मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

आप हिन्दी में ब्लॉग्गिंग कर रहे हैं तो ख़ास हैं, और इस खासियत को समझें

जी हाँ, मैं पूरे संजीदगी से ये बात कह रहा हूँ। आप शायद ये कहेंगे की ये क्या बात हुई भला और ये बात अभी यहाँ क्यों कह रहा हूँ। कारण तो है , वाजिब या गैरवाजिब ये तो नहीं जानता। दरअसल जितना थोडा सा अनुभव रहा है मेरा, उसमें मैंने यही अनुभव किया है की सब कुछ ठीक चलते रहने के बावजूद हिन्दी ब्लॉगजगत में अक्सर कुछ लोगों द्वारा चाहे अनचाहे किसी अनावश्यक मुद्दे पर एक बहस शुरू करने की परम्परा सी बंटी जा रही है। हलाँकि ऐसा हर बार नहीं होता और ऐसा भी जरूरी नहीं है की जो मुद्दा मुझे गैरजरूरी लग रहा है हो सकता है दूसरों की नजर में वो बेहद महत्वपूर्ण हो। मगर मेरा इशारा यहाँ इस बात की और है , की कभी एक दूसरे को नीचा, ओछा दिखने की होड़ में तो कभी किसी टिप्प्न्नी को लेकर, कभी किसी के विषय को लेकर कोई बात उछलती है या कहूँ की उछाली जाती है बस फ़िर तो जैसे सब के सब पड़ जाते हैं उसके पीछे , शोध , प्रतिशोध, चर्चा, बहस सबकुछ चलने लगता है और दुखद बात ये की इसमें ख़ुद को पड़ने से हम भी ख़ुद को नहीं बच्चा पाते, और फ़िर ये भी की क्या कभी किसी निष्कर्ष पर पहुँच पाते है ?

मुझे पता है यहाँ पर जो लोग इस दृष्टिकोण से देखते हैं की यदि ब्लॉग्गिंग में यही सब देखना और सोचना है तो फ़िर ब्लॉग्गिंग क्यों और भी तो माध्यम हैं न। मैं उन सब लोगों को बता दूँ और अच्छी तरह बता दूँ की आप सब जितने भी लोग हिन्दी और देवनागिरी लिपि का प्रयोग कर के लिख रहे हैं वे बहुत ख़ास हैं विशिष्ट हैं, सिर्फ़ इतने से ही जानिए न की करोड़ों हिन्दी भाषियों में से आप चंद उन लोगों में से हैं जो हिन्दी में लिख पा रहे हैं, और हाँ गए वो दिन जब आप अपने लिए लिखते थे। आपकी जानकारी के लिए बता दूँ आज कम से कम हरेक हिन्दी का अखबार हमारी लेखनी को पढ़ रहा है, उस पर नजर रखे हुए है, उसे छाप भी रहा है और हमारे आपके विचार समाचार पत्रों के माध्यमों से न जाने कितने लोगों तक पहुँच रहा है।

तो आपको और हमें ही ये सोचना है की हम अपनी लेखनी और शब्दों को इस बात के लिए जाया करें की
गाली का मनोविज्ञान कहाँ से शुरू होकर कहाँ तक पहुंचा या कुछ सार्थक सोचे और लिखें .............
यदि कुछ ज्यादा कह गया तो परिवार का सदस्य समझ कर क्षमा करें.

आप हिन्दी में ब्लॉग्गिंग कर रहे हैं तो ख़ास हैं, और इस खासियत को समझें

जी हाँ, मैं पूरे संजीदगी से ये बात कह रहा हूँ। आप शायद ये कहेंगे की ये क्या बात हुई भला और ये बात अभी यहाँ क्यों कह रहा हूँ। कारण तो है , वाजिब या गैरवाजिब ये तो नहीं जानता। दरअसल जितना थोडा सा अनुभव रहा है मेरा, उसमें मैंने यही अनुभव किया है की सब कुछ ठीक चलते रहने के बावजूद हिन्दी ब्लॉगजगत में अक्सर कुछ लोगों द्वारा चाहे अनचाहे किसी अनावश्यक मुद्दे पर एक बहस शुरू करने की परम्परा सी बंटी जा रही है। हलाँकि ऐसा हर बार नहीं होता और ऐसा भी जरूरी नहीं है की जो मुद्दा मुझे गैरजरूरी लग रहा है हो सकता है दूसरों की नजर में वो बेहद महत्वपूर्ण हो। मगर मेरा इशारा यहाँ इस बात की और है , की कभी एक दूसरे को नीचा, ओछा दिखने की होड़ में तो कभी किसी टिप्प्न्नी को लेकर, कभी किसी के विषय को लेकर कोई बात उछलती है या कहूँ की उछाली जाती है बस फ़िर तो जैसे सब के सब पड़ जाते हैं उसके पीछे , शोध , प्रतिशोध, चर्चा, बहस सबकुछ चलने लगता है और दुखद बात ये की इसमें ख़ुद को पड़ने से हम भी ख़ुद को नहीं बच्चा पाते, और फ़िर ये भी की क्या कभी किसी निष्कर्ष पर पहुँच पाते है ?

मुझे पता है यहाँ पर जो लोग इस दृष्टिकोण से देखते हैं की यदि ब्लॉग्गिंग में यही सब देखना और सोचना है तो फ़िर ब्लॉग्गिंग क्यों और भी तो माध्यम हैं न। मैं उन सब लोगों को बता दूँ और अच्छी तरह बता दूँ की आप सब जितने भी लोग हिन्दी और देवनागिरी लिपि का प्रयोग कर के लिख रहे हैं वे बहुत ख़ास हैं विशिष्ट हैं, सिर्फ़ इतने से ही जानिए न की करोड़ों हिन्दी भाषियों में से आप चंद उन लोगों में से हैं जो हिन्दी में लिख पा रहे हैं, और हाँ गए वो दिन जब आप अपने लिए लिखते थे। आपकी जानकारी के लिए बता दूँ आज कम से कम हरेक हिन्दी का अखबार हमारी लेखनी को पढ़ रहा है, उस पर नजर रखे हुए है, उसे छाप भी रहा है और हमारे आपके विचार समाचार पत्रों के माध्यमों से न जाने कितने लोगों तक पहुँच रहा है।

तो आपको और हमें ही ये सोचना है की हम अपनी लेखनी और शब्दों को इस बात के लिए जाया करें की
गाली का मनोविज्ञान कहाँ से शुरू होकर कहाँ तक पहुंचा या कुछ सार्थक सोचे और लिखें .............
यदि कुछ ज्यादा कह गया तो परिवार का सदस्य समझ कर क्षमा करें.

हसीना हसीन हुई , और बेगम हुई गमजदा

पड़ोसी देश बांग्लादेश में आम चुनाव सात साल के बाद हुए। इस बीच वहां क्या-क्या हुआ और होता रहा , कहने bataane kee जरूरत नहीं। इस बार भी चुनाव से ठीक पहले और बाद में भी दोनों प्रमुख दल अवामी लीग और बांग्लादेश नेस्नालिस्ट पार्टी, यही अंदेशा व्यक्त कर रहे थे की चुनाव परिणाम मनोनुकूल न रहे तो pooree चुनाव प्रक्रिया पर प्रश्न चिन्ह खडा कर देंगे। लेकिन लगता है की आम मतदाता ये नहीं चाहता था।

चुनाव परिणाम आए और ऐसे आए की शेख हसीना और भी हसीन होकर उभरी । दूसरी तरफ़ बेगम खालिदा जिया का जिया तोड़ते हुए आम लोगों ने उन्हें इस कदर हाशिये पर दाल दिया की वे बेगम न रह कर गमजदा बन कर रह गयी। अब जबकिशेख हसीना पूरे दमख़म और भारी जनमत से सरकार बनाएंगी तो उनसे यही अपेक्षा रहेगी की वे अपने वीजन २०२० (जिसमें युवाओं से २०२० तक देश में संचार क्रान्ति लाने का वादा किया गया था ) को पूरा करने के अलावा अपने पिता को पुनः बांग्लादेश का राष्ट्रपिता घोषित करना, गरीबी, बेरोजगारी आदि से निपटने के कारगर उपाय करेंगी। इन सब कामों के अलावा भारत के साथ पिछले दिनों आयी कड़वाहट भी घटेगी , हम तो यही उम्मीद करेंगे ।


हाँ, अंत में बेगम जिया के लिए भी एक सलाह हैआपका असली वोट बैंक तो हमारे यहाँ घुसपैठिया बन कर गया हैयहाँ पड़े पड़े ऐसे ऐसे कारनामों में लिप्त है कि क्या कहें. देखिये अब भी वक्त है आप इन्हें वापस ले जाएँ, वरना हमारी आदत आप नहीं जानतीहमारे किसी पारखी नेता ने इन्हें अपना वोट बैंक मान लिया तो बस कल से ही आन्दोलन शुरूइन्हें आरक्षण दो, नौकरी दो, घर दो, अल्पसंख्यक दर्जा दो, दोहरी नागरिकता दो, उफ़ हे भगवान्, नहीं नहीं आप तो अपना ये अनमोल खजाना वापस ही ले जाओ.

