(ये पोस्ट उन सभी ब्लॉगर बंधुओं को मेरी श्रधांजलि है जो टिप्पणी न आने के कारण मुतमईन रहते हैं )
उफ़ जैसे ही मेरे मुंह से ये बात मित्र चिटठा सिंह, (अजी एक ही तो सच्चे मित्र हैं मेरे इस ब्लॉग जगत पर ) ने सूनी उनका मुंह खुला का खुला ही रह गया, उन्होंने तो प्रश्नों की झाडी लगा दी...
क्या कह रहे हो झा, जी, अजी ऐसा क्या लिख मारा तुमने अनमोल कि दस बीस नहीं सौ टिप्नियाँ आ गयी। अबे ऐसा तो नहीं किसी बेचारे ने गलती से बार बार एक ही बात टिपिया दी हो और यदि सचमुच ही ऐसा है तो मुबारक हो मियाँ तुम तो उन गिने चुने ब्लोग्गेर्स में से हो गए जिन्होंने यहाँ के पत्थर दिल ब्लोग्गेर्स ( दरअसल तिप्न्नी न आने के कारण उन्होंने सभी ब्लॉगर बंधुओं को प्यार से ये नाम दे दिया है ) के बीच रहते हुए टिप्पणी की सेंचुरी मार दी। वे तो नॉन स्टाप बोलते जाते यदि मैंने उन्हें बीच में नहीं चुप करा दिया होता।
यार चिटठा ,तुम कभी पूरी बात नहीं सुनते , क्या अला फलां बोले जा रहे हो। दरअसल मेरे कहने का मतलब ये था कि अब तक लिखी गयी कुल पोस्टों की सारी तिप्न्नियों के मिला कर कुल सौ टिप्पणियाँ हो गयी हैं तो क्या उसका सेलेब्राशन मनाया जाए।
चिटठा सिंग चीत्कार उठे, बेडा गर्क हो तुम्हारा, हमेशा यही करते हो, शुरुआत तो कैसे करते हो और उसका अंत कितना हृदयविदारक होता है ।
तो क्या कहना चाहते हो तुम कभी एक पोस्ट की प्रतिक्रया में इतनी तिप्प्न्नियाँ आती हैं, तुमने क्या मुझे एलियन भाई (अपने उड़नतश्तरी जी ) या कोई इतना बड़ा ब्लॉगर समझ रखा है कि लोग मुझे इतनी टिप्पणियाँ करेंगे, अम हमें तो कईयों की तरह ये गुर भी नहीं आता कि एक लाइन का कोई प्रश्न फेंक मारा और सभी लगे हैं उसका उत्तर देने में, कमबख्त शक्ल ऐसी है कि चाह कर भी गुमनाम हो कर कुछ नहीं कर पाते, टिपियाना तो दूर रहा तो फ़िर तुम्ही बताओ भला ये कैसे हो सकता है।
अरे झा जी उदास मत होवो, किसी न किसी दिन तो ऐसा आयेगा कि जब सबके ब्लॉग पर सौ सौ तिप्प्न्नियाँ आ ही जायेंगी, वैसे आज इसी बात का सेलीब्राशन हो जाए।
मंगलवार, 31 मार्च 2009
सोमवार, 30 मार्च 2009
वहाँ चले हैं जूते, यहाँ चप्पल तो चलनी चाहिए
कुछ ऐसी ही नयी,
कोई ख़बर,
यहाँ भी निकलनी चाहिए,
हम बदलें ख़ुद को,
या बदल दें आईना,
हर हाल में ये,
सूरत बदलनी चाहिए,
इसको उसको सबको,
परखा लोकतंत्र बीमार ही रहा,
कुछ तो करो तदबीर ऐसी,
देश की तबियत सम्भल्नी चाहिए,
मत बने न बने ,
दाब भी चाहे कोई कर न सके,
कोशिश ये हो कि,
सबकी भडास निकलनी चाहिए,
हम कब मांगते हैं, उन्हें ,
वापस बुलाने का हक़,
हमारी तो इल्तजा है बस इतनी,
वहां चले हैं जूते,
यहाँ चप्पल तो चलनी चाहिए ..
कोई ख़बर,
यहाँ भी निकलनी चाहिए,
हम बदलें ख़ुद को,
या बदल दें आईना,
हर हाल में ये,
सूरत बदलनी चाहिए,
इसको उसको सबको,
परखा लोकतंत्र बीमार ही रहा,
कुछ तो करो तदबीर ऐसी,
देश की तबियत सम्भल्नी चाहिए,
मत बने न बने ,
दाब भी चाहे कोई कर न सके,
कोशिश ये हो कि,
सबकी भडास निकलनी चाहिए,
हम कब मांगते हैं, उन्हें ,
वापस बुलाने का हक़,
हमारी तो इल्तजा है बस इतनी,
वहां चले हैं जूते,
यहाँ चप्पल तो चलनी चाहिए ..
रविवार, 29 मार्च 2009
ई मेल अकाउंट है या लौटरी का टिकट (आप तो व्यंग्य ही समझेंगे )
इस आर्थिक मंदी के दौर में कोई भी अजूबा हो सकता है, और कहूँ की हो भी रहा है , मसलन अमेरिका का बैंक दिवालिया हो रहा है , और भारत में एक लाख की कार बन रही है। हमारा अन्तरिक्ष यान चाँद पर पहुँच गया और उसी दिन सुना की फिजा का चाँद खो गया, सत्यम ने तो सत्येमेव जयते को झुट्लाते हुए सारी रेकोर्ड ही तोड़ दिए। मगर यहाँ तक तो ठीक था लेकिन अब भैया गजब ही हो रहा है। पिछले कई दिनों से यही देख रह हूँ की मेरे ई मेल अकाउंट में रोज ही करोड़ों या पता नहीं अरबों रुपैये की लोटरी का वजेता बनाया जा रहा है मुझे। मैं ठहरा गरीब आदमी जब पार्टी का ज्यादा खाना ठीक से हजम नहीं होता तो कमबख्त लोटरी का जीतना कैसे पचा सकता हूँ सो बेहद परेशान हूँ। पहले तो मैंने सोचा की जरूर ही स्लम दोग से प्रेरित होकर कोई नयी योजना चलायी जा रही है, पूछने पर पता चला की अब उन्हें फ्लैट कैट करोड़पति चाहिए। दरअसल स्लम के दोग को तो वे देख और दिखा चुके हैं इसलिए किसी फ्लैट कैट को चुनना है , मैं इसके लिए कतई तैयार नहीं था सो मैंने कई प्रस्ताव भी उनके सामने रखे।
देखिये आपके इनामी मेल के साथ पिछले कई दिनों से एक और मेल भी मुझे बराबर आ रहा है न जाने कभी युगांडा से तो कभी तंजानियां से कोई अजीब नाम वाली महिला कहती हैं की अब उनके पति की मौत के बाद मैं इस दुनिया में वो अकेला शक्श हूँ जिस पर उनकी उम्मीद टिकी हुई है सो मैंने गुजारिश की की आप ये लोटरी का विजेता उन महिला को ही बना दें
दूसरा सुझाव था की अपने अमिताभ जी से टैक्स वसूलने के लिए इनकम टैक्स वालों को सर्वोच्च न्यायालय के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं सो आप इस लोटरी को उन्हें को दे दें ताकि उनका पीछा छोटी।
मैंने एक और प्रार्थना की की महाराज अपने जो मुझे अमीर बनने की ये अनोखी अनुकम्पा की है तो फ़िर ई मेल अकाउंट की जगह आप मेरे बैंक अकाउंट में ही सारी रकम दाल दीजिये ।
लडाई जारी है और लगता है की एक न एक दिन वे मुझे जरूर ही टाटा या म्बानी बना कर ही दम लेंगे, हाय इस गरीब ब्लॉगर का क्या होगा, उफ़ तब तो में इस तरह ब्लॉग्गिंग भी नहीं कर पाउँगा, नहीं नहीं मुझे ये बर्दाश्त नहीं है मैं नहीं बन सकता सेलीब्रिटी
देखिये आपके इनामी मेल के साथ पिछले कई दिनों से एक और मेल भी मुझे बराबर आ रहा है न जाने कभी युगांडा से तो कभी तंजानियां से कोई अजीब नाम वाली महिला कहती हैं की अब उनके पति की मौत के बाद मैं इस दुनिया में वो अकेला शक्श हूँ जिस पर उनकी उम्मीद टिकी हुई है सो मैंने गुजारिश की की आप ये लोटरी का विजेता उन महिला को ही बना दें
