है।

चिटठा जगत पर अनियमित होने की मजबूरी
पिछले जितने भी दिनों से चिट्ठाकारी कर रहा हूँ ,लाख कोशिशों के बावजूद भी एक नियमित लेखक के रूप में नहीं जम पा रहा हूँ। अप्रत्यक्ष रूप से इसके कई कारण हैं, मसलन मेरा अन्य पत्र पत्रिकाओं के लिए लेखन कार्य, घर में बच्चों और परिवार को समय देना, तथा सामाजिक दायित्वों का पालन। मगर मुझे लगता है की ये सब होने के बावजूद भी मैं आसानी से नियमित हो सकता हूँ यदि अपना ख़ुद का कम्पूटर ले लूँ। हालांकि मेरी कोशिश जारी है मगर किसी ना किसी वजह से अभी तक तो सफल नहीं हो पाया हूँ, मगर यकीन हैं की जल्दी ही शायद इसी वर्ष मेरी ये उत्कट इच्छा पूरी हो जाए, तब तक तो शायद स्थिति ऐसी ही चलती रहेगी.

5 टिप्‍पणियां:

  1. आशा है जल्दी ही आपकी निजी कम्प्यूटर की इच्छा पूरी हो जाएगी।
    शुभकामना सहित
    घुघूती बासूती

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  2. aap likhate hai to bhut achha lagta hai. meri shubhakamnaye hai ki aapka apna computer jald hi aa jaye.

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  3. aapki kamnaye jald hi puri ho jaye. yakin maniye jab sahi samay aayega tab ek pal me hi aapka apna computer aa jayega. shubhakamnayo sahit.

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  4. नियमित लिखें या न लिखें, ज्यादा ज़रूरी है कि जो लिखें अच्छा लिखें, जैसे कि इस पोस्ट पर लिखा है। वो कहते हैं न, "मंजिल पे इशारा, जमे रहो"!

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  5. aap sabka bahut bahut dhanyavaad, yakin maaniye aap logon kaa yahee saath aur vishwaas meri aslee taakat hai. dhanyavaad.

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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