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

डायरी का एक पन्ना

अभी वर्षांत पर जबकि मन और मष्तिष्क दोनों ही बोझिल से हैं, और सच कहूँ तो बस इस साल के बीतने के इन्तजार में हैं, तो ऐसे में तो यही अच्छा लगा की जिस डायरी को मैं yun ही उलट रहा था उसके एक पन्ने पर उकेरे कुछ पंक्तियों को आपके सामने रख दूँ।

बसर हो यूँ की हर इक दर्द हादसा न लगे,
गुजर भी जाए कोई गम तो वाकया न लगे।
कभी न फूल से चेहरे पे गुर्दे यास जामे,
खुदा करे उसे इश्क की हवा न लगे॥
वो मेहरबान सा लगे इसकी कुछ करो तदबीर,
खफा भी हों आप तो खफा ना लगें॥

वो सर बुलंद रहा और खुद्पसंद रहा,
मैं सर झुकाए रहा और खुशामदों में रहा
मेरे अजीजों, यही दस्तूर है मकानों का,
बनाने वाला हमेशा बरामदों में रहा

मैं इन्तजार करूँगा आपका हर पल यारों,
आप आयेंगे, तभी मेरे रूह का दफ़न होगा,
हो सके हाथ में फूल के दस्ते नहीं , न सही,
खुदा के नाम पे , काँटों का तो कफ़न होगा॥

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किसका था,
वो रकीब न था तो वो नया नाम किसका था।
वो कत्ल करके मुझे हर किसी से पूछते हैं,
ये किसने किया, ये काम किसका था॥

कुछ इस तरह से सताया जिंदगी ने हमें,
हंस-हंस के रुलाया जिंदगी ने हमें,
मौत आवाज देती रही बार- बार,
न इक बार बुलाया जिंदगी ने हमें।

मैं नहीं जानता इन्हें किन लोगों ने लिखा, मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ की वे बड़े काबिल लोग होंगे..........

डायरी का एक पन्ना

अभी वर्षांत पर जबकि मन और मष्तिष्क दोनों ही बोझिल से हैं, और सच कहूँ तो बस इस साल के बीतने के इन्तजार में हैं, तो ऐसे में तो यही अच्छा लगा की जिस डायरी को मैं yun ही उलट रहा था उसके एक पन्ने पर उकेरे कुछ पंक्तियों को आपके सामने रख दूँ।

बसर हो यूँ की हर इक दर्द हादसा न लगे,
गुजर भी जाए कोई गम तो वाकया न लगे।
कभी न फूल से चेहरे पे गुर्दे यास जामे,
खुदा करे उसे इश्क की हवा न लगे॥
वो मेहरबान सा लगे इसकी कुछ करो तदबीर,
खफा भी हों आप तो खफा ना लगें॥

वो सर बुलंद रहा और खुद्पसंद रहा,
मैं सर झुकाए रहा और खुशामदों में रहा
मेरे अजीजों, यही दस्तूर है मकानों का,
बनाने वाला हमेशा बरामदों में रहा

मैं इन्तजार करूँगा आपका हर पल यारों,
आप आयेंगे, तभी मेरे रूह का दफ़न होगा,
हो सके हाथ में फूल के दस्ते नहीं , न सही,
खुदा के नाम पे , काँटों का तो कफ़न होगा॥

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किसका था,
वो रकीब न था तो वो नया नाम किसका था।
वो कत्ल करके मुझे हर किसी से पूछते हैं,
ये किसने किया, ये काम किसका था॥

कुछ इस तरह से सताया जिंदगी ने हमें,
हंस-हंस के रुलाया जिंदगी ने हमें,
मौत आवाज देती रही बार- बार,
न इक बार बुलाया जिंदगी ने हमें।

मैं नहीं जानता इन्हें किन लोगों ने लिखा, मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ की वे बड़े काबिल लोग होंगे..........

विकास बनाम विध्वंस - तय ख़ुद हमें करना है

आज विश्व समाज जिस दो raahe पर खड़ा है उसमें दो ही खेमे स्पष्ट दिख रहे हैं। पहला वो जो किसी भी कारण से किसी ना किसी विध्वंसकारी घटना, प्रतिचातना, संघर्ष, आदि में लिप्त है । दूसरा वो जो विश्व के सभी अच्छे बुरे घटनाक्रमों , उतार चढाव , राजनितिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के साथ अपने विकास के रास्ते पर अपनी गति से बढ़ रहा है। आप ख़ुद ही देख सकते हैं कि , एक तरफ़, अमेरिका, इंग्लैंड, जापान। यूरोप, चीन, भारत, फ्रांस और कई छोटे बड़े देश अपनी अपनी शक्ति और संसाधनों तथा एक दूसरे के सहयोग से ख़ुद का और पूरे विश्व का भला और विकास करने में लगे हुए हैं। वहीँ एक दूसरा संसार जिसमें पाकिस्तान, इरान, अफगानिस्तान, कई अरब और अफ्रीकी देश, आदि जैसे देश हैं जो किसी न किसी रूप में अपने पड़ोसियों और एक हद तक पूरे विश्व के लिए अनेक तरह की परेशानियाओं का सबब बने हुए हैं। या कहें तो उनका मुख्या उद्देश्य ही अब ये बन गया है कि अपने नकारात्मक दृष्टिकोण और क्रियाकलापों से पूरे विश्व का ध्यान अपनी उर लगाये रखें ।

ये जरूर है कि जो देश बिना किसी अदावत के अपने विकास और निर्माण में लगे हैं , वे ही आज दूसरे विश्व जो कि विध्वंसकारी रुख अपनाए हुए हैं, उनके निशाने पर हैं, कभी आतंकवादी हमलों, तो कभी अंदरूनी कलह के कारण से उनके पड़ोसी यही चाहते हैं कि किसी न किसी रूप में वे भी भटकाव का रास्ता पकड़ लें। लेकिन ये तो अब ख़ुद उस समाज को ही तय करना होगा कि उसे किस रास्ते पर चलना है, वर्तमान में जबकि भारत और पकिस्तान के बीच बेहद ख़राब रिश्तों की, या कहें कि युद्ध की स्थिति की बातें चल रही हैं तो ऐसे में तो ये प्रश् और भी महत्वपूर्ण हो जाता है । क्योंकि इतना तो तय है कि आप एक साथ चाँद पर कदम रखने और दुश्मनों के साथ युद्ध में उलझने का काम नहीं कर सकते, खासकर तब तो जरूर ही, जब आपके सामने अमेरिका का उदाहरण हो। जिस अमेरिका ने ११ सितम्बर के हमले की प्रतिक्रयास्वरूप पहले इराक़ और फ़िर अफगानिस्तान का बेडा गर्क किया उसे देर से ही सही, आज भारी आर्थिक मंदी का सामना करना पर रहा है।

आज विश्व सभ्यता जिस जगह पर पहुँच चुकी है उसमें तो अब निर्णय का वक्त ही चुका है कि आप निर्माण चाहते हैं या विनाश, और ये भी तय है कि जिसका पलडा भारी होगा, आगे वही शक्ति विश्व संचालक शक्ति होगी इन सारे घटनाक्रमों में एक बात तो बहुत ही अच्छी और सकारात्मक है कि आतंक और विध्वंस के पक्षधर चाहे कितनी ही कोशिशें कर लें मगर एक आम आदमी को अपने पक्ष में अपनी सोच के साथ वे निश्चित ही नहीं मिला पायेंगे। और यही इंसानियत की जीत होगी। अगले युग के लिए शुभकामनायें......

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

पप्पू कांट फाइट साला

पप्पू कांट फाइट साला :-
जी अब तो चारों तरफ़ यही चर्चा जोरों से चल रही है , देश विदेश , स्वदेश , परदेश, दिल्ली लन्दन तक में हमारे पप्पुपने की और पप्पू के फाइट नहीं कर पाने की ही बातें चल रही हैं। सुना तो ये भी है की इस साल के अंत में जो , लोगों ने पार्टी वैगेढ़ के लिए प्लानिंग कर राखी है तो वे सोच रहे हैं की सरकार से कहें की थोड़ी देर के लिए अपने बोफोर्स तोप और सुखोई जहाज भाड़े पर ही दे दें ताकि कम से कम उससे कुछ काम तो लिया जा सके।

अजी दूसरों की क्या कहें, ख़ुद अपने लोग ही कई तरह के जुमले , फिकरे कसने लगे हैं। कल ही कुछ ब्लू लाइन बसों ( यहाँ दिल्ली से बाहर के पाठकों को बता दूँ की दिल्ली परिवहन व्यवस्था में ब्लू लाइन बसें बिल्कुल लाईफ लाइन, अरे नहीं डेड लाइन की तरह हैं ) के चालाक आपस में बातें कर रहे थे, बताओ यार पता नहीं लदी से क्यों डर रहे हैं, जबकि आधे पाकिस्तान को तो हम ही कुचल कर मार सकते हैं, हमने अब तक अपने लोगों का शिकार किया है तो क्या दुश्मनों का नहीं कर सकते ? सुना है की कुछ किन्नरों को भी इस बात का गुस्सा है की जब पूरे देश का चरित्र किन्नर जैसा ही है तो फ़िर आज tअक उनकी उपेक्षा क्यों की गयी, वैसे उन्होंने भी कहा है की हमें ही बॉर्डर पर भेज दो ताली मार मार कर सबको भगा देंगे। और तो और सब कह रहे हैं की हाल फिलहाल में प्रर्दशित हुई पिक्चर गजनी में अपने परफेक्ट खान की बोदी देख कर दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं पहली ये की कम से कम एक आध पाकिस्तानी पलटन को तो वे १५ मिनट वाली याददाश्त में निपटा ही देंगे, और दूसरी ये की जिस तरह से हमारे लोग कुछ ही दिनों में चार, छ, और आठ पैक वाली बोडी तैयार कर रहे हैं उसे देख कर पाकिस्तान को अक्ल आ ही जानी चाहिए।
इस मुद्दे से ही सम्बंधित एक और बात सुनने में आ रही है एक मशहूर सेना के सेनापति ने राज खोलते हुए बताया की , जी हमें तो इस लड़ाई वैगेरेह के पचडे में नहीं पढ़ना, हमारी सेना तो सिर्फ़ देश वासियों को उनकी भाषा और जगह के हिसाब से ठिकाने लगाती है, महाराष्ट्र की नाम से तो हम मार काट कर सकते हैं मगर राष्ट्र के नाम से नहीं।
खैर फिलहाल तो स्थिति यही है की हम पप्पू बने हुए हैं, वैसे जहाँ तक मेरा अपना विचार है की वर्तमान में जो भी परिस्थियां हैं उसमें भारत जैसे देश को जो निरंतर विकास की राह पर बढ़ रहा है उसे युद्ध से यथासंभव बचना ही चाहिए, मगर सर बचना, डरना नहीं। आज दोनों देश परमाणु संपन्न हैं, और फ़िर जो लोग भारत को अमरीका बनने की सलाह दे रहे हैं, वो शायद भूल रहे हैं की अफगानिस्तान और इराक़ का मामला अमरीका को कहाँ और कितना भारी पड़ रहा है, राजनितिक, सामजिक और आर्थिक रूप से भी। मुझे तो लगता है की पाकिस्तान जैसा देश कभी नहीं चाहेगा की भारत जैसा उसका पड़ोसी धीरे धीरे विकसित होकर विश्व शक्ति बन जाए। मगर इस सारे घटनाक्रम में जो बात मुझे कतई पसंद नहीं आ रही है वो है चीन , अमेरिका और लन्दन आदि के सामने अपने दुखडा रोने वाली बात। एक अन्तिम सच ये की युद्ध से कोई मसला हल नहीं होता, मगर उससे बड़ा सच ये की यदि कायरता और लड़ाई में से किसी एक चुनना है तो फ़िर बन्दूक जिंदाबाद.