दूसरा सुझाव था की अपने अमिताभ जी से टैक्स वसूलने के लिए इनकम टैक्स वालों को सर्वोच्च न्यायालय के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं सो आप इस लोटरी को उन्हें को दे दें ताकि उनका पीछा छोटी।
मैंने एक और प्रार्थना की की महाराज अपने जो मुझे अमीर बनने की ये अनोखी अनुकम्पा की है तो फ़िर ई मेल अकाउंट की जगह आप मेरे बैंक अकाउंट में ही सारी रकम दाल दीजिये ।
लडाई जारी है और लगता है की एक न एक दिन वे मुझे जरूर ही टाटा या म्बानी बना कर ही दम लेंगे, हाय इस गरीब ब्लॉगर का क्या होगा, उफ़ तब तो में इस तरह ब्लॉग्गिंग भी नहीं कर पाउँगा, नहीं नहीं मुझे ये बर्दाश्त नहीं है मैं नहीं बन सकता सेलीब्रिटी
शुक्रवार, 27 मार्च 2009
कार्यक्रम बदला, अब I P L, भारत में और चुनाव अफ्रीका में,
जैसे ही ये एक्सक्लूसिव ख़बर हमने अपने मित्र चिटठा सिंग को सुनाई वे हमेशा की तरह बिदक कर बोले ,
यार झा जी, ई सब एक्सलूसिव टाईप ख़बर कहाँ से ढूंढ कर लाते हो आप, और आपही को मिल जाता ई ख़बर सब, कुछो बोल देते हो।
हम भी टनक कर बोले , क्यूँ भाई आपको हमेशा ही ये शिकायत रहती है की हम सारी एक्सक्लूसिव खबर सिर्फ़ ब्लॉगजगत पर ही क्यूँ प्रकाशित करते हैं जबकि अपने इंडिया टी वी, अमेरीका टी वी, जापान टी वी वाले भी उसके लिए कतना पेमेंट करने को तैयार रहते हैं, अजी छोडिये ई सब बात हम तो ब्लॉगजगत के रिपोर्टर हैं। और हाँ शत प्रतिशत सच्ची ख़बर है ये, आईये आपको विस्तार से बताते हैं।
देखिये आप ई तो जानते ही हैं की अपने देश में लोग चुनाव से ज्यादा प्यार करते हैं की क्रिकेट से,( फ़िर जबसे क्रिकेट टीम में चीयर गल्स को भी शामिल कर लिया गया है तब से तो समझिये की क्रिकत्वा का गल्मर और भी बढ़ गया है ) सो ऐसे में किसी अनजान देश में उस खेल के महा कुम्भ को देखने के लिए देशवाशियों को यदि जाना पड़े तो ये तो निहायत ही अत्याचार टाईप वाली बात हुई न। इसलिए फैसला किया गया है की क्यूँ न आम चुनाव को दक्षिण अफ्रीका में करवा लिया जाए। देखिये इस बात के पीछे बहुत जोरदार तर्क दिया गया है भाई। एक तो चुनाव वहां होने से पूरी पारदर्शिता बनी रहेगी, दूसरे आतंकवादी हमले की आशंका भी नहीं रहेगी। अरे वहां कौन जा रहा है हमला करने। हमला करने के लिए अमेरिका , भारत, लन्दन जैसे स्थान ही आरक्षित हैं।
अब रही बात की वहां पर मतदान करने के लिए लोगों को कैसे ले जाया जायेगा। तो इस बात पर भी पूरा मंथन किया गया है। देखो कुल आबादी का आधा प्रतिशत ही अभी मतदान करने लायक हैं, मेरा मतलब वयस्क है, अमा तुम तो वयस्क कहते ही मुझे घूरने लगते हो, मन की वैसे वयस्क है मगर मतदान करने के लिए तो उम्र के हिसाब से वयस्क नहीं है न । तो बची आधी जनसंख्या के लिए वहां जानी की पूरी जिम्मेदारी टाटा भैया पर डाली जा रही है उन्हें इस बात के लिए मनाया जा रहा है अपने सस्ती नैनो को देश सेवा का मौका देते हुए सारी तैयार गाड़ियों तो भाड़े पर लोगों को अफ्रीका ले जाने के लिए करें। वैसे एक बात और भी तय हुई है की, अधिकाँश नेताओं का रेकोर्ड किसी न किसी थाने में तो है ही तो इसलिए एक केंद्रीयकृत प्रणाली के तहत सभी अपने पसंदीदा प्रतिनिधियों को सीधे थाने में जाकर वोट कर सकते हैं।
इस पूरे प्रकरण में इस बात को भी महत्व पूर्ण मानते हुए की आख़िर मास्टर ब्लास्टर को भी आई पी एल का बाहर जाना पसंद नहीं है तो उनकी भावना का पूरा सम्मान करने के लिए देश को थोड़े बहुत कष्ट और छोटे मोटे बदलाव तो करने ही चाहिए.
यार झा जी, ई सब एक्सलूसिव टाईप ख़बर कहाँ से ढूंढ कर लाते हो आप, और आपही को मिल जाता ई ख़बर सब, कुछो बोल देते हो।
हम भी टनक कर बोले , क्यूँ भाई आपको हमेशा ही ये शिकायत रहती है की हम सारी एक्सक्लूसिव खबर सिर्फ़ ब्लॉगजगत पर ही क्यूँ प्रकाशित करते हैं जबकि अपने इंडिया टी वी, अमेरीका टी वी, जापान टी वी वाले भी उसके लिए कतना पेमेंट करने को तैयार रहते हैं, अजी छोडिये ई सब बात हम तो ब्लॉगजगत के रिपोर्टर हैं। और हाँ शत प्रतिशत सच्ची ख़बर है ये, आईये आपको विस्तार से बताते हैं।
देखिये आप ई तो जानते ही हैं की अपने देश में लोग चुनाव से ज्यादा प्यार करते हैं की क्रिकेट से,( फ़िर जबसे क्रिकेट टीम में चीयर गल्स को भी शामिल कर लिया गया है तब से तो समझिये की क्रिकत्वा का गल्मर और भी बढ़ गया है ) सो ऐसे में किसी अनजान देश में उस खेल के महा कुम्भ को देखने के लिए देशवाशियों को यदि जाना पड़े तो ये तो निहायत ही अत्याचार टाईप वाली बात हुई न। इसलिए फैसला किया गया है की क्यूँ न आम चुनाव को दक्षिण अफ्रीका में करवा लिया जाए। देखिये इस बात के पीछे बहुत जोरदार तर्क दिया गया है भाई। एक तो चुनाव वहां होने से पूरी पारदर्शिता बनी रहेगी, दूसरे आतंकवादी हमले की आशंका भी नहीं रहेगी। अरे वहां कौन जा रहा है हमला करने। हमला करने के लिए अमेरिका , भारत, लन्दन जैसे स्थान ही आरक्षित हैं।
अब रही बात की वहां पर मतदान करने के लिए लोगों को कैसे ले जाया जायेगा। तो इस बात पर भी पूरा मंथन किया गया है। देखो कुल आबादी का आधा प्रतिशत ही अभी मतदान करने लायक हैं, मेरा मतलब वयस्क है, अमा तुम तो वयस्क कहते ही मुझे घूरने लगते हो, मन की वैसे वयस्क है मगर मतदान करने के लिए तो उम्र के हिसाब से वयस्क नहीं है न । तो बची आधी जनसंख्या के लिए वहां जानी की पूरी जिम्मेदारी टाटा भैया पर डाली जा रही है उन्हें इस बात के लिए मनाया जा रहा है अपने सस्ती नैनो को देश सेवा का मौका देते हुए सारी तैयार गाड़ियों तो भाड़े पर लोगों को अफ्रीका ले जाने के लिए करें। वैसे एक बात और भी तय हुई है की, अधिकाँश नेताओं का रेकोर्ड किसी न किसी थाने में तो है ही तो इसलिए एक केंद्रीयकृत प्रणाली के तहत सभी अपने पसंदीदा प्रतिनिधियों को सीधे थाने में जाकर वोट कर सकते हैं।
इस पूरे प्रकरण में इस बात को भी महत्व पूर्ण मानते हुए की आख़िर मास्टर ब्लास्टर को भी आई पी एल का बाहर जाना पसंद नहीं है तो उनकी भावना का पूरा सम्मान करने के लिए देश को थोड़े बहुत कष्ट और छोटे मोटे बदलाव तो करने ही चाहिए.
