रविवार, 11 नवंबर 2007

दिवाली की अगली सुबह

रात की जगमगाहट, धूम-धडाके, के बाद अगली सुबह काफी देर से उठना एक परम्परा से बन गयी है। छत पर आया तो देखा कि एक बडे दिए के अलावा सरे दिए भोर के उजाले के साथ, या शायद उससे कुछ पहले ऊँघ कर सो गए। और रात जले,अधजले पटाखों के तुद्के -चिथड़े और उनमे से आती बारूद कि गंद। उन्हें उठाते उठाते सोच रहा था कि वे क्या उन्होने कभी सोचा होगा कि वे बच जायेंगे। फिर सच तो ये है कि उनके बच जाने से ज्यादा सार्थकता तो उनके ख़त्म हो जाने में थी।


अगली चीज़ थी -अखबार। लिखने-पढ़ने वालों या फिर वैसे भी बहुतों को सुबह की चाय के साथ अखबार का भी स्वाद मुँह लग जाता है.मैं भी उनमें से एक हूँ। और लिखानतम -पधानतम वालों को तो अपने आलेखों के प्रकाशित होने का इंतज़ार रहता है। कुछ मिलाकर दोपहर तक ही सब सामान्य हो पाता है,


क्या आप के सात भी ऐसा होता है?

2 टिप्‍पणियां:

  1. diwaali ki raat par to sabki nigaahen hoti hai, lekin us raat ke baad aane waali subah ko dekhna apne aap mein bahut badi baat hai. jashna ke baad bache dip aur bam-patakhon ke avshesh,ubasi lete chehre aur ghar mein bachi mithaiyaa jaise katati hain. lekin sach kahen to wo bhi jindagi ka hissa hai. hame khushi ke saath-saath baad ki jindagi bhi jini hoti hai. hum use juthala nahi sakte.........

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  2. shukra hai ki aap bhi meri soch se ittefaaq rakhte hain.

    dhanyavaad.
    jholtanma

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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