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

तन्हाइयां बोलती हैं

अभी मन और मष्तिष्क ने रफ़्तार नहीं पकडी है, सो फ़िर कुछ हल्का फुल्का :-

दीवारों-दर से उतर के परछइयां बोलती हैं,
कोई नहीं बोलता जब तन्हाइयां बोलती हैं

परदेश के रास्तों, रुकते कहाँ मुसाफिर,
हर पेड़ कहता है किस्सा, कुस्स्वाईयाँ बोलती हैं

मौसम कहाँ मानता है तहजीब की बंदिशों को,
जिस्म से बाहर निकल के अंगडाइयां बोलती हैं

सुनने की मोहलत मिले तो आवाज हैं पत्थरों में,
गुजरी हुई बस्तियों में आबादियाँ बोलती हैं

कहीं बहुत पहले पढा था, अफ़सोस की लेखक का नाम याद नहीं, मगर उन्हें पूरी श्रद्धा के साथ नमन.

तन्हाइयां बोलती हैं

अभी मन और मष्तिष्क ने रफ़्तार नहीं पकडी है, सो फ़िर कुछ हल्का फुल्का :-

दीवारों-दर से उतर के परछइयां बोलती हैं,
कोई नहीं बोलता जब तन्हाइयां बोलती हैं

परदेश के रास्तों, रुकते कहाँ मुसाफिर,
हर पेड़ कहता है किस्सा, कुस्स्वाईयाँ बोलती हैं

मौसम कहाँ मानता है तहजीब की बंदिशों को,
जिस्म से बाहर निकल के अंगडाइयां बोलती हैं

सुनने की मोहलत मिले तो आवाज हैं पत्थरों में,
गुजरी हुई बस्तियों में आबादियाँ बोलती हैं

कहीं बहुत पहले पढा था, अफ़सोस की लेखक का नाम याद नहीं, मगर उन्हें पूरी श्रद्धा के साथ नमन.

जूते जूते पर लिखा है खाने वाले का नाम

जूते जूते पर लिखा है खाने वाले का नाम :-
जी हाँ, गया वो ज़माना जब ये कहावत चलती थी की दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, और हो भी क्यों न, जब विश्व का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति भी जूते खाने लगे तो यही कहावत तो चलन में आयेगा। और फ़िर ये बात तो ख़ुद बुश साहब ने ही बताई है, क्या कहा आप नहीं जानते, लीजिये ये खाकसार बताता है न। दरअसल हाल ही में बुश साहब ने एक पत्रकार वार्ता की, अरे वो जूतों वाली ऐतिहासिक वार्ता के बाद, इस बार उन्होंने ये वार्ता जूते प्रूफ़ केबिन ( पिछली वार्ता के बाद उन्हें लग गया था की बुल्लेट प्रूफ़ से ज्यादा उन्हें जूते प्रूफ़ केबिन की जरूरत है ) , में की थी और एहतियात के तौर पर सबको नंगे पाँव आने को कहा गया था। आप सोच रहे होंगे इस बात की ख़बर कहीं भी नहीं देखी, अरे आप देखेंगे कैसे, जब सबे तेज से लेकर सबसे धीरे चैनल तक वाले हमसे ही फुटेज की भीख मांग रहे हैं, खैर।
बुश साहब ने आते ही पत्रकारों से शिकायत शुरू कर दी, ये क्या भाई, आप लोगों तो उस घटना को इस तरह से देखा और दिखाया की जैसे ये yugon में एक बार ghatne वाले big बैंग की घटना हो। आप लोगों ने न तो उस वार्ता के विषय, न ही मेरे विचार, न ही मेरी इराक़ यात्रा , के बारे में कुछ लिखा , आप सब तो बस जूते के पीछे पड़ गए। आप लोगों ने जूते का रंग, उसका वजन, उसका नंबर, फैंकने का एंगल, आदि पर इतना सब कुछ पेश किया, मेरी काबिलियत, जिससे मैं एक नहीं बल्कि दोनों यानि पोर जोड़ी जूते के निशाने में आने से ख़ुद को बचा गया, इस बारे में कहीं कुछ नहीं लिखा , यार मेरा भी कुछ टैलेंट है या नहीं। मैं तो इतना तैयार था की यदि उस दिन सभी पत्रकार अपने फूटे चप्पल खींच कर मारते तो भी मैं निशाने में आने से बच जाता।
वैसे भी किसी के कुछ करने से कुछ नहीं होता, क्योंकि मैंने कहीं सुना पढ़ा था की , जूते जूते पर लिखा है खाने वाले का नाम, और न तो उस जूते पर जोर्ज लिखा था न ही बुश ।

अंकल , पाकिस्तान से आप कहो :-
देखिये हम कितने अमन पसंद, सहनशील और प्यारे लोग हैं, इतना कुछ हो जाता है हमारे साथ और होता ही रहता है। लेकिन वह रे हम, चुपचाप सब कुछ बर्दाश्त करते हुए पूरे विश्व समुदाय के सामने अपनी हालत की जानकारी रखते हैं, बेशक वे कुछ न करें, कुछ भी न देख्जें सुने, मगर हम तो अपनी कोशिश करते हैं न। पहले हमने अपने बड़े अंकल अमेरिका को कहा की देखो अंकल आपके होने के बावजूद ये पकिस्तान हमारे साथ यही करता आ रहा है, मानता ही नहीं। हमने देखा की पाकिस्तान पर तो अमेरिका अंकल के ओहदे और पावर का कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा, हम कहाँ मानने वाले थे, हमने बिना देरी किया, फटाक से चीन अंकल से भी शिकायत कर दी। और हम पाकिस्तान को साफ़ बता देते हैं , की हम भी हारने वाले नहीं हैं, अम्रीका से लेकर, चीन, फ्रांस, गरमानी, इंग्लैंड, पोलैंड, बरमूडा, चेकोस्लोवाकिया, और कीनिया तक से आपकी शिकायत कर देंगे, फ़िर सबको कहेंगे की सब आपसे कुट्टी कर दें, क्यों मनमोहन जी हम यही करेंगे न ?

बहन जी सत्यानाशी पार्टी ( पा ) ने नरबली दी :-
क्या कोई सोच सकता है की आज के दौर में जब हम चाँद सूरज को छूने को तैयार हैं, ऐसे में भी एक महँ राजनितिक दल ने अपने नेता के जन्मदिन के अवसर पर नर बलि की तैयारी की और उसके एक सेनानी ने ; बहादुरी से पुरे अस्त्र शाश्त्रों के साथ एक बुद्धिमान, काबिल इंसान की नरबली दी। दरसल जब नरबली के लिए विचार चल रहा था तो पहले सेनानी बोले की माता क्यों ने किसी ग्रामीण अनपढ़ की नरबली दे दें, माता जी ने कहा, नहीं अब हमरी पार्टी बेहद मजबूत और बहुत बड़ी हो गयी है, अब तो कौनो अफसर, कौनो डाक्टर, कौनो इंजिनियर की बलि दो तभी हमारा जन्मदिन सार्थक होगा। और देखिये कितना सार्थक रहा सब कुछ, इसी को तो बहुजन के लिए समाजवाद कहते हैं, हाथी मतवाला होता ही है जी.

