इन दिनों जिधर भी जाता हूँ अमेरीकी चुनाव और बराक ओबामा की जीत की ही चर्चा चल रही होती है, स्वाभाविक भी है , और सच कहूँ तो मुझे इससे कोई परहेज़ भी नहीं है, मगर थोड़ा दुःख और आश्चर्य जरूर होता है, भविष्य में हामारे चुनाव भी तो आने वाले हैं। क्या हम कभी गंभीरतापूर्वक ये सोच सकते हैं की अमेरीकी चुनाव से हमें क्या क्या सीखना चाहिए।
ऐसी ही एक चर्चा के दौरान मेरे एक मित्र ने आह भरते हुए कहा की, काश ओबामा हमारे यहाँ होते, दूसरे ने तपाक से कहा की यदि यहाँ होते तो किसी धर्म, या जाति, या रंग के नाम पर वोट मांग रहे होते। मगर सच कहूँ तो मुझे दोनों ही तर्क जज्बाती लगे, अमेरिका को ख़ुद रंग के भेद से निकलने में २०० से ज्यादा साल लग गए। मगर इतना तो जरूर है की फ़िर भी हर लिहाज़ से वे आज भी सच्चे लोकतंत्र का निर्वाह कर पा रहे हैं , या कहूँ की वे ही कर रहे हैं, हम तो बस नाटक ही कर रहे हैं। क्या हम लोग, आम लोग, कभी चुनाव की तैयारी करते हैं ? प्रश्न आ सकता है की , हम क्या तैयारी करें भाई, हमने तो वोट डालना है, सोच कर डाल देंगे। और हम बस इतना ही करते हैं, कई बात सोच कर कई बार या अधिकतर किसी न किसे प्रभाव में आकर, और अब तो हम इससे भी आगे निकल चुके हैं , पिछले चुनाव में कई जगह मतदान का प्रतिशत तो ३० से भी कम जा चुका था, वाह क्या बात है, यानि की ७० प्रतिशत लोगों को मतदान से कोई लेना देना नहीं है।
क्या इतना भी नहीं किया जा सकता की वोट मांगे वालों से चाँद प्रश्न किए जाएँ, यदि उम्मेदवार पुराना है तो उसके कार्यों का सारा लेखा जोखा , वो भी प्रमाण सहित , सिर्फ़ बातों में नहीं, भविष्य में सांसद निधि या जो भी फंड है उनकी खर्च की योजना, सिर्फ़ सामयिक मुद्दों और जरूरतों , बिजली पानी से आगे, विज्ञानं , कन्या भ्रूण हत्या , भर्ष्टाचार आदि पर अपनी तैयारी करें, फ़िर परखें। बदकिस्मती से यहाँ अब तक आमने सामने परिचर्चा, संगोष्ठी आदि की कोई व्यवस्ता हम नहीं ढूंढ पाये हैं। और सबसे अहम् दो जरूरी बातें ये की किसी भी परिस्थिति में वो अपने विचारों से , दल से, अपने लोगों को ठेंगा दिखा कर सिर्फ़ कुर्सी के लिए ही ना लड़ते मरते रहे, और इसके लिए जरूरी है की उन्हें किसी भी समय या फ़िर किसी नियत समय पर वापस बुलाने का अधिकार मिलना चाहिए।
सबसे बड़ी विडंबना तो यही है की, ये सब करेगा कौन, जिस देश की राष्ट्रपति पद, पर , सबसे प्राभाव्शाली राजनितिक दल के मुखिया के पद पर और संसद में न जाने कितनी महिलाओं के होने के बावजूद महिला आरक्षण बिल नहीं पास होने दिया जा रहा है वहां ऐसे सुधारों को कौन लागू कर सकता है।
तो हम तो सिर्फ़ इतना कर सकते हैं की चुनाव से पहले अपना होम वर्क पूरा करें, मन लगा कर सचा प्रतिनिधि चुनें, क्योंकि ये हम कर सकते हैं, शायद यहां भी कोई ओबामा मिल जाए ............
6o years ago we had Obama like Leader Ambedkar but our Brahanism never liked him. We people are still doing such things.
जवाब देंहटाएंअमेरीकी लोक तंत्र का आधार मिडीया है। जिसने अच्छा मिडीया मेनेजमेंट किया वह जीत गया। जिसके मिडीया कंसल्टेंट और ईभेंट मैनेजर ने उत्कृष्ट काम किया उसे चुन लेगी अमेरिकी जनता अपने राष्ट्रपति के रुप में।
जवाब देंहटाएंहमारे देश मे मुश्किल से 5 प्रतिशत जनता टीभी, अखबार या एफ.एम के जरिए अपना विचार निर्माण करती है। इसलिए इस दृष्टी से हमारे यहा एक मजबुत लोकतंत्र है। लेकिन विदेशी शक्ति सम्पन्न राष्ट्र अब हमारे यहां भी मिडीया मे छदम निवेश बढा रहे है। तो हम यह मान सकते है की भविष्य मे हमारे यहां
भी वही जितेगा जिसकी मिडीया मे अच्छी पकड हो। जनता जाए भाड में।
जो भी हो, अमेरीकी जनता ने ओबामा को अपना मुखिया चुन लिया है। उनको ढेर सारी बधाई। भारत मे भी जो लोग उत्पीडीत है, वह आगे आए यही ईश्वर से प्रार्थना करता हुं।
sir, lage rahiye. vichar murt hote hain to ek dusre ko samjne ka mauka milta hai.
जवाब देंहटाएंsatyendra.
aap sabkaa bahut bahut dhanyavaad. haan shaayad aap logon ne sach hee kahaa hai ki cheezein badalte badalte badaltee hain, satyendra jee aapko apne blog par paakar prasannta huee.
जवाब देंहटाएं