गुरुवार, 26 मार्च 2009
चुनाव और मीडिया
ये तो स्वाभाविक है कि, ख़बर और कहानी की तलाश में हर पल भटकते हमारे मीडिया के लिए आगामी आम चुनाव कुछ इस तरह से हैं कि किसी भूखे को बिना मेहनत किए कुछ दिनों तक ढेर सारा खाना मिल जाए। और जहाँ तक हमारी मीडिया की समझदारी, उसका दायित्व, उनकी विचार धारा, या दिशा की बात करें तो पिछली काफी समय से ये सब एक विवाद का विषय बना हुआ है, वो भी ख़ुद मीडिया से जुड़े लोगों की बीच।
चुनाव के मद्देनजर , जो काम रूटीन में मीडिया करती है, मुझे लगता है वो ये हैं, किसी भी प्रत्याशी या राजनितिक दल से शुल्क लेकर विज्ञापन के रूप में किसी और रूप में उनका गुणगान करना, फ़िर चाहे वो गुणगान कैसाभी सच्चा झूठा हो। और इतना ही नहीं कईयों ने तो बाकायदा इसके लिए कई लुभावन स्कीम तक चला रखी हैं। यहाँ मैं एक बात बताता चलूँ कि यूँ तो मुझे लगता है कि मीडिया के सारे स्तंभों में से आज इलेक्ट्रोनिक मीडिया ज्यादा आधारहीन और खोखला है, किंतु जब मैं चुनाव कवरेज़ और इससे जुडी ख़बरों को देखता हूँ तो यही महसूस होता है कि कम से कम इस क्षेत्र में तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया , प्रिंट मीडिया से ज्यादा कुशल दिखाई देता है । ऐसा मैं इसलिए भी कह रहा हूँ कि जहाँ आज लगभग सभी दैनिक समाचार पत्र करीब करीब एक ही ढर्रे पर चलते हुए एक जैसी खबरें छाप रहे हैं वही इलेक्ट्रोनिक मीडिया कम से कम कुछ क्षेत्रों तक ही सही पहुँच कर लोगों को सामने आने का मौका , उन्हें खुल कर बोलने का मौका, और उनके प्रतिनिधियों को भी कटघरे में खड़े करने का काम कर रहा है।
लेकिन इन सबसे अलग जो एक बात मुझे बेहद आखर रही है कि आख़िर क्या वजह है कि न हम ना ही हमारा मीडिया इन पुरातन ढर्रों के छोड़ कर कुछ नया कर रहा है। मसलन किसी से भी ये नहीं पूछा जाता है कि आख़िर जीतने के बाद वो किस तरह से अपने सांसद निधि कोष का उपयोग उनके हित में कर सकेगा, कोई भी किस भी जनप्रतिनिधि से ये नहीं पूछता कि आख़िर वो कितने कम से कम और ज्यादा से ज्यादा दिन हैं कि वे अपने क्षेत्रों के लोगों के आसानी से उपलब्ध रहेंगे , कितने जन प्रतिनिधि ऐसे हैं जो मानते हैं कि वे हारने के बाद भी उसी तरह से सक्रिय रहेंगे और समाज सेवा में लगे रहेंगे। जब ऐसे आसान और बुनियादी प्रश्नों के लिए कोई भी तैयार नहीं है तो फ़िर वैश्विक मंदी, बेरोजगारी, कन्या भ्रूण ह्त्या, विज्ञान एवं तकनीक, सूचना क्रान्ति के बारे में बात करने का तो कोई मतलब ही नहीं है ।
मुझे तो लगता है कि अब समय आ गया है कि जब मीडिया अपने चौथे स्तम्भ होने की जिम्मेदारी समझे और उसे निभानी का प्रयास करे। अपने आर्थिक लाभों को यदि पूर्ण रूपेण दरकिनार न भी कर सकें तो कम से कम इतना तो करें ही कि अपनी रिपोर्टों और ख़बरों से जनता के सामने एक अच्छा और उनके लिए जो सबसे बेहतर विकल्प हो उन्हें ढूँढने में आम लोगों की मदद करें। और ऐसा हो पायेगा, फिलहाल तो नहीं लगता.
चुनाव के मद्देनजर , जो काम रूटीन में मीडिया करती है, मुझे लगता है वो ये हैं, किसी भी प्रत्याशी या राजनितिक दल से शुल्क लेकर विज्ञापन के रूप में किसी और रूप में उनका गुणगान करना, फ़िर चाहे वो गुणगान कैसाभी सच्चा झूठा हो। और इतना ही नहीं कईयों ने तो बाकायदा इसके लिए कई लुभावन स्कीम तक चला रखी हैं। यहाँ मैं एक बात बताता चलूँ कि यूँ तो मुझे लगता है कि मीडिया के सारे स्तंभों में से आज इलेक्ट्रोनिक मीडिया ज्यादा आधारहीन और खोखला है, किंतु जब मैं चुनाव कवरेज़ और इससे जुडी ख़बरों को देखता हूँ तो यही महसूस होता है कि कम से कम इस क्षेत्र में तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया , प्रिंट मीडिया से ज्यादा कुशल दिखाई देता है । ऐसा मैं इसलिए भी कह रहा हूँ कि जहाँ आज लगभग सभी दैनिक समाचार पत्र करीब करीब एक ही ढर्रे पर चलते हुए एक जैसी खबरें छाप रहे हैं वही इलेक्ट्रोनिक मीडिया कम से कम कुछ क्षेत्रों तक ही सही पहुँच कर लोगों को सामने आने का मौका , उन्हें खुल कर बोलने का मौका, और उनके प्रतिनिधियों को भी कटघरे में खड़े करने का काम कर रहा है।
लेकिन इन सबसे अलग जो एक बात मुझे बेहद आखर रही है कि आख़िर क्या वजह है कि न हम ना ही हमारा मीडिया इन पुरातन ढर्रों के छोड़ कर कुछ नया कर रहा है। मसलन किसी से भी ये नहीं पूछा जाता है कि आख़िर जीतने के बाद वो किस तरह से अपने सांसद निधि कोष का उपयोग उनके हित में कर सकेगा, कोई भी किस भी जनप्रतिनिधि से ये नहीं पूछता कि आख़िर वो कितने कम से कम और ज्यादा से ज्यादा दिन हैं कि वे अपने क्षेत्रों के लोगों के आसानी से उपलब्ध रहेंगे , कितने जन प्रतिनिधि ऐसे हैं जो मानते हैं कि वे हारने के बाद भी उसी तरह से सक्रिय रहेंगे और समाज सेवा में लगे रहेंगे। जब ऐसे आसान और बुनियादी प्रश्नों के लिए कोई भी तैयार नहीं है तो फ़िर वैश्विक मंदी, बेरोजगारी, कन्या भ्रूण ह्त्या, विज्ञान एवं तकनीक, सूचना क्रान्ति के बारे में बात करने का तो कोई मतलब ही नहीं है ।
मुझे तो लगता है कि अब समय आ गया है कि जब मीडिया अपने चौथे स्तम्भ होने की जिम्मेदारी समझे और उसे निभानी का प्रयास करे। अपने आर्थिक लाभों को यदि पूर्ण रूपेण दरकिनार न भी कर सकें तो कम से कम इतना तो करें ही कि अपनी रिपोर्टों और ख़बरों से जनता के सामने एक अच्छा और उनके लिए जो सबसे बेहतर विकल्प हो उन्हें ढूँढने में आम लोगों की मदद करें। और ऐसा हो पायेगा, फिलहाल तो नहीं लगता.
सोमवार, 23 मार्च 2009
२३ मार्च को कुछ ख़ास है क्या ?
पापा, आज २३ मार्च को कुछ ख़ास है क्या ?
हाँ बेटा, तुम्हें नहीं पता , आज शहीद दिवस है। आज ही के दिन तो हमारे आजादी के कुछ दीवाने हँसते हँसते अंग्रेजों के फांसी के फंदे को फूल की माला की तरह गले में लपेट कर झूल गए थे। तुम्हें नहीं पता ये।
लेकिन पापा यदि ये इतना ख़ास है तो फ़िर चारों तरफ़ इसकी बात होनी चाहिए थी न, जब वैलेंताईन डे आता है तो उसके कितने पहले से ही हर तरफ़ उसकी चर्चा और खबरें रहती हैं , तो मैं क्या ये मानू की वैलेंताईन डे इस शहीद दिवस से ज्यादा महत्वपूर्ण है। और उस वैलेंताईन डे को मनाने और विरोध करने वालों की भी कितनी बातें होने लगती हैं, अब तो हम बच्चों के भी पता है उसके बारे में।
अरे बेटा इस शहीद दिवस को जब कोई मनाने को ही तैयार नहीं है तो इस बेचारे दिवस का विरोध करने की बात कहाँ से होगी। अच्छा तुम ये बताओ तुम शहीद तो जानते हो न क्या होता है।
हाँ पापा वे लोग जो अब भी, (आज जब समाज में बहुत कम ही लोग ऐसे हैं तो अपने बारे में सोचने के अलावा भी कुछ सोचते और करते हैं ) अपने बारे में अपने बाल बच्चों और अपने परिवार के बारे में न सोच कर सिर्फ़ देश के बारे में सोचते हैं। न सिर्फ़ सोचते हैं बल्कि अपना तन मन, प्राण सब कुछ देश पर न्योछावर कर देते हैं। और इस देश के लोग कुछ दिनों बाद उनका नाम तक भूल जाते हैं। सरकार उनके नाम पर कभी पेट्रोल पम्प घोटाला तो कभी कोई और घोटाला करती रहती है। उन्हें ही शहीद कहा जाता है।
खैर , वो छोडिये पापा आप ये बताइए, की उन शहीदों को फांसी पर क्यूँ टांगा था और किसने टांगा था।
अरे बेटा उस वक्त अंग्रेजों का राज था, हमारे वे बांके लोग जो दीवानों की तरह देश को आजाद करवाने के लिए सर पर कफ़न बाँध कर घूम रहे थे उन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। जब अंगरेजी हुकूमत उनसे बुरी तरह डर गयी तो उन्होंने उन क्रांतिकारियों को पकड़ कर फांसी दे दी.