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

बदले हैं अब दस्तूर ज़माने के

आज लगभग डेढ़ महीने बाद ब्लॉग पर लौटा हूँ, पिछले दिनों के लिए सिर्फ़ इतना की वे मेरी जिंदगी के कुछ बेहद कठिन दिनों में से कुछ दिन रहे, मन में कुछ भी नहीं हैं न ही मस्तिष्क में इसलिए कुछ हलकी फुलकी पंक्तियाँ आपको पढ़वाता हूँ जो मैंने कहीं बहुत पहले पढी थी, यदि मेरी याददाश्त ठीक है तो लेखिका का नाम था , सुश्री रीता यादव।:-

बदले हैं अब दस्तूर ज़माने के इस कदर,
अपना कोई बनना ही गंवारा नहीं करता

पागल भी नहीं लोग की माने नसीहत,
जो मान ले गलती वो दोबारा नहीं करता

अपने लिए तो जीते हैं , मरते हैं सभी लोग,
औरों के जख्म कोई दुलारा नहीं करता

जाते हैं बिखर आज, गुलिश्ते बहार के,
जिनको कोई माली भी संवारा नहीं करता

ऐसे तो मुकद्दर को कोई बदल सका,
फ़िर भी सिकंदर है , जो हारा नहीं करता

तूफानों से लड़ के जिन्हें मिल जाए किनारा,
वो ही कभी औरों को पुकारा नहीं करता

तारे भी तोड़ लाने का जो रखता है जिगर,
वो शख्स फटेहाल, गुजारा नहीं करता

बदले हैं अब दस्तूर ज़माने के

आज लगभग डेढ़ महीने बाद ब्लॉग पर लौटा हूँ, पिछले दिनों के लिए सिर्फ़ इतना की वे मेरी जिंदगी के कुछ बेहद कठिन दिनों में से कुछ दिन रहे, मन में कुछ भी नहीं हैं न ही मस्तिष्क में इसलिए कुछ हलकी फुलकी पंक्तियाँ आपको पढ़वाता हूँ जो मैंने कहीं बहुत पहले पढी थी, यदि मेरी याददाश्त ठीक है तो लेखिका का नाम था , सुश्री रीता यादव।:-

बदले हैं अब दस्तूर ज़माने के इस कदर,
अपना कोई बनना ही गंवारा नहीं करता

पागल भी नहीं लोग की माने नसीहत,
जो मान ले गलती वो दोबारा नहीं करता

अपने लिए तो जीते हैं , मरते हैं सभी लोग,
औरों के जख्म कोई दुलारा नहीं करता

जाते हैं बिखर आज, गुलिश्ते बहार के,
जिनको कोई माली भी संवारा नहीं करता

ऐसे तो मुकद्दर को कोई बदल सका,
फ़िर भी सिकंदर है , जो हारा नहीं करता

तूफानों से लड़ के जिन्हें मिल जाए किनारा,
वो ही कभी औरों को पुकारा नहीं करता

तारे भी तोड़ लाने का जो रखता है जिगर,
वो शख्स फटेहाल, गुजारा नहीं करता

सोमवार, 17 नवंबर 2008

सेलेब्रेटीज होते हैं ब्लॉगर

जानता हूँ, आप कहेंगे, कमाल है यार अभी तो कल ये बात छोडी थी की , दुनिया के सबसे अमीरों की सूची में एक ब्लॉगर का नाम आ गया है , और फ़िर अपना नाम बता दिया, आज टूल गए उन्हें सेलेब्रेटीज बनाने पर । आप लोग ब्लॉगर हैं न, कबी भी सीधा और सच्चा सोच ही नहीं सकते, आप लोग भावनाओं को नहीं समझ सकते हैं न, इसलिए। दरअसल ये बात कुछ और है, आप ख़ुद ही देखिये........



कल जैसे ही बेटे को स्कूल से लेकर निकला, उसने प्रश्न दागना शुरू कर दिया (वैसे यहाँ बता दूँ की मुझे अब तक ठीक ठीक नहीं पता चल है की दागने में वो आगे रहता है या उसकी अम्मा, बस इतना पता है की दोनों मिलकर मुझे पर दागते हैं )पापा, मेरे स्कूल के सारे बच्चों के पापा सेलेब्रेटीज हैं, आज मुझसे टीचर ने पूछा तो मैंने कहा की कल बताउंगा , वैसे मुझे इतना पता है की वे कोई गर हैं, शायद अजगर नहीं बाजीगर .........



अबे चुप, क्या बक रहा है तुझे कितनी बार तो बताया है की ब्लॉगर हैं, ये अजगर और बाजीगर से बिल्कुल अलग होता है बेटे, और क्या कहा सेलेब्रेटी , बेटा सही मायने में तो सबसे बड़ा सेलेब्रेटी आज ब्लॉगर ही है।



ठीक है पापा, लेकिन हो तो आप गर नस्ल के ही प्राणी न , और सेलेब्रेटीज कैसे हो ?



मैंने उसके गर -मगर पर बिना ध्यान दिए, बताना शुरू किया, देख, आज भारत की जनसख्या कितनी है, सवा अरब से भी ज्यादा, उसमें से हिन्दी बोलने, पढने, लिखने और समझने वाले कितने होंगे, करोड़ों में , उसमें से ब्लॉग्गिंग करने वाले कितने हैं सिर्फ़ हजारों में, अबे, हजारों में क्या सिर्फ़ कुछ हजार, और नियमित लिखने वाले, सिर्फ़ पाँच सौ, उसमें से एक तेरे पापा भी हैं। और ये जो तेरे, अमिताभ बच्चन, आमिर खान , जैसे लोग हैं न , वे तो सिर्फ़ अपने कुत्ते बिल्लियों के नाम बताने के लिए ब्लॉग्गिंग कर रहे हैं, हम उनमें से नहीं हैं। हम लिखते है, उसे पढ़ते हैं, लोग हमारी प्रशंशा करते हैं, फ़िर हम प्रशंसा करते हैं, और ये सिलसिला चलता रहता है। और तो और ये तेरे सेलेब्रिटीज लोग तो एक दूसरे से कैसे लड़ते हैं, खुलमखुल्ला, सबके सामने, यहाँ हम किसी की आलोचना भी बड़ी ही शिष्टता से करते हैं, और कई लोग तो बेचारे इतने भद्र हैं की यदि किसी को गलियाने का मन करे तो बेनाम बन कर गलियाते हैं, ताकि दुःख न हो ये जान कर की अमुक आदमी गरिया रहा है।



बेटा बिल्कुल शुक मुनो की तरह ध्यान लगा कर सुन रहा था, " लेकिन पापा आप लोगों की चर्चा तो कहीं नहीं होती "

बेटा गए वो दिन जब हम ख़ुद ही लिखते थे और ख़ुद ही पढ़ते थे, अब तो हरेक समाचार पत्र, कोई प्रतिदिन, तो कोई साप्ताहिक रूप से हमारी और हमारे पोस्टों की चर्चा कर रहा है ,(मैंने उसे बिल्कुल भी नहीं बताया की कभी किसी ने भी मेरी चर्चा नहीं की,) और यहाँ ब्लॉगजगत पर तो हमारे पाठक कितने हैं कह ही नहीं सकते।



लेकिन हमेशा ही मैंने देखा है की जब आप पाठकों की संख्या देखते हो तो वो तो महज ४ या ५ होती है



क्या बात कर रहा है, तुझे नहीं पता, कंप्युटर हमेसा लास्ट वाला जीरो नहीं दिखाता, मतलब पचास साठ लोग रोज पढ़ते हैं, और पसंद भी करते हैं (यहाँ भी मैंने उसे बिल्कुल नहीं बताया की हम कुछ दोस्तों ने कसम खा राखी है की एक दूसरे की पोस्ट छपते ही उसपे पसंद का घंटा जरूर बजा कर आयेंगे , फ़िर बाद में उसे खूब बुरा भला कहें। )


तो बता अब कोई कह सकता है की तेरे पापा सेलेब्र्तितिज नहीं हैं।

बिल्कुल ठीक कहा पापा , कम से कम कहने पर कोई चाहे कुछ न समझे इतना तो समझ ही जायेगा की आप भी अजगर और बाजीगर की तरह के कुछ भारी भरकम और अनोखे हो.

रविवार, 16 नवंबर 2008

मुबारक हो , दुनिया के सर्वाधिक अमीरों की सूची, फोर्ब्स में एक ब्लॉगर भी

वाह, भाई, क्या धाँसू ख़बर आए आज तो, आखिरकार मेरा सपना सच हो ही गया, हाल ही में दुनिया के सर्वाधिक अमीरों की सूची जारी करने वाली पत्रिका , फोर्ब्स, ने जो सूची जारी की है, उसमें एक ब्लॉगर का भी नाम है। पहले तो एक ये बात मेरी समझ में नहीं आती कि, ये इन पत्रिका वालों को आख़िर दूसरे की कमी के बारे में पता कैसे चल जाता है, और वो भी बिल्कुल शत प्रतिशत, कमाल है मुझे आज तक अपना हिसाब किताब ठीक से समझ में नहीं आता। इस सूची में दुनिया भर के, एशिया के , भारत के , इस प्रकार से नाम दिए गए हैं, पता चला कि इसमें चौथे नंबर पर एयरटेल वाले भाईसाहब मित्तल बाबु का नाम भी है, मुझे खुशी हुए, कि धोखे से ही सही, कभी किसी डाऊनलोड के नाम पर , तो कभी रिंग टन के नाम पर हर महीने जो अंट शंट, पैसे वे काटते हैं उसका फल कहीं तो जा कर मिलता है, वरना क्या फायदा कि आदमी इतनी धोखाधड़ी भी करे और हाथ भी कुछ न लगे, खैर में तो ब्लॉगर की बात कर रहा था।