बेटा आश्चर्य में डूब कर बोला, अच्छा पापा बताओ ये क्या बात हुई भला। मैं सोच रहा हूँ की यदि उस वक्त यही अभी वाली सरकार होती तो क्या उन्हें कोई फांसी दे सकता था , पर हाँ दे भी सकता था यदि उन्हें फांसी से बचाया जा सकता था तो उसकी एक ही सूरत थी की वे भी आतंकवादी होते, तब जरूर ही हमारी सरकार उन्हें कुछ नहीं कहती।
नहीं बेटे , यदि वे आज जीवित होते तो ख़ुद ही फांसी के फंदे में झूल गए होते । और इस तरह मैंने और मेरे बेटे ने शहीद दिवस मन लिया.
हाँ बेटा, तुम्हें नहीं पता , आज शहीद दिवस है। आज ही के दिन तो हमारे आजादी के कुछ दीवाने हँसते हँसते अंग्रेजों के फांसी के फंदे को फूल की माला की तरह गले में लपेट कर झूल गए थे। तुम्हें नहीं पता ये।
लेकिन पापा यदि ये इतना ख़ास है तो फ़िर चारों तरफ़ इसकी बात होनी चाहिए थी न, जब वैलेंताईन डे आता है तो उसके कितने पहले से ही हर तरफ़ उसकी चर्चा और खबरें रहती हैं , तो मैं क्या ये मानू की वैलेंताईन डे इस शहीद दिवस से ज्यादा महत्वपूर्ण है। और उस वैलेंताईन डे को मनाने और विरोध करने वालों की भी कितनी बातें होने लगती हैं, अब तो हम बच्चों के भी पता है उसके बारे में।
अरे बेटा इस शहीद दिवस को जब कोई मनाने को ही तैयार नहीं है तो इस बेचारे दिवस का विरोध करने की बात कहाँ से होगी। अच्छा तुम ये बताओ तुम शहीद तो जानते हो न क्या होता है।
हाँ पापा वे लोग जो अब भी, (आज जब समाज में बहुत कम ही लोग ऐसे हैं तो अपने बारे में सोचने के अलावा भी कुछ सोचते और करते हैं ) अपने बारे में अपने बाल बच्चों और अपने परिवार के बारे में न सोच कर सिर्फ़ देश के बारे में सोचते हैं। न सिर्फ़ सोचते हैं बल्कि अपना तन मन, प्राण सब कुछ देश पर न्योछावर कर देते हैं। और इस देश के लोग कुछ दिनों बाद उनका नाम तक भूल जाते हैं। सरकार उनके नाम पर कभी पेट्रोल पम्प घोटाला तो कभी कोई और घोटाला करती रहती है। उन्हें ही शहीद कहा जाता है।
खैर , वो छोडिये पापा आप ये बताइए, की उन शहीदों को फांसी पर क्यूँ टांगा था और किसने टांगा था।
अरे बेटा उस वक्त अंग्रेजों का राज था, हमारे वे बांके लोग जो दीवानों की तरह देश को आजाद करवाने के लिए सर पर कफ़न बाँध कर घूम रहे थे उन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। जब अंगरेजी हुकूमत उनसे बुरी तरह डर गयी तो उन्होंने उन क्रांतिकारियों को पकड़ कर फांसी दे दी.
बेटा आश्चर्य में डूब कर बोला, अच्छा पापा बताओ ये क्या बात हुई भला। मैं सोच रहा हूँ की यदि उस वक्त यही अभी वाली सरकार होती तो क्या उन्हें कोई फांसी दे सकता था , पर हाँ दे भी सकता था यदि उन्हें फांसी से बचाया जा सकता था तो उसकी एक ही सूरत थी की वे भी आतंकवादी होते, तब जरूर ही हमारी सरकार उन्हें कुछ नहीं कहती।
नहीं बेटे , यदि वे आज जीवित होते तो ख़ुद ही फांसी के फंदे में झूल गए होते । और इस तरह मैंने और मेरे बेटे ने शहीद दिवस मन लिया.
शुक्रवार, 20 मार्च 2009
आईये मिलिए रुना देवी से
यूँ तो मैं पिछले न जाने कितने दिनों से या पोस्ट लिखने के बारे में सोच रहा था पर न जाने किस कारण से ये तय नहीं कर पा रहा था की ये ठीक होगा या नहीं, मगर आज ख़ुद को बिल्कुल नहीं रोक पाया। आज मैं आपको रुना देवी से मिलवाना चाहता हूँ। मुझे ये तो नहीं पता की आप में से कितने लोग रुना देवी को मिल चुके हैं मगर लगता है की शायद गौर से अपने आस पास देखेंगे तो एक न एक रुना देवी आपको भी द्किहायी दे जायेगी।
रुना देवी, रुना देवी बन्ने से पहले सिर्फ़ रुना थी, और रुना क्यों हम तो उसे शुरू से रुनिया कहते थे। जो गाओं में रहे हुए हैं या वाकिफ हैं वो जरूर जानते होंगे की किस तरह वहां मदन , मदनवा, भोला,भोलवा, रुना ,रुनिया, हो जाया करते हैं, खैर नाम में क्या धारा है। तो रुना अपने माता पिता के कुल छः संतानों में से पांचवें नंबर की बेटी थी। उसके बाद उससे छोटी एक और बहन थी। नहीं नहीं ऐसा नहीं था की वे सिर्फ़ बहेने ही बहनें थी उनका तीसरे नंबर पर ही एक भाई भी था, और यहाँ एक बात बताता चलूँ की मुझे आज तक नहीं समझ में आया की आख़िर पुत्र की चाहत वाले पुत्र पाने के बाद भी परिवार और देश पर बोझ क्यूँ बढाते हैं। तो रोते पीटते रुना देवी भी अन्य सभी बेटियों की तरह खटाक से बड़ी हो गयी, अजी बड़ी क्या हो गयी, बस इतनी हुई की उसकी शादी माँ बाप को टेंशन की तरह लगने लगी, जैसे तैसे , महज १६ वर्ष की उम्र में उसकी शादी पड़ोस के गाँव के लड़के के साथ कर दी गयी। रुना अब रुनिया से रुना देवी बन गयी थी। मैंने भी उसकी शादी के बारे में सुना था।
मगर इससे ज्यादा देर तक मेरे दिमाग में वो ख़बर रही थी जो मैंने उसकी शादी के लगभग डेढ़ वर्ष के बाद सूनी थी, पता चला की बंबई में उसके पति का निधन किसी गंदी बीमारी के कारण हो गया था। मुझे अंदाजा लगाते देर नहीं लगी की ड्राईवर को कौन सी गंदी बीमारी लगी होगी। खैर डरते डराते किसी तरह उस तक ये संदेश भिजवाया की अपनी और अपने बच्चे की जांच करवा ले ताकि किसी अनहोनी की आशंका न रहे। खुदा का शुक्र था की सब कुछ ठीक निकला, माँ बेटे दोनों ही सुरक्षति थे। मगर ये क्या, शुक्र को शनि में बदलते देर नहीं लगी। एक दिन उसके पड़ोसी गैर कानूनी तरीके से कोई पेड़ काट रहे थे , पेड़ काटने के बाद वो एक बिजली के खंभे पर गिरा और रुना का तीन वर्ष का बच्चा , दस बच्चों में वो अकेला बच्चा था जो उस खंभे के नीचे आकर दब कर मृत्यु को प्राप्त हुआ । रुना कोमा में चली गयी। पूरे सात महीनो बाद जब होश आया तो पड़ोस के लोगों ने तब तक पूरे गाँव के प्यार और पुलिस के सहयोग से सारा मामला दबा दिया था ।
पिछले ग्राम प्रवास के दौरान मुझे ये सब कुछ पता चला और मैं अब अपने स्तर पर इस मुद्दे को देखने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं ये तो नहीं जानता की मैं रुना देवी को दोबारा रुनिया बना पाउँगा कि नहीं मगर इतना यकीन हैं उसके साथ हुई नाइंसाफी के लिए जरूर लडूंगा। मगर मुझे यकीन हो गया है कि अब भी कुछ नहीं बदला है लेकिन विश्वास है कि एक न एक दिन जरूर बदलेगा.