विश्वस्त सूत्रों , ( प्लीज सूत्रों के बारे में कभी ना पूछें ), से पता चला है कि , कुल सत्ताईस लाख पेज की इस किताब के आखिरी पन्ने पर और ९९७६९८४३२७६५६८०९८७७६८०६४४५७६८९७५९ वें स्थान पर हमारा अपने एक हिन्दी ब्लॉगर है । हाँ , हाँ मैं जानता हूँ कि आप सोच में पड़ गए होंगे कि आख़िर कौन है वो टैलेंटेड ब्लॉगर जिसने इतना प्रतिष्ठित स्थान हासिल किया, अब मैं अपने मुंह से अपना नाम कैसे लूँ समझ नहीं पा रहा हूँ, लेकिन लेना भी जरूरी है, वरना आप हमारे वरिष्ठ भाइयों के नाम से कन्फुज हो जायेंगे तो।
मुझे ये तो नहीं पता कि इस सूची में नाम आने के बाद किसी के ऊपर क्या फर्क पड़ता है, ये भी नहीं कि kahin इसके बाद मुझे सब्जी वाला सब कुछ सोने के भाव न देना शुरू कर दे, मगर फक्र तो होता ही है न। हाँ , हाँ मुझे मालूम है कि इसके बाद कुछ लोगों को, अनाम और बे नाम लोगों को ये शिकायत हो रही होगी कि हुंह ये क्या बात हुई आख़िर पेज पे इतने बाद नंबर आया है , उसे लेकर हाय तोबा क्यूँ मचाया जा रहा है, तो उन लोगों को मैं बता दूँ कि जब भी कोई व्यक्ति किसी भी किताब को उठाता है तो उसका पहला और आख़िरी पन्ना जरूज ही पढता है , तो जिसे, बिल गेट्स, का नाम पता होगा वो झा जी को जरूर ही जानता होगा, क्यों ठीक है न, एक और जरूरी बात ये कि इन कमबख्त बड़े लोगों, अरे जिनका नाम ऊपर है उन्हें तो हर वक्त अपने बोलीवुड के खानों की तरह अपने नंबर बढ़ने और काटने की चिंता लगी रहती है, एक हम ही हैं जिसे पता है कि चाहे जितनी तबदीली आ जाए अपना स्थान तो स्त्तेस लाखवें पेज पर फिक्स है ही।
तो बधाई हो मुझे भी और आप सबको भी आख़िर आप सबके बीच रह कर ही तो ये नामुमकिन काम मैं कर पाया वरना क्या मैं भी चाँद पर सायकल लेकर नहीं चला जाता।

मेरा अगला पन्ना :_ सेलेब्रिटी होते हैं ब्लॉगर , (आपको शक है क्या, मैं साबित कर दूंगा )

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

पांडे V/S ठाकरे ( राजनीति का २०-२० )

अब क्षेत्रवाद का मैच ये,
और भी रोचक होगा,
नारे-दंगे, लाठी- डंडे,
सभी कहेंगे , बाप रे॥
मंजे हुए दोनों कप्तान,
इक पांडे, इक ठाकरे॥
अब जलने को तैयार रहो,
तिल तिल कर हर बार मरो,
इक डालेगा पैट्रोल, दूजा,
लगवाएगा आग रे ॥
पांडे बोले , जो बिदके,
अबकी उलटा सीधा,
तो न ताज रहें न राज रे॥
भागी सेना, पहुँची थाने,
डर और चिंता, लगी सताने,
गाने लगे, सब,
सुरक्षा का राग रे॥
गरीब भला ये क्या जाने,
आया था दो रोटी कमाने,
पीछे पड़ा , बोली-भाषा का नाग रे॥

चलिए , भगवान् करे पांडे ठाकरे टीम के इस मैच में किसी निर्दोष का विकेट न गिरे, मगर मुझे डर है की ऐसा ही होगा...

पांडे V/S ठाकरे ( राजनीति का २०-२० )

अब क्षेत्रवाद का मैच ये,
और भी रोचक होगा,
नारे-दंगे, लाठी- डंडे,
सभी कहेंगे , बाप रे॥
मंजे हुए दोनों कप्तान,
इक पांडे, इक ठाकरे॥
अब जलने को तैयार रहो,
तिल तिल कर हर बार मरो,
इक डालेगा पैट्रोल, दूजा,
लगवाएगा आग रे ॥
पांडे बोले , जो बिदके,
अबकी उलटा सीधा,
तो न ताज रहें न राज रे॥
भागी सेना, पहुँची थाने,
डर और चिंता, लगी सताने,
गाने लगे, सब,
सुरक्षा का राग रे॥
गरीब भला ये क्या जाने,
आया था दो रोटी कमाने,
पीछे पड़ा , बोली-भाषा का नाग रे॥

चलिए , भगवान् करे पांडे ठाकरे टीम के इस मैच में किसी निर्दोष का विकेट न गिरे, मगर मुझे डर है की ऐसा ही होगा...

पढियेगा जरूर , सब एक्सक्लूसिव है

का बात है झा बाबु, सब कुछ एक्सक्लूसिव है ,लगता है आप भी इंडिया टी वी से इंस्पायर हो गए हैं, जहाँ कभी भगवान् अवतार ले लेते हैं, तो कभी भूत प्रकट हो जाते हैं, और वो भी एक्सक्लूसिव, बस बेचारों को इंसानों से जुडी कोई ख़बर ही नहीं मिलती, क्यों ? कहिये क्या क्या ख़बर है आज, सुना है की आज तो आप लोगों पर एक और टैप जारी हुआ है जिसमें राज फाश किया गया है की आप भैया लोगों को केक बना कर काटा जा रहा है , ऊ भी चाकू लहरा लहरा के।

अरे नहीं भाई, इस बात को इतना सेरिअस्ली लेने का कौनो जरूरत नहीं है, दरअसल हम लोग बहुत पहले से ई बात सोचे थे की अपना प्रेम किसी न किसी माध्यम से जरूर दिखाएँगे। जैसे अब लीजिये हमारे प्रोग्राम सुनिए, हम लोग जल्दी ही एक लिट्टी बनाने जा रहे हैं, ( भैया लोग लिट्टी समझ गए होंगे ) जिसके अन्दर सुआ घुसा घुसा कर उसको इतनी देर तक आग पर पकाएंगे की पूरा प्रेम जग जाहिर हो जायेगा, मगर उसका टैप सिर्फ़ इंडिया टी वी को ही मिलेगा, आख़िर ऊ हमारे मीडिया पार्टनर हैं न।
सीरियल पिक्चर खुलवाओ न राज भाई
सर सुना है कि, कुछ सीरियल पिक्चर को लेकर भी आपकी कोई कहबर एक्सक्लूसिव नेउस है,

हाँ , भाई, दरअसल हमरे मित्र बालाजी यादव ( अरे टेली फिल्म्स वाले नहीं ) बहुत परेशान हैं भाई, आकर कहने लगे, का बताएं भैया झाजी, ई ससुरा सेरिअल्वा सब जब से बाद हुआ है घर में रोज ही क्लेश रहने लगा है,
हमें आश्चर्य हुआ, हमने कहा , क्यों अब तो उल्टे शांती रहेनी चाहिए थी।
अरे कहाँ, दरअसल पहले माता जी और श्रीमती जी सीरियल की कहानी और पात्रों को लेकर, उनके चक्कर और शादी वैगेरह को लेकर ही बात करती थी, अब कुछ आ नहीं रहा इसलिए आपस में भिड जाती हैं जब तब। हमने तो इसका उपाय भी निकाला और सबको लेकर चले गए पिक्चर देखने, कोई विद्रोही, वतन द्रोही नाम की ;पिक्चर लगी थी,
कमाल है , हाँ भाई अब इस समय कोई देशभक्त , और क्रांतिकारियों पर पिक्चर तो बनने से रहा।
अरे सुनिए तो , पिक्चर भी नहीं देख पाये, सुना है किसी ने बंद करवा दी है। पता चला कि ई सब आपके मित्र का किया धारा है, काहे , ई सब राज की बात है।

देखिये, हमें तो नहीं लगता कि ऊ ई सीरियल और पिक्चर सब खुलवा पायेंगे।ई सब से उन्क्य क्या लेना देना ?

ई तो आप हमें ठग रहे हैं, आप ही बताइये, जेट वाला हड़ताल से उनका का लेना देना था, वही खुलवाये थे न, हमें तो पता चला है कि हड़ताल खुलवाने में वो इतने एक्सपर्ट हो गए हैं कि सरकार उनको औथोराईज्द हड़ताल खोलू का लाईसंस देने जा रही है।

देखिये हम सीरियल सब तो चालू करवा देंगे ,मगर ऊ सब हिन्दी में नहीं होगा, दोस्त को हिन्दी समझ में नहीं आती है इसलिए कहिये तो मराठी में चालू करवा दें.............
बाल दिवस पर लकी नहीं लखी
इतने में मीडिया पार्टनर आ गए, कहे झा जी आज बाल दिवस पर कुछ नहीं कहे आप, देखिये तो बच्चा सब कितना लकी है आज, कितना सारा सुविधा, कितना ग्लैमर, पैसा मिल रहा है, है कि नहीं लकी।
बस बेटा बहुत हुआ, लकी नहीं लखी है ( आपको बताते चलें कि लखी एक नाबालिग बच्ची है जिसे हाल ही में उसके मालिक और मालकिन ने बुरी तरह मारा पीता, ख़बर भी सब तरफ़ आयी मगर उनका कुछ हुआ नहीं, हमेशा कि तरह ), तुम लोगों को हर घर में एक लकी के साथ बुधिया, चम्पू, छोटू, ननकू, जैसे लखी भी मिल जायेंगे।
मगर सर, आख़िर क़ानून को ये बाल मजदूर दिखाई क्यों नहीं देते ?
यार तुम भी कमाल करते हो, जब कानून को लंबे चौडे, तगडे , मुजरिम दिखाई नहीं देते तो फ़िर इन बेचारे बाल मजदूरों का तो साईज ही छोटा है।

चलिए अब बंद कीजिये ई अपना ब्रेकिंग न्यूज़

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

इसका मतलब राहुल राज, अफज़ल से भी ज्यादा खतरनाक था !