रुना देवी, रुना देवी बन्ने से पहले सिर्फ़ रुना थी, और रुना क्यों हम तो उसे शुरू से रुनिया कहते थे। जो गाओं में रहे हुए हैं या वाकिफ हैं वो जरूर जानते होंगे की किस तरह वहां मदन , मदनवा, भोला,भोलवा, रुना ,रुनिया, हो जाया करते हैं, खैर नाम में क्या धारा है। तो रुना अपने माता पिता के कुल छः संतानों में से पांचवें नंबर की बेटी थी। उसके बाद उससे छोटी एक और बहन थी। नहीं नहीं ऐसा नहीं था की वे सिर्फ़ बहेने ही बहनें थी उनका तीसरे नंबर पर ही एक भाई भी था, और यहाँ एक बात बताता चलूँ की मुझे आज तक नहीं समझ में आया की आख़िर पुत्र की चाहत वाले पुत्र पाने के बाद भी परिवार और देश पर बोझ क्यूँ बढाते हैं। तो रोते पीटते रुना देवी भी अन्य सभी बेटियों की तरह खटाक से बड़ी हो गयी, अजी बड़ी क्या हो गयी, बस इतनी हुई की उसकी शादी माँ बाप को टेंशन की तरह लगने लगी, जैसे तैसे , महज १६ वर्ष की उम्र में उसकी शादी पड़ोस के गाँव के लड़के के साथ कर दी गयी। रुना अब रुनिया से रुना देवी बन गयी थी। मैंने भी उसकी शादी के बारे में सुना था।
मगर इससे ज्यादा देर तक मेरे दिमाग में वो ख़बर रही थी जो मैंने उसकी शादी के लगभग डेढ़ वर्ष के बाद सूनी थी, पता चला की बंबई में उसके पति का निधन किसी गंदी बीमारी के कारण हो गया था। मुझे अंदाजा लगाते देर नहीं लगी की ड्राईवर को कौन सी गंदी बीमारी लगी होगी। खैर डरते डराते किसी तरह उस तक ये संदेश भिजवाया की अपनी और अपने बच्चे की जांच करवा ले ताकि किसी अनहोनी की आशंका न रहे। खुदा का शुक्र था की सब कुछ ठीक निकला, माँ बेटे दोनों ही सुरक्षति थे। मगर ये क्या, शुक्र को शनि में बदलते देर नहीं लगी। एक दिन उसके पड़ोसी गैर कानूनी तरीके से कोई पेड़ काट रहे थे , पेड़ काटने के बाद वो एक बिजली के खंभे पर गिरा और रुना का तीन वर्ष का बच्चा , दस बच्चों में वो अकेला बच्चा था जो उस खंभे के नीचे आकर दब कर मृत्यु को प्राप्त हुआ । रुना कोमा में चली गयी। पूरे सात महीनो बाद जब होश आया तो पड़ोस के लोगों ने तब तक पूरे गाँव के प्यार और पुलिस के सहयोग से सारा मामला दबा दिया था ।
पिछले ग्राम प्रवास के दौरान मुझे ये सब कुछ पता चला और मैं अब अपने स्तर पर इस मुद्दे को देखने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं ये तो नहीं जानता की मैं रुना देवी को दोबारा रुनिया बना पाउँगा कि नहीं मगर इतना यकीन हैं उसके साथ हुई नाइंसाफी के लिए जरूर लडूंगा। मगर मुझे यकीन हो गया है कि अब भी कुछ नहीं बदला है लेकिन विश्वास है कि एक न एक दिन जरूर बदलेगा.
मंगलवार, 17 मार्च 2009
भैया ये ब्लॉग डे भी आने वाला है क्या ?
भैया ये ब्लॉग डे भी आने वाला है क्या ?:-
जी हाँ ! हो सकता है की आप मेरा ये प्रश्न सुन कर आश्यार्यचाकित रह गए हों, मगर यकीन मानें इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं है। दरअसल हर दो तीन दिन में देखता हूँ कि कोई न कोई दिवस आ जाता है और मुझ जैसा बेचारा ब्लॉगर जो रात में बैठ कर कैफे में अपना नंबर आने पर कुछ लिख पाता है उसको तो जब तक दिवस का पता चलता है तब तक तक उस दिवस को बीते कई दिवस बीत जाते हैं। खैर, इस प्रश्न को यहाँ आप लोगों से पूछने kee मेरी मंशा इसलिए भी थी क्योंकि आज कल हर तरफ़ यही चर्चा है कि आई पी एल जरूरी है या कि आम चुनाव। सभी इसी पशोपेश में पड़े हुए हैं, तो ऐसे में यदि ब्लॉग डे भी पड़ गया तो ये तो काफी मुश्किल वाली बात हो जायेगी।
वैसे यदि अभी तक कोई ब्लॉग डे तय नहीं हुआ है तो मेरा ख्याल है कि हमें जल्दी जल्दी से आगे आकर एक ब्लॉग दिवस की घोषणा कर देनी चाहिए, कम से कम हिन्दी ब्लॉग डे तो हम घोषित कर ही सकते हैं। और इसके लिए हमें ज्यादा कुछ करने की जरूरत भी नहीं रहेगी। खूब जोर शोर से अपने भोले भले मीडिया के सहारे इस बात का प्रचार प्रसार, कुछ anonymous टाईप जोरदार विरोध करने वाले बंधू (क्योंकि हमारा बलोग डे बिना इनके विरोध और विध्वंसकारी बयां के सफल नहीं हो पायेगा )और कुछ हम जैसे वेल्ल ब्लॉगर जो ऐसे सभी दिवसों पर न जाने कितने वर्षों से एक ही बातें घसीटे जारहे हैं और ख़ुद भी घिसट रहे हैं । तो हे प्रभु लोगों, हे बड़े ब्लोग्गरों , हे ब्लॉग अद्दिक्तों, और जितने भी तरह के चिट्ठेकार हैं सबसे यही अनुरोध है कि कृपया मुझे नाचीज को भी थोडा मौका दें.
डाक्टर प्रोफेसर चुनाव में ,अब देश की तकदीर जरूर बदलेगी :-
मेरी न जाने कब से ये दिल्ली तमन्ना थी , सच कहूँ तो जब से पहली बार मैंने अपने चाचा जी की जगह जाकर बोगस वोट डाला था तभी से, कि अपना वोट किसी अच्छे , पढ़े लिखे, विद्वान् के खाते में दाल सकूँ। इतना लंबा समय बीत गया कि अब तो मैं अपने खाते के वोट भी कई बार दाल चुका हूँ मगर कमबख्त तलाश अभी भी नहीं ख़त्म नहीं हुई है। लेकिन इस बार ऐसा लगता है कि जरूर ही कोई न कोई करिश्मा होने वाला है। अब ये ओबामा के कारण हो रहा है या किसी और कारण से ये तो पता नहीं मगर सुना है कि इस बार चुनाव में प्रोफेसर और डाक्टर भी हमारे सच्चे प्रतिनिधि बनकर हमारे सामने आ रहे हैं हैं। क्या कह रहे हैं आपको नहीं पता। लीजिये डाक्टर के रूप में तो वही अपने मुन्ना भाई ऍम बी बी एस , अपनी नयी चिकित्सा तकनीक झप्पी थेरापी के साथ आपकी सेवा में आयेंगे। लेकिन इससे भी ज्यादा खुशी तो इस बात की है कि अपने महान प्रोफेसर बटुकनाथ (अजी वही साहसी प्रोफेसर जिन्होंने अपनी एक शिक्छार्थी को ब्रह्मचर्य आश्रम से गृहस्थ आश्रम का दिव्या ज्ञान भी करवा दिया ) जी भी चुनाव मैदान में हैं, सुना है कि उन्होंने चुनाव चिन्ह के रूप में दिल की मांग की है । तो इस बार निस्संदेह कुछ बहुत बड़ा परिवर्तन होगा भारतीय लोकतंत्र में, शायद ओबामा से भी बड़ा।
यार ई फालू करने का क्या फंडा है :-
हमसे मित्र चिटठा सिंग ने पूछा कि भैया ई फालू(फालो ) करने का क्या फंडा है । हमने कहा कि हमें क्या पता भैया । काफी विचार विमर्श करने के बाद के बाद एक सूत्र विकसित किया गया, आप भी नोश फ़रमाएँ।
आओ हम तुम,, कुछ ऐसी प्रथा चालु करें,
तुम हमें ,हम तुम्हें फालू करें.....