आज सुबह ही ख़बरों में देखा , पढा और सुना कि, राहुल राज, उम्मीद है कि आप इस नव युवक की जिंदगी नहीं तो मौत की कहानी से वाकिफ जरूर होंगे, के माता पिता, और रिश्तेदार आज राष्ट्रपती से मुलाक़ात करेंगे। उनसे दरख्वास्त की जायेगी, कि उनके बेटे की मौत के पीछे के सच का पता लगाया जाए, ताकि उन्हें इन्साफ मिल सके।

बताइये, ये भला कोई बात हुई, राष्ट्रपति के पास फिलहाल इतना तो वक्त ही नहीं होगा, आख़िर उन्हें दूसरों को भी तो इन्साफ देना है, दूसरे कौन, भूल गए आप, राष्ट्रपति के पास अफजल , वही अफजल जिसने अपने साथियों के साथ मिलकर संसद पर हमला बोल दिया था, देश की छोटी बड़ी, सभी अदालतों से फांसी की सजा के बाद अब उसकी माफी की याचिका राष्ट्रपति के पास लंबित पडी है, और फ़िर संसद जैसी छोटी मोटी जगह पर हमला करना, वहां तैनात कुछ पुलिस वालों, जिनके सर पर खामख्वाह ही देशभक्ति का भूत चढा था, को जान से मार देने के बावजूद उसका गुनाह इतना बड़ा नहीं था जितना कि राहुल राज का था। बताइए तो एक खाली बस को हाईजैक करने का अभूतपुर्व गुनाह किया था उसने, शायद आज तक किसी भी गुंडे , डकैत, और आतंकी ने इतना शानदार हाईजैक नहीं किया होगा, सुना है कि उसने अंधाधुंध गोलियाँ भी चलायी, कमाल है कि एक भी किसी पुलिस वाले को नहीं लगी, या शायद उसने मारे नहीं।
जो भी हो, इस घटना से दो बातें तो तय हैं, पहली ये कि राष्ट्रपति के पास इन्साफ के लिए जाने से पहले जरूरी है कि अपराध , संसद पर हमले जैसा ही और सजा फांसी जैसी छोटी ही होनी चाहिए। दूसरी , ये कि किसी भी परिस्थिति में खाली बस को हाईजैक करना सबसे बड़ा अपराध है, जो बेचारे राहुल राज से हो गया। देखना ये है कि इन्साफ किसे मिलता है ?

सुना है कि इस बार टिकट बिके हैं :- अजी किसी और के मुंह से सुना होता तो शायाद यकीन नहीं होता, हालाँकि सच होता है हमेशा , मगर फ़िर भी यकीन नहीं होता मगर इतनी वरिष्ठ महिला राजनीतिज्ञ, वो भी संगठन के इतने महतवपूर्ण पद पर बैठी हुई जब कहें, और ऐसा कहने के लिए उन्हें उसके बाद इस्तीफा तक देना पड़ जाए तो यकीन नहीं करने का तो कोई कारण ही नहीं बचता है न।
मगर सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो ये है कि , क्या चुनाव के लिए बिके हुए टिकटों की कीमत आलो प्याज और टमाटर के कुल कीमत से भी ज्यादा था, यदि कम थी तो भी और ज्यादा थी तो भी किसी भी सूरत में ये बिल्कुल ही अन्याय था, और हाँ जिन्हें आलू, प्याज और टमाटर वाली बात से ऐतराज होगा वे निश्चित रूप से घर की सब्जी श्रीमती जी से ही मंगवाते होंगे।

संस्कृति मंत्री के संस्कार :- लीजिये अभी तो चुनाव शुरू भी नहीं हुए और हमारे जनप्रतिनिधियों, समाज सेवकों का असली चरित्र हमारे सामने आने लगा है। सुना है कि मध्य प्रदेश के संस्कृति मंत्री ने हाल ही में चुनाव दफ्तर में एक महिला अधिकारी के साथ इतने शिष्ट, सुलभ, सु संस्कृत, तरीके से व्यवहार किया कि , उन बेचारी को इसकी बाकायदा शिकायत तक दर्ज करवानी पड़ गयी। इस चुनाव में जीतने के बाद तो हर हाल में उन्हें ही संस्कृति मानती बनाया जाना चाहिए, आखिरकार राजनेताओं की सच्ची संस्कृति को उन्होंने ही तो जीवित रखा है.

सोमवार, 10 नवंबर 2008

सड़कें हमें खा गयी या हम सड़कों को ? (परिवहन दिवस पर विशेष )

आज परिवहन दिवस है, ऐसा मैंने पढ़ा है , मुझे नहीं पता की इससे किसकी सेहत पर क्या फर्क पड़ा, ये भी नहीं की आज किसी को बस में दिक्कत हुई या नहीं, या कि, कोई ट्रैफिक जाम तो नहीं लगा, मगर चूँकि पढा था तो लग रहा था कि जरूर होगा। वैसे भी सिर्फ़ प्रेम दिवस (वैलेंताईं डे ) को छोड़ कर बांकी सभी दिवस तो महज खानापूर्ती ही बन कर रह गए हैं सो ज्यादा सोचा विचारा नहीं और लगे रहे। घर पहुंचे तो अजीब माजरा देखा।

एक पक्की काली, मोटी, मजबूत , सड़क मेरे आँगन में आकर खादी थी, पहले तो मैं समझा कि शायद पत्नी ख़ुद ये उनकी कोई मित्रानी होंगी, मगर पास पहुंचा तो देखा कि सड़क थी। मैंने सोचा शायद परिवहन दिवस मानाने के लिए इस बार कोई नया आयोजन किया जा रहा है, सो औपचारिकता वश मैंने पहले यही कहना ठीक समझा ,' मुबारक हो जी, परिवहन दिवस की बहुत बहुत बधाई।"

" चुप रहो, जले पर नमक मत छिड़को, कहे की मुबारकबाद, तुम लोगों ने हमारा जीना हराम कर दिया है। एक बात बताओ ये सड़कें तुमने क्यों बनाई हैं, विकास के लिए न, परिवहन के लिए न, तो ये कौन सा नया धंधा सीख लिए है, जब भी कोई बात होती है, या नहीं भी होती है, बीवी मारे, बिजली नहीं आ रही, पानी नहीं आ रहा, तुम्हारा नेता नहीं आ रहा, पिक्चर पसंद नहीं, आरक्षण चाहिए, अमा सब के विरोद के लिए तुम लोग सारे इक्केट्ठे होकर हम सड़कों की छाती पर ही मूंग डालने आ जाते हो , तुम्हें और कोई जगह नहीं मिलती।

मैंने देखा ये क्या , आज परिवहन दिवस है तो क्या , और मेहमान है तो क्या, या तो कतई नहीं हो सकता कि कोई घर घुस कर मेरी बेईज्जत्ति ख़राब करे ,बहार से और बात है, मैं भी भड़क गया।, " रहने दो, रहने दो, तुम्हे पता है तुमाहरी वजह से हमारी जिंदगी कितनी कम हो गयी है, लो सुनो , आंकडों के मुताबिक सिर्फ़ इसी शहर में हर महीने करीब ४२ करोड़ घंटे ट्रैफिक जाम में फंस कर लोग अपना समय बरबाद कर देते हैं। सोचो कि कितनो का तो जीवन ही बचारा तुम्हारे साथ मुंह काला करते बीत जाता है।

सड़क फ़िर भड़क गयी, इसके लिए भी तो तुम ही जिम्मेदार हो, मैं तो कहती हूँ कि हम तुम्हें नहीं बल्कि तुम हमें खा रहे हो। अब मेरे आंकडे सुनो, तुम्हारे इसी शहर में रोजाना १००० -१५०० नए वाहन मेरी छाती पर उतर रहे हैं, सड़कों की कुल लम्बाई में से ७५ प्रतिशत से भी ज्यादा पर हमेशा कोई न कोई वाहन रेंग ही रहा होता है .इतने पर भी तुम मर्दूदों को चैन नहीं , अपने छोटे बच्चों को और कई बार तो ख़ुद भी, कभी पीकर, तो कभी छुट्टे सांड बन कर एक दूसरे को टक्करें मार मार कर मेरे शरीर पर अपना गंदा खून बिखेरते हो। जो ये नहीं कर पाते, तो मुंह में न जाने कौन कौन सा जहर कचरा (पान - गुटखा )खा खा कर पूरे रास्ते पिच -पिच करते रहते हो।

अब बताओ काहे का परिवहन दिवस भाई, सोचो यदि रास्तों ने बगवात कर दी तो तुम मनुष्यों को मंजिल कहाँ मिलेगी, इसलिए अब भी समय है, हमारी क़द्र करना सीखो.

रविवार, 9 नवंबर 2008

दोस्त परेशान है , बताइए क्या करे

जब कोई आपके आसपार परेशान या दुखी हो तो जाहिर है की उसके प्रभाव से आप भी बच नहीं सकते, यदि आप सचमुच इंसान हैं तो , जरूर ही। बातों बातों में ही दोस्त से पता चल की आजकल वो बेहद परेशान चल रहा है , उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा की क्या करे और कैसे इस परेशानी से निकले , हलाँकि मैंने उसे सभी मानवीय और कानूनी उपाय और रास्ते भी बता दिए हैं लेकिन मुझे नहीं लगता की वो इसमें से बाहर आ पाया है, जब मैं भी नहीं जानता कि, उसे कौन सा रास्ता अपनाना चाहिए, इश्वर करे उसे ये न पता चले कि मैंने उसकी समस्या यहाँ रख दी।

दरअसल कुछ साल पहले नौकरी की तलाश में गों से शहर आया, खूब भाग दौड़ के बाद एक अच्छी सी नौकरी भी मिल गयी, और किस्मत से अच्छी सी छोकरी भी, जी हाँ अपने दोस्त को या उनकी धर्मपत्नी जी को प्यार हो गया, परिणाम ये कि दोनों अलग क्षेत्र, अलग भाषी, और अलग संस्कृति के बावजूद, बहुत से विरोधों के बावजूद परिणय सूत्र में बाँध गए.दोनों की आपसी समझ भी अच्छी ही है, मगर आजकल स्थिति कुछ ठीक नहीं है। दोस्त के बूढे माँ बाप, जब कुछ दिनों के लिए गाओं से यहाँ शहर में अपने बेटे और बहू के पास रहने आए तो दिक्कत शुरू हो गयी। पता नहीं कौन सही है कौन ग़लत, किसका व्यवहार ठीक है किसका नहीं, दोनों के पास अपने अपने तर्क हैं, और एक लिहाज से दोनों ही कभी ठीक तो कभी ग़लत होते हैं। अब मुश्किल ये है कि दोनों ही एक दूसरे को देखना भी नहीं चाहते, नहीं सहायद मैं ग़लत कह गया, दरअसल हमारी भाभी जी को दोस्त की माताजी से बिल्कुल ही खुन्नस हो गयी है, और इसके लिए उनके पास शायद लाखों तर्क हैं। दोस्त ने प्यार से तकरार से, मान मनौव्वल से , रूठ कर और सख्ती से भी प्रयास कर देख लिया, मगर अफ़सोस कोई बात नहीं बनी। एक बार तो ऐसा समय आ गया कि दोस्त ने माँ बाप के लिए सब कुछ छोड़ने का फैसला कर लिया, मगर फ़िर अपने बच्चों के कारण ऐसा भी नहीं कर पाया।
अब हालात ये हैं कि वो कशमकश में फंसा हुआ , बेचारा सबसे पूछ रहा है कि क्या करे, माँ बाप को इस बुढापे में छोड़ दे या फ़िर बच्चों का भविष्य दांव पर लगा दे।

मुझे तो सिर्फ़ एक ही रास्ता सूझा , वो ये कि , नहीं दोनों में से कुछ भी नहीं कर सकता इस लिए जब तक कर सकता है कोशिश करता रह और अपना कर्म भी , बिना कुछ सोचे और समझे।

अब ये बताइए, विशेषकर महिला समाज से तो जरूर ही जानना चाहूंगा कि दोनों ही औरतें उसकी जिम्मेदारी हैं उसका जीवन भी और दायित्व भी, तो ऐसे में वो क्या करे ..........?

दोस्त परेशान है , बताइए क्या करे

जब कोई आपके आसपार परेशान या दुखी हो तो जाहिर है की उसके प्रभाव से आप भी बच नहीं सकते, यदि आप सचमुच इंसान हैं तो , जरूर ही। बातों बातों में ही दोस्त से पता चल की आजकल वो बेहद परेशान चल रहा है , उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा की क्या करे और कैसे इस परेशानी से निकले , हलाँकि मैंने उसे सभी मानवीय और कानूनी उपाय और रास्ते भी बता दिए हैं लेकिन मुझे नहीं लगता की वो इसमें से बाहर आ पाया है, जब मैं भी नहीं जानता कि, उसे कौन सा रास्ता अपनाना चाहिए, इश्वर करे उसे ये न पता चले कि मैंने उसकी समस्या यहाँ रख दी।

दरअसल कुछ साल पहले नौकरी की तलाश में गों से शहर आया, खूब भाग दौड़ के बाद एक अच्छी सी नौकरी भी मिल गयी, और किस्मत से अच्छी सी छोकरी भी, जी हाँ अपने दोस्त को या उनकी धर्मपत्नी जी को प्यार हो गया, परिणाम ये कि दोनों अलग क्षेत्र, अलग भाषी, और अलग संस्कृति के बावजूद, बहुत से विरोधों के बावजूद परिणय सूत्र में बाँध गए.दोनों की आपसी समझ भी अच्छी ही है, मगर आजकल स्थिति कुछ ठीक नहीं है। दोस्त के बूढे माँ बाप, जब कुछ दिनों के लिए गाओं से यहाँ शहर में अपने बेटे और बहू के पास रहने आए तो दिक्कत शुरू हो गयी। पता नहीं कौन सही है कौन ग़लत, किसका व्यवहार ठीक है किसका नहीं, दोनों के पास अपने अपने तर्क हैं, और एक लिहाज से दोनों ही कभी ठीक तो कभी ग़लत होते हैं। अब मुश्किल ये है कि दोनों ही एक दूसरे को देखना भी नहीं चाहते, नहीं सहायद मैं ग़लत कह गया, दरअसल हमारी भाभी जी को दोस्त की माताजी से बिल्कुल ही खुन्नस हो गयी है, और इसके लिए उनके पास शायद लाखों तर्क हैं। दोस्त ने प्यार से तकरार से, मान मनौव्वल से , रूठ कर और सख्ती से भी प्रयास कर देख लिया, मगर अफ़सोस कोई बात नहीं बनी। एक बार तो ऐसा समय आ गया कि दोस्त ने माँ बाप के लिए सब कुछ छोड़ने का फैसला कर लिया, मगर फ़िर अपने बच्चों के कारण ऐसा भी नहीं कर पाया।
अब हालात ये हैं कि वो कशमकश में फंसा हुआ , बेचारा सबसे पूछ रहा है कि क्या करे, माँ बाप को इस बुढापे में छोड़ दे या फ़िर बच्चों का भविष्य दांव पर लगा दे।

मुझे तो सिर्फ़ एक ही रास्ता सूझा , वो ये कि , नहीं दोनों में से कुछ भी नहीं कर सकता इस लिए जब तक कर सकता है कोशिश करता रह और अपना कर्म भी , बिना कुछ सोचे और समझे।

अब ये बताइए, विशेषकर महिला समाज से तो जरूर ही जानना चाहूंगा कि दोनों ही औरतें उसकी जिम्मेदारी हैं उसका जीवन भी और दायित्व भी, तो ऐसे में वो क्या करे ..........?

शनिवार, 8 नवंबर 2008

शुक्र है कि मुझे भी धमकी भरा ई मेल मिल ही गया (व्यंग्य )

न जाने कितने दिनों से यही तमन्ना थी की काश मुझे भी kabhee कोई धमकी भरा ई मेल मिल पता। हालाँकि में पूरी संजीदगी से ये बता दूँ की धमकी भरी फी मेल ( अजी मेरी धर्म पत्नी ) तो मुझे काफी पहले ही मिल चुकी है। लेकिन यहाँ तो ज़माना ई मेल का है न।

रोज सुबह उठ कर जब अखबार पढता हूँ तो यही मिलता है, की फलाना को धमकी भरा ई मेल मिला , और सिर्फ़ कुछ ही दिनों बाद पता चलता है की वो ई मेल भेजने वाला भी कहीं से पकडा गया। कमाल है मुझे धमकी भरा फी मेल भेजने वाले, ( मेरे सास -ससुर ) तो कभी नहीं पकड़े गए, खैर। बात तो ई मेल की हो रही थी। जहाँ देखो इसी बात की चर्चा थी , हम दोस्तों के बीच भी।
यार कमाल है हम भी रोज ई मेल , ई मेल करते हैं मगर कमबख्त कभी ऐसा हुआ है की गलती से कोई धमकी भरा ई मेल हमें भी मिल जाए। मैंने मित्र से कहा।
अमा तुम कौन देश के प्रधान मंत्री हो , या की कौनो गुंडे हो, एक्टर, क्रिकेटर, कुछ भी नहीं हो तो तुम्हें कौन ई मेल करेगा बे।
क्या मतलब एक आम आदमी की कोई औकात नहीं उसकी कोई वैल्यू नहीं , अब तो मेरा मन करता है की अपने सब्जी वाले को ही एक धमकी भरा ई मेल भेज दूँ की , बेटा सुधर जा यूँ ही सब्जी के भाव बह्दाता रहा तो देखना मैं बड़े बड़े गमले खरीद कर ख़ुद के लायक सब्जी उगा ही लूँगा। और मैंने कौन सा सब्जी का निर्यात करना है, घर चलाने के लिए तो उगा ही लूँगा , फ़िर सोचा की पकडा गया तो उधार की सब्जी भी बंद हो जायेगी।
लेकिन अचानक ही सपना सच हो ही गया, आज ही एक बैंक से धमकी भरा ई मेल आया है, की बेटा तुम लोगों नो यहाँ हमारे बैंक से लोन लेकर सारी ऐश जुटा ली है, उससे अमरीका सरकार तक डूबने वाली है, चुपचाप सारे पैसे लौटा दो , वरना खैर नहीं।
हमने मित्र से सलाह ली, उसने कहा, चुपचाप बैठो रहो, ख़बर गर्म है की बैंक अपनी मौत ख़ुद ही मरने वाला है, कमबख्तों के पास इतने पैसे भी नहीं बचने वाले हैं की आगे से कोई ई मेल करें।
मगर यदि बैंक बच गया तो,
तो भी चिंता नहीं, धमकी वाली ख़बर से तुम रातोंरात लेनदारों के हीरो तो बन ही जाओगे।
शुक्र है कि मुझे भी धमकी भरा ई मेल मिल ही गया।

औरत एक अंतहीन संघर्ष यात्रा


अपनी पिछले पोस्ट में नारी ने मुझे शिकायत की , कि मैंने ब्लॉग्गिंग पर लिखे और छपे अपने विस्तृत आलेख में महिला ब्लोग्गेर्स के लिए ज्यादा नहीं लिखा, हलाँकि मैंने उन्हें आश्वाशन दे दिया है कि जल्दी ही मैं उनकी ये इच्छा भी पूरी कर दूंगा, मगर फिलहाल मुझे लगा कि शायद ये उपायुक्त अवसर होगा कि महिला जीवन पर मेरा एक आलेख को मैं यहाँ पर छाप सकूं।
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औरत एक अंतहीन संघर्ष यात्रा


अपनी पिछले पोस्ट में नारी ने मुझे शिकायत की , कि मैंने ब्लॉग्गिंग पर लिखे और छपे अपने विस्तृत आलेख में महिला ब्लोग्गेर्स के लिए ज्यादा नहीं लिखा, हलाँकि मैंने उन्हें आश्वाशन दे दिया है कि जल्दी ही मैं उनकी ये इच्छा भी पूरी कर दूंगा, मगर फिलहाल मुझे लगा कि शायद ये उपायुक्त अवसर होगा कि महिला जीवन पर मेरा एक आलेख को मैं यहाँ पर छाप सकूं।
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शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

काश एक बराक ओबामा यहाँ भी होते !