और देखिये हमने इस सूत्र vaakya को पकड़ कर सब शुरू भी कर दिया मगर हम फालू करते रहे और वे शोर्टकट से निकल कर हमें लात मार कर छोड़ गए। फ़िर भी हम हैं कि गाये जा रहे हैं जय हो जय , रिंग रिंग रिंगा रिंग रिंग रिंगा
जी हाँ ! हो सकता है की आप मेरा ये प्रश्न सुन कर आश्यार्यचाकित रह गए हों, मगर यकीन मानें इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं है। दरअसल हर दो तीन दिन में देखता हूँ कि कोई न कोई दिवस आ जाता है और मुझ जैसा बेचारा ब्लॉगर जो रात में बैठ कर कैफे में अपना नंबर आने पर कुछ लिख पाता है उसको तो जब तक दिवस का पता चलता है तब तक तक उस दिवस को बीते कई दिवस बीत जाते हैं। खैर, इस प्रश्न को यहाँ आप लोगों से पूछने kee मेरी मंशा इसलिए भी थी क्योंकि आज कल हर तरफ़ यही चर्चा है कि आई पी एल जरूरी है या कि आम चुनाव। सभी इसी पशोपेश में पड़े हुए हैं, तो ऐसे में यदि ब्लॉग डे भी पड़ गया तो ये तो काफी मुश्किल वाली बात हो जायेगी।
वैसे यदि अभी तक कोई ब्लॉग डे तय नहीं हुआ है तो मेरा ख्याल है कि हमें जल्दी जल्दी से आगे आकर एक ब्लॉग दिवस की घोषणा कर देनी चाहिए, कम से कम हिन्दी ब्लॉग डे तो हम घोषित कर ही सकते हैं। और इसके लिए हमें ज्यादा कुछ करने की जरूरत भी नहीं रहेगी। खूब जोर शोर से अपने भोले भले मीडिया के सहारे इस बात का प्रचार प्रसार, कुछ anonymous टाईप जोरदार विरोध करने वाले बंधू (क्योंकि हमारा बलोग डे बिना इनके विरोध और विध्वंसकारी बयां के सफल नहीं हो पायेगा )और कुछ हम जैसे वेल्ल ब्लॉगर जो ऐसे सभी दिवसों पर न जाने कितने वर्षों से एक ही बातें घसीटे जारहे हैं और ख़ुद भी घिसट रहे हैं । तो हे प्रभु लोगों, हे बड़े ब्लोग्गरों , हे ब्लॉग अद्दिक्तों, और जितने भी तरह के चिट्ठेकार हैं सबसे यही अनुरोध है कि कृपया मुझे नाचीज को भी थोडा मौका दें.
डाक्टर प्रोफेसर चुनाव में ,अब देश की तकदीर जरूर बदलेगी :-
मेरी न जाने कब से ये दिल्ली तमन्ना थी , सच कहूँ तो जब से पहली बार मैंने अपने चाचा जी की जगह जाकर बोगस वोट डाला था तभी से, कि अपना वोट किसी अच्छे , पढ़े लिखे, विद्वान् के खाते में दाल सकूँ। इतना लंबा समय बीत गया कि अब तो मैं अपने खाते के वोट भी कई बार दाल चुका हूँ मगर कमबख्त तलाश अभी भी नहीं ख़त्म नहीं हुई है। लेकिन इस बार ऐसा लगता है कि जरूर ही कोई न कोई करिश्मा होने वाला है। अब ये ओबामा के कारण हो रहा है या किसी और कारण से ये तो पता नहीं मगर सुना है कि इस बार चुनाव में प्रोफेसर और डाक्टर भी हमारे सच्चे प्रतिनिधि बनकर हमारे सामने आ रहे हैं हैं। क्या कह रहे हैं आपको नहीं पता। लीजिये डाक्टर के रूप में तो वही अपने मुन्ना भाई ऍम बी बी एस , अपनी नयी चिकित्सा तकनीक झप्पी थेरापी के साथ आपकी सेवा में आयेंगे। लेकिन इससे भी ज्यादा खुशी तो इस बात की है कि अपने महान प्रोफेसर बटुकनाथ (अजी वही साहसी प्रोफेसर जिन्होंने अपनी एक शिक्छार्थी को ब्रह्मचर्य आश्रम से गृहस्थ आश्रम का दिव्या ज्ञान भी करवा दिया ) जी भी चुनाव मैदान में हैं, सुना है कि उन्होंने चुनाव चिन्ह के रूप में दिल की मांग की है । तो इस बार निस्संदेह कुछ बहुत बड़ा परिवर्तन होगा भारतीय लोकतंत्र में, शायद ओबामा से भी बड़ा।
यार ई फालू करने का क्या फंडा है :-
हमसे मित्र चिटठा सिंग ने पूछा कि भैया ई फालू(फालो ) करने का क्या फंडा है । हमने कहा कि हमें क्या पता भैया । काफी विचार विमर्श करने के बाद के बाद एक सूत्र विकसित किया गया, आप भी नोश फ़रमाएँ।
आओ हम तुम,, कुछ ऐसी प्रथा चालु करें,
तुम हमें ,हम तुम्हें फालू करें.....
और देखिये हमने इस सूत्र vaakya को पकड़ कर सब शुरू भी कर दिया मगर हम फालू करते रहे और वे शोर्टकट से निकल कर हमें लात मार कर छोड़ गए। फ़िर भी हम हैं कि गाये जा रहे हैं जय हो जय , रिंग रिंग रिंगा रिंग रिंग रिंगा
मंगलवार, 10 मार्च 2009
अब होली नहीं है ,अब तो बुरा मानिए- होली बीतने पर एक हुलहुलाती चर्चा
जी हाँ आज कल तो यही बहस का विषय बन गया है की यार होली है तो क्या हुआ , थोड़ा बहुत बुरा तो माना जा ही सकता है। और फ़िर अब तो आलम ये है की चाहे कुछ माने या न माने मगर बुरा मानना तो हमारा प्रजातान्त्रिक अधिकार है। सुना है की बुरा मानने के अधिकार को लेकर आने वाली सरकार कोई विधेयक भी लाने वाली है। सरकार पर ध्यान आया, की पिछले दिनों चल रही धपर धापर के बीच ही होली आ गयी सो कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर हुलहुलाती सी चर्चा संपन्न हुई। किनके किनके बीच , इस पाक कोपी राईट है इसलिए नहीं बता सकता।
पब्लिक को एक साथ दो फंक्शन का मजा , आई पी एल और आई जी ई :-
जी हाँ ऐसा किसी भी देश में पहली बार होने जा रहा है की लोगों को अजी, आम लोगों को सरे आम एक साथ दो बड़े बड़े मजेदार, सेंसेशनल, रोचक, लजीज, चकाचक, रंगीन फंक्शन देखने को मिलेंगे। पहला तो अपना वही २० - २० वाला आई पी एल मगर दूसरा तो इससे भी मजेदार आई जी ई। अजी अब भी नहीं समझे इंडियन जनरल इलेक्शन । अब देखना ये है की कौन सा फंक्शन इस बार ज्यादा मनोरंजन वाला होता है। हालाँकि सरकार ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है की दोनों में से कोई भी एक दूसरे से क्लैश न कर सके और पब्लिक दोनों का मजा उठा सके। वैसे सबसे ज्यादा जिम्मेदारी तो बेचारे अभिनेताओं के लिए बढ़ गयी है, जिनकी डिमांड दोनों ही फंक्शन्स में बहुत ज्यादा है। तो हे देश वासियों तैयार हो जाओ डबल मजा लेने के लिए।
प्रधान मंत्री पद की सूची में हिमेश रेशमियां का नाम भी आया :-
जिन्हें मेरी तरह ही भारतीय लोकतंत्र की मजबूती पर पका भरोसा है और जनादेश का पूरा सम्मान वे करते हैं, मुझे पुरा यकीन है की उन्हें ये ख़बर पढ़ कर बिल्कुल भी नहीं चौन्कायेगी। यार इस बार तो ये चुनाव सिर्फ़ उनके लिए ही रह गए हैं जो या तो अपराधी हैं या अभिनेता। यदि आपकी कुआलिफिकेशन दोनों में ही है तो फ़िर तो समझिये की बड़े से लेकर राम सेना तक की तरफ़ से टिकट का ऑफ़र आपको मिल सकता है। और यहाँ कमाल देखिये की अपने सारे अभिनेता और फिल्मी शिल्मी लोग, कोई शिकार करके, तो कोई एक्सीडेंट करके, कोई धोखाधड़ी में तो कोई किसी और विशेष कार्य में संलिप्त होकर वो अपराध वाली कैटेगरी को कम्प्लीट