इन दिनों जिधर भी जाता हूँ अमेरीकी चुनाव और बराक ओबामा की जीत की ही चर्चा चल रही होती है, स्वाभाविक भी है , और सच कहूँ तो मुझे इससे कोई परहेज़ भी नहीं है, मगर थोड़ा दुःख और आश्चर्य जरूर होता है, भविष्य में हामारे चुनाव भी तो आने वाले हैं। क्या हम कभी गंभीरतापूर्वक ये सोच सकते हैं की अमेरीकी चुनाव से हमें क्या क्या सीखना चाहिए।
ऐसी ही एक चर्चा के दौरान मेरे एक मित्र ने आह भरते हुए कहा की, काश ओबामा हमारे यहाँ होते, दूसरे ने तपाक से कहा की यदि यहाँ होते तो किसी धर्म, या जाति, या रंग के नाम पर वोट मांग रहे होते। मगर सच कहूँ तो मुझे दोनों ही तर्क जज्बाती लगे, अमेरिका को ख़ुद रंग के भेद से निकलने में २०० से ज्यादा साल लग गए। मगर इतना तो जरूर है की फ़िर भी हर लिहाज़ से वे आज भी सच्चे लोकतंत्र का निर्वाह कर पा रहे हैं , या कहूँ की वे ही कर रहे हैं, हम तो बस नाटक ही कर रहे हैं। क्या हम लोग, आम लोग, कभी चुनाव की तैयारी करते हैं ? प्रश्न आ सकता है की , हम क्या तैयारी करें भाई, हमने तो वोट डालना है, सोच कर डाल देंगे। और हम बस इतना ही करते हैं, कई बात सोच कर कई बार या अधिकतर किसी न किसे प्रभाव में आकर, और अब तो हम इससे भी आगे निकल चुके हैं , पिछले चुनाव में कई जगह मतदान का प्रतिशत तो ३० से भी कम जा चुका था, वाह क्या बात है, यानि की ७० प्रतिशत लोगों को मतदान से कोई लेना देना नहीं है।

क्या इतना भी नहीं किया जा सकता की वोट मांगे वालों से चाँद प्रश्न किए जाएँ, यदि उम्मेदवार पुराना है तो उसके कार्यों का सारा लेखा जोखा , वो भी प्रमाण सहित , सिर्फ़ बातों में नहीं, भविष्य में सांसद निधि या जो भी फंड है उनकी खर्च की योजना, सिर्फ़ सामयिक मुद्दों और जरूरतों , बिजली पानी से आगे, विज्ञानं , कन्या भ्रूण हत्या , भर्ष्टाचार आदि पर अपनी तैयारी करें, फ़िर परखें। बदकिस्मती से यहाँ अब तक आमने सामने परिचर्चा, संगोष्ठी आदि की कोई व्यवस्ता हम नहीं ढूंढ पाये हैं। और सबसे अहम् दो जरूरी बातें ये की किसी भी परिस्थिति में वो अपने विचारों से , दल से, अपने लोगों को ठेंगा दिखा कर सिर्फ़ कुर्सी के लिए ही ना लड़ते मरते रहे, और इसके लिए जरूरी है की उन्हें किसी भी समय या फ़िर किसी नियत समय पर वापस बुलाने का अधिकार मिलना चाहिए।

सबसे बड़ी विडंबना तो यही है की, ये सब करेगा कौन, जिस देश की राष्ट्रपति पद, पर , सबसे प्राभाव्शाली राजनितिक दल के मुखिया के पद पर और संसद में न जाने कितनी महिलाओं के होने के बावजूद महिला आरक्षण बिल नहीं पास होने दिया जा रहा है वहां ऐसे सुधारों को कौन लागू कर सकता है।
तो हम तो सिर्फ़ इतना कर सकते हैं की चुनाव से पहले अपना होम वर्क पूरा करें, मन लगा कर सचा प्रतिनिधि चुनें, क्योंकि ये हम कर सकते हैं, शायद यहां भी कोई ओबामा मिल जाए ............

ब्लॉग्गिंग पर मारा आलेख २९ समाचार पत्रों में छपा



जैसा की बहुत पहले ही सोचा था कि जब ब्लॉग्गिंग हो ही रही है तो , इसके बारे में अन्यत्र भी चर्चा होनी चाहिए, खासकर उन माध्यमों में तो जरूर ही जहाँ मैं सक्रिय हूँ, पहले रेडियो, फ़िर प्रिंट में भी सोचा था, आखिरकार ब्लॉग्गिंग के विषय में पहला आलेख फीचर के माध्यम से अब तक २९ समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में छपा। सबसे अच्छी बात ये रही कि ये आलेख, हैदराबाद, श्रीगंगानगर, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार आदि कई राज्यों में छपा। मेरी कोशिश तो यही रही कि सब कुछ लिख सकूँ , पर जाहिर है कि एक ही पोस्ट में ऐसा सम्भव नहीं था, इसलिए फैसला किया है कि ,जल्द ही एक नियमित स्तम्भ , "ब्लॉग बातें " विभ्हिन्न समाचार पत्रों में दिखाई देगा, योजना को मूर्त रूप देने में लगा हूँ, आप लोगों का साथ रहा तो जल्दी ही और भी कुछ सामने आयेगा.

ब्लॉग्गिंग पर मारा आलेख २९ समाचार पत्रों में छपा



जैसा की बहुत पहले ही सोचा था कि जब ब्लॉग्गिंग हो ही रही है तो , इसके बारे में अन्यत्र भी चर्चा होनी चाहिए, खासकर उन माध्यमों में तो जरूर ही जहाँ मैं सक्रिय हूँ, पहले रेडियो, फ़िर प्रिंट में भी सोचा था, आखिरकार ब्लॉग्गिंग के विषय में पहला आलेख फीचर के माध्यम से अब तक २९ समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में छपा। सबसे अच्छी बात ये रही कि ये आलेख, हैदराबाद, श्रीगंगानगर, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार आदि कई राज्यों में छपा। मेरी कोशिश तो यही रही कि सब कुछ लिख सकूँ , पर जाहिर है कि एक ही पोस्ट में ऐसा सम्भव नहीं था, इसलिए फैसला किया है कि ,जल्द ही एक नियमित स्तम्भ , "ब्लॉग बातें " विभ्हिन्न समाचार पत्रों में दिखाई देगा, योजना को मूर्त रूप देने में लगा हूँ, आप लोगों का साथ रहा तो जल्दी ही और भी कुछ सामने आयेगा.

बुधवार, 5 नवंबर 2008

गंगा का राष्ट्रीयकरण कोई हल नहीं.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने पता नहीं किन कारणों से गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया है। इसके साथ ही गंगा के पुनरुद्धार के लिए बहुत सी योजनायें और ढेर सारी राशि भी आवंटित की गयी है। गंगा के उद्धार और सफाई के लिए पहले से किए जा रहे सारे कार्यों , प्रयासों तथा इस फैसले से सिर्फ़ एक बड़ा अन्तर ये पडेगा की गंगा की सारी जिम्मेदारी अब केन्द्र सरकार उठाएगी। लेकिन सवाल ये है की इससे क्या और कितना फर्क पडेगा, क्योंकि अलग अलग ही सही अब तक करोड़ों, जी हाँ लाखों नहीं करोड़ों रुपये, दर्ज़नों योजनायें, और न जाने कितने संकल्प लिए गए । अन्तिम सत्य यही है की गंगा आज भी प्रदूषित है और दुःख की बात ये है की ये क्रम न सिर्फ़ जारी है बल्कि ज्यादा तेज है। और सबसे बड़ी विडंबना तो यही है , की सरकार और प्रशाशन की जिम्मेदारी, उनकी संवेदना की तो जाने दें, एक आम भारतीय को भी आज किसी गंगा , जमुना, कृष्ण, गोदावरी, या मिटटी , पेड़, हवा के प्रदूषण के प्रति जरा सी भी चिंता नहीं है। इसके बारे में सोचना या कुछ करना तो दूर उसे आज ये एहसास तक नहीं है की धीरे धीरे वो जो जहर वातावरण में घोल रहा है वो ख़ुद उसकी आनी वाली नस्लों को ही लील जायेगा। सबसे जरूरी है लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना। इसके साथ ही जो भी इसे नुक्साब पहुंचाने में लगे हैं उनके साथ किसी अपराधी की तरह व्यवहार किया जाना चाहिए। ऐसा हो पायेगा लगता नहीं है।
सिर्फ़ राश्त्रियाकर्ण करने से एडी समस्या का हल हो जाते तो बात ही क्या थी। चाहे राष्ट्र भाषा हिन्दी की बात करें, या राष्ट्रीय खेल हॉकी की, राष्ट्रीय कह भर देने से या घोषणा कर देने से क्या बदल जाता है, ये बात किसी से छुपी नहीं है। और तो आए दिन हमारे राष्ट्रीय झंडे, राष्ट्रीय चिन्ह, राष्ट्रीय गान तक का अपमान होता रहता है, कभी हम ख़ुद करते हैं कभी दूसरे कर देते हैं। इस राष्ट्रीय कारन वाली बात से कहीं फ़िर ऐसा न हो की गंगा नहीं यमुना को, या गोदावरी को क्यों नहीं राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया, वैसे लगता तो नहीं है की ऐसा होना चाहिए , मगर आज कल कुछ भी हो सकता है। यदि इस घोषणा के बाद सरकार सचमुच गंभीर होकर गंगा के उद्धार के लिए प्रयास करे और लोगों को इसके प्रति संवेदनशील किया जाए तो शायद एक दिन हम भी टेम्स, और सीन, या नील नदी की तरह गंगा को अपने पुराने और शुध्ध रूप में पा सकें। गंगा सचमुच ही मैली हो गयी है हमारे पाप धोते धोते .