कर ही लेते हैं। ऐसे में इनकी डिमांड तो स्वाभाविक रूप से बढ़ ही जाती है। रही बात हिमेश रेशमियां की तो हुआ ये की रहमान साहाब ने ऑस्कर पुरूस्कार जीत कर अपना फर्ज अदा कर दिया। सो हिमेश भाई का कहना है की अब उनका ये फर्ज बँटा है की एक बार प्रधानमंत्री बन कर वो भी अपना कर्ज उतारें। हालाँकि उनका मानना है की नाक गायन के अनोखे आविष्कार के लिए देर सवेर उन्हें भी कोई अंतर्राष्ट्रीय पुरूस्कार तो मिल ही जायेगा, किंतु चूँकि वे न सिर्फ़ संगीतज्ञ हैं बल्कि हीरो, प्रोडूसर, डाईरेक्टर , और पता नहीं क्या क्या हैं, इसलिए देश के प्रति उनकी जिम्मेदारी और ज्यादा बढ़ जाती है।
सवाल ये है कि बापू की स्टेश्नरी, दारू के पैसे से आयी या कि किंग फिशर एयर लाईन्स के ? :-
देश में जहाँ इस बात की चर्चा हो रही है कि बापू की चीजें, कटोरी, चश्मा, और भी काफी कुछ देश में आखिरकार आ ही गया , वहीं दूसरी तरफ़ ये चर्चा जोर पकड़ती जा रही है कि नीलामी के लिए जो पैसे माल्या साहब ने वहां भेजे थे वे दारु की कमाई के थे या कि वो जो दूसरी कंपनी है राजा की मछली वाली ( दरअसल ये नाम मुझे मित्र चिटठा सिंग ने बताया कि यार सुना है माल्या ने दारु और मछली का पैसा लगाकर बापू की चीजें खरीदीं। अब दारू का तो मुझे भी पता था मगर मछली वाली बात से जब चौंका तो उन्होंने ही खुल कर बताया कि यार वो है न दूसरी कंपनी राजा की मछली हवाई जहाज कंपनी किंग फिशर एयर लाईन्स । और मेरे मुंह से सिर्फ़ इतना निकला सत्यानाश ।)
वैसे सुना ये है कि माल्या साहब के काम को देखते हुए कुछ और सुरा कंपनियों ने सरकार से मांग की है कि हमें अभी गांधी जी के वार्डरोब का काफी कुछ वापस लाना है सो दारु को खुल्लम खुल्ला छोट देनी चाहिए। मगर माल्या साहब तो कह रहे है कि मैंने तो ये पैसे उन एरलाईन्स स्टाफ्फ के जी पी ऍफ़, पेंसन वैगेरह से इक्कठा करके भेजा था जिन्हें ;पिछले दिनों मंदी के नाम पर हमने चुपके से लात मार मार कर बाहर निकाल दिया था।
तो भैया इतना सब कुछ झटपट , घट रहा है तो फ़िर क्यों न कोई बुरा माने, होली हो या दिवाली. वैसे भी अब तो होली जा चुकी है इसलिए बुरा मानिये , प्लीज मानिए न !
पब्लिक को एक साथ दो फंक्शन का मजा , आई पी एल और आई जी ई :-
जी हाँ ऐसा किसी भी देश में पहली बार होने जा रहा है की लोगों को अजी, आम लोगों को सरे आम एक साथ दो बड़े बड़े मजेदार, सेंसेशनल, रोचक, लजीज, चकाचक, रंगीन फंक्शन देखने को मिलेंगे। पहला तो अपना वही २० - २० वाला आई पी एल मगर दूसरा तो इससे भी मजेदार आई जी ई। अजी अब भी नहीं समझे इंडियन जनरल इलेक्शन । अब देखना ये है की कौन सा फंक्शन इस बार ज्यादा मनोरंजन वाला होता है। हालाँकि सरकार ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है की दोनों में से कोई भी एक दूसरे से क्लैश न कर सके और पब्लिक दोनों का मजा उठा सके। वैसे सबसे ज्यादा जिम्मेदारी तो बेचारे अभिनेताओं के लिए बढ़ गयी है, जिनकी डिमांड दोनों ही फंक्शन्स में बहुत ज्यादा है। तो हे देश वासियों तैयार हो जाओ डबल मजा लेने के लिए।
प्रधान मंत्री पद की सूची में हिमेश रेशमियां का नाम भी आया :-
जिन्हें मेरी तरह ही भारतीय लोकतंत्र की मजबूती पर पका भरोसा है और जनादेश का पूरा सम्मान वे करते हैं, मुझे पुरा यकीन है की उन्हें ये ख़बर पढ़ कर बिल्कुल भी नहीं चौन्कायेगी। यार इस बार तो ये चुनाव सिर्फ़ उनके लिए ही रह गए हैं जो या तो अपराधी हैं या अभिनेता। यदि आपकी कुआलिफिकेशन दोनों में ही है तो फ़िर तो समझिये की बड़े से लेकर राम सेना तक की तरफ़ से टिकट का ऑफ़र आपको मिल सकता है। और यहाँ कमाल देखिये की अपने सारे अभिनेता और फिल्मी शिल्मी लोग, कोई शिकार करके, तो कोई एक्सीडेंट करके, कोई धोखाधड़ी में तो कोई किसी और विशेष कार्य में संलिप्त होकर वो अपराध वाली कैटेगरी को कम्प्लीट
कर ही लेते हैं। ऐसे में इनकी डिमांड तो स्वाभाविक रूप से बढ़ ही जाती है। रही बात हिमेश रेशमियां की तो हुआ ये की रहमान साहाब ने ऑस्कर पुरूस्कार जीत कर अपना फर्ज अदा कर दिया। सो हिमेश भाई का कहना है की अब उनका ये फर्ज बँटा है की एक बार प्रधानमंत्री बन कर वो भी अपना कर्ज उतारें। हालाँकि उनका मानना है की नाक गायन के अनोखे आविष्कार के लिए देर सवेर उन्हें भी कोई अंतर्राष्ट्रीय पुरूस्कार तो मिल ही जायेगा, किंतु चूँकि वे न सिर्फ़ संगीतज्ञ हैं बल्कि हीरो, प्रोडूसर, डाईरेक्टर , और पता नहीं क्या क्या हैं, इसलिए देश के प्रति उनकी जिम्मेदारी और ज्यादा बढ़ जाती है।
सवाल ये है कि बापू की स्टेश्नरी, दारू के पैसे से आयी या कि किंग फिशर एयर लाईन्स के ? :-
देश में जहाँ इस बात की चर्चा हो रही है कि बापू की चीजें, कटोरी, चश्मा, और भी काफी कुछ देश में आखिरकार आ ही गया , वहीं दूसरी तरफ़ ये चर्चा जोर पकड़ती जा रही है कि नीलामी के लिए जो पैसे माल्या साहब ने वहां भेजे थे वे दारु की कमाई के थे या कि वो जो दूसरी कंपनी है राजा की मछली वाली ( दरअसल ये नाम मुझे मित्र चिटठा सिंग ने बताया कि यार सुना है माल्या ने दारु और मछली का पैसा लगाकर बापू की चीजें खरीदीं। अब दारू का तो मुझे भी पता था मगर मछली वाली बात से जब चौंका तो उन्होंने ही खुल कर बताया कि यार वो है न दूसरी कंपनी राजा की मछली हवाई जहाज कंपनी किंग फिशर एयर लाईन्स । और मेरे मुंह से सिर्फ़ इतना निकला सत्यानाश ।)
वैसे सुना ये है कि माल्या साहब के काम को देखते हुए कुछ और सुरा कंपनियों ने सरकार से मांग की है कि हमें अभी गांधी जी के वार्डरोब का काफी कुछ वापस लाना है सो दारु को खुल्लम खुल्ला छोट देनी चाहिए। मगर माल्या साहब तो कह रहे है कि मैंने तो ये पैसे उन एरलाईन्स स्टाफ्फ के जी पी ऍफ़, पेंसन वैगेरह से इक्कठा करके भेजा था जिन्हें ;पिछले दिनों मंदी के नाम पर हमने चुपके से लात मार मार कर बाहर निकाल दिया था।
तो भैया इतना सब कुछ झटपट , घट रहा है तो फ़िर क्यों न कोई बुरा माने, होली हो या दिवाली. वैसे भी अब तो होली जा चुकी है इसलिए बुरा मानिये , प्लीज मानिए न !
सोमवार, 9 मार्च 2009
क्या होली अब भी मनाते हो ?
क्या होली अब भी मनाते हो ?
या की वो अब सिर्फ़,
बन गया है छुट्टी का एक दिन॥
संदोक से पुराने कपड़े,
निकाल कर उन्हें गंदा,
करने को , और फटने को भी,
तैयार करते हो क्या,
या की अब सिर्फ़ देखते हो टी वे पर,
चाँद पिक्चरें और,
सुनते हो होली के कुछ गीत॥
रंगों की बाल्टी , पिचकारी की धार,
भांग की ठंडाई से सराबोर,
होता है क्या अब भी आँगन,
या की चाँद दोस्तों के साथ,
बैठ कर खुलती हैं बोतलें,
जिनमें डूब जाते हैं ,
होली के सारे रंग॥
बुरा न मानो होली है, कह कर,
किसी राह चलते को रंग से पोत देते हो,
या की जान पहचान वालों को भी,
गुलाल न लगाने का मलाल रहता है ,
क्योंकि वे भी तो होली नहीं खेलते ?
खैर फ़िर भी आपको और सबको होली की बहुत बहुत शुभकामनायें.
रविवार, 8 मार्च 2009
आज मैं ऊपर, क्या सचमुच ?
(टाईम्स ऑफ इंडिया से साभार )
हाँ भाई, आज तो अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है सो सबके कदम ऊपर होंगे ही। वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय दिवस के मौके पर कम से कम दिल्ली , मुंबई जैसे महानगरों में तो महिला दिवस की धूम जरूर दिखाई देती ही है। मैं यहाँ इस बहस में बिल्कुल नहीं पढ़ना चाहता की किसी विशेष दिवस या सप्ताह मनाने या नहीं मनाने से क्या फर्क पड़ता और क्या नहीं पड़ता है। बस इतना कहना चाहता हूँ की इसमें कोई बुराई तो नहीं ही है, हाँ यदि इस दिवस का कुछ और भी सार्थक उपयोग हो सके तो जरूर ही एक ऐसा समय भी आयेगा की जब ये महिला दिवस शहर से निकल कर गावों में पहुँच जायेगा।
हालाँकि ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है की महिलाओं की स्थिति , उनके ओहदे, उनकी शक्ति और उनके सामाजिक स्टार में कोई भी बदलाव नहीं आया है। बदलाव तो ऐसा आया है की अब तो ये एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गया है। मगर न जाने क्यों आज इस महिला दिवस पर न चाहते हुए भी मुझे दो घटनाएं जरूर ही याद आ रही हैं। पहली कुछ समय पहले की है। देश की पहली महिला आई पी एस अधिकारी, जिसे पुरे विश्व में सम्मान की नजरों से देखा जाता है उन्हें जबरन न जाने किन कारणों से दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नहीं बन्ने दिया गया। और दुःख की बात ये है की ऐसा तब हुआ, जब राष्ट्रपति के पद पर , दिल्ली के मुख्यमंत्री के पद पर और शाशन करने वाली पार्टी के सबसे ताकात्वर ओहदे पर महिलाएं ही बैठी हुई थी। पूरा देश चुपचाप तमाशा देखता रहा। स्वयं महिला जगत ने इस पर कोई मुखर विरोध नहीं दर्ज कार्या। दूसरी घटना थी मंगलोर के पब में कुछ लोगों द्वारा लड़कियों और महिलों के बेरहमी से पिटाई। हालाँकि में कभी महिलाओं के किसी भी ऐसे कदम , जो बेशक उन्हें आधुनिकता का एहसास दिलाते हों, के पक्ष में कभी भी नहीं रहा जो उन्हें उनकी प्राकृतिक महिला संवेदनाओं को चकनाचूर कर देता है। फ़िर चाहे वो फैशन हो, चाहे किसी भी तरह का नशा करने की बात हो या फ़िर लिव इन रीलेसहनशिप जैसी बातें हों। मगर किसी भी परिस्थिति में ये सारे फैसले निश्चित और सिर्फ़ और सिर्फ़ स्वयं महिलाओं को ही लेने का हक़ है।
मुझे यकीन हैं की यदि मेरे संस्कार मेरी पत्नी, मेरी बहन, मेरी बेटी को सब कुछ समझा देते हैं तो वो स्वयं ही अपने निर्णय लेने में सक्षम होंगी। मगर किसी भी हालत में मैं ऐसा कभी नहीं चाहूँगा की मुझे अपना निर्णय उन पर थोपने की नौबत आए। जहाँ तक महिला दिवस की बात है तो इतना तो तय है की ये सारे दिवस , दिन सप्ताह, महीने, इन महानगरों की सीमाओं तक जाते जाते दम तोड़ देते हैं। जिस दिन मेरे घर पर काम करने वाली मेरी बूढी काम वाली अम्मा को महिला दिवस समझ आयेगा, उस दिन मुझे ये दिवस ज्यादा पसंद आयेगा। खैर फ़िर भी सबको महिला दिवस की ढेरों शुभकामनायें.
हाँ भाई, आज तो अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है सो सबके कदम ऊपर होंगे ही। वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय दिवस के मौके पर कम से कम दिल्ली , मुंबई जैसे महानगरों में तो महिला दिवस की धूम जरूर दिखाई देती ही है। मैं यहाँ इस बहस में बिल्कुल नहीं पढ़ना चाहता की किसी विशेष दिवस या सप्ताह मनाने या नहीं मनाने से क्या फर्क पड़ता और क्या नहीं पड़ता है। बस इतना कहना चाहता हूँ की इसमें कोई बुराई तो नहीं ही है, हाँ यदि इस दिवस का कुछ और भी सार्थक उपयोग हो सके तो जरूर ही एक ऐसा समय भी आयेगा की जब ये महिला दिवस शहर से निकल कर गावों में पहुँच जायेगा।
हालाँकि ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है की महिलाओं की स्थिति , उनके ओहदे, उनकी शक्ति और उनके सामाजिक स्टार में कोई भी बदलाव नहीं आया है। बदलाव तो ऐसा आया है की अब तो ये एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गया है। मगर न जाने क्यों आज इस महिला दिवस पर न चाहते हुए भी मुझे दो घटनाएं जरूर ही याद आ रही हैं। पहली कुछ समय पहले की है। देश की पहली महिला आई पी एस अधिकारी, जिसे पुरे विश्व में सम्मान की नजरों से देखा जाता है उन्हें जबरन न जाने किन कारणों से दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नहीं बन्ने दिया गया। और दुःख की बात ये है की ऐसा तब हुआ, जब राष्ट्रपति के पद पर , दिल्ली के मुख्यमंत्री के पद पर और शाशन करने वाली पार्टी के सबसे ताकात्वर ओहदे पर महिलाएं ही बैठी हुई थी। पूरा देश चुपचाप तमाशा देखता रहा। स्वयं महिला जगत ने इस पर कोई मुखर विरोध नहीं दर्ज कार्या। दूसरी घटना थी मंगलोर के पब में कुछ लोगों द्वारा लड़कियों और महिलों के बेरहमी से पिटाई। हालाँकि में कभी महिलाओं के किसी भी ऐसे कदम , जो बेशक उन्हें आधुनिकता का एहसास दिलाते हों, के पक्ष में कभी भी नहीं रहा जो उन्हें उनकी प्राकृतिक महिला संवेदनाओं को चकनाचूर कर देता है। फ़िर चाहे वो फैशन हो, चाहे किसी भी तरह का नशा करने की बात हो या फ़िर लिव इन रीलेसहनशिप जैसी बातें हों। मगर किसी भी परिस्थिति में ये सारे फैसले निश्चित और सिर्फ़ और सिर्फ़ स्वयं महिलाओं को ही लेने का हक़ है।
मुझे यकीन हैं की यदि मेरे संस्कार मेरी पत्नी, मेरी बहन, मेरी बेटी को सब कुछ समझा देते हैं तो वो स्वयं ही अपने निर्णय लेने में सक्षम होंगी। मगर किसी भी हालत में मैं ऐसा कभी नहीं चाहूँगा की मुझे अपना निर्णय उन पर थोपने की नौबत आए। जहाँ तक महिला दिवस की बात है तो इतना तो तय है की ये सारे दिवस , दिन सप्ताह, महीने, इन महानगरों की सीमाओं तक जाते जाते दम तोड़ देते हैं। जिस दिन मेरे घर पर काम करने वाली मेरी बूढी काम वाली अम्मा को महिला दिवस समझ आयेगा, उस दिन मुझे ये दिवस ज्यादा पसंद आयेगा। खैर फ़िर भी सबको महिला दिवस की ढेरों शुभकामनायें.