गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

कोई संस्थान बताईये जहां बूट पौलिश करने , बाल काटने, स्कूटर ठीक करने, और कपडे सीने का डिप्लोमा दिया जाता हो !!!!!!









आज अदालत में एक मुकदमे के दौरान दुर्घटना पीडित एक व्यक्ति की गवाही के दौरान उससे पूछा गया कि वो काम क्या करता है । सबसे पहले ये बता दूं कि जब दुर्घटना के लिए कोई पीडित व्यक्ति मुआवजा दावा डालता है तो उसे ये भी बताना होता है कि वो क्या काम करता था , ताकि उसकी आमदनी और दुर्घटना से उसमें होने वाली हानि का पता लगाया जा सके और उसीके अनुसार उसे मुआवजा दिलवाया जा सके । जो कुछ भी नहीं करते उनका निर्धारण न्यूनतम मजदूरी के हिसाब से लगाया जाता है , ऐसे ही गृहिणियों , आदि के लिए भी अलग अलग मापदंड बने हुए हैं ।खैर ,।
        
               तो जैसाकि मैं बता रहा था कि जब उस पीडित से , जो कि हादसे में बदकिस्मती से अपना एक पैर गंवा चुका था , पूछा गया कि वो काम करता है । उसका जवाब था ..जी मैं सडक किनारे बैठ कर बूट पौलिश करता हूं । मन तिक्तता से भर गया । इसलिए कि एक तो पहले ही वह कौन सा कम मुसीबतों का मारा होगा जो अब ये भी हो गया इसके साथ । उसकी गवाही के बाद वकील प्रतिपक्ष ने उसे क्रौस करना शुरू किया । क्या आप इस बात का कोई सुबूत पेश कर सकते हैं कि आप उस सडक पर बैठ कर बूट पौलिश करते थे , जवाब मिला ...हां मेरे साथ और भी लडके हैं वहां पर , वे आपको बता सकते हैं । क्या आप इस बाबत कोई सुबूत पेश कर सकते हैं कि आपको बूट पौलिश करके कितनी कमाई होती थी । अगला प्रश्न था कि क्या आपने इसके लिए कोई प्रशिक्षण लिया है । हालांकि वकील प्रतिपक्ष अपना काम कर रहे थे ....मगर मैं मानवीय संवेदनाओं के अनुरूप जलभुन कर रह गया । मगर उस वाकए ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया .......


आखिर जूते पौलिश करने, बाल काटने, कपडे सीने, स्कूटर ठीक करने , छोटी दुकानों पर काम करने वालों के लिए सरकार कोई प्रशिक्षण कार्यक्रम क्यों नहीं चला सकती । (हालांकि शायद मैकेनिक और टेलर के लिए तो शायद पाठ्यक्रम हैं भी , हां इसकी उपयोगिता कितनी है मुझे नहीं पता ) ।


यदि इस तरह के नए विचार और योजनाएं लाई जाएं तो कम से कम लाखों उन लोगों को जो इन व्यवासायों में लगे हुए हैं उन्हें भी एक हद तक तकनीकी श्रेणी में लाया जा सकेगा ।




आखिए क्यों नहीं इन सभी कार्यों को भी दक्षता के साथ पाठ्यक्रमों के रूप में निराश्रित , बेसहारा , मजदूर बालकों के लिए लाया जाता है , ताकि कम से कम प्राथमिक शिक्षा के बावजूद भी या उसके बिना भी उनका वो हाल न हो जो होता आ रहा है ।


और भी बहुत से प्रश्न हैं जो मन में उमड घुमड रहे हैं ,क्या कभी ऐसा हो पाएगा कि कभी किसी सैलून में मुझे कोई फ़्रेम कराया प्रमाणपत्र मिले जिसमें लिखा हो ...हरीराम नाई , बाल काटने में अहर्ता...अंतर स्नातक , ...किसी दर्जी की दुकान में प्रमाण पत्र मिले ..करीम भाई ..मखदूमपुर अंतर विश्चविद्यालय से सिलाई कटाई में स्नातक और ऐसे ही । यहां सरकार आज भी तरह तरह के अधिकार का झुनझुना ही बजाने में लगी है । मगर जो नगाडा बेरोजगारी शिक्षित बेरोजगारों का बजा रही है उसकी गूंज सरकार को नहीं सुनाई देती है ,,जाने क्यों ।.................

27 टिप्‍पणियां:

  1. boot polish kae allawaa aap ne jo likha haen sabka diploma diya jaataa haen ajay swaal yae bhi ki in bachcho ko inkae mataa pita shikshit kyun nahin kartey

    hamari ghar ki 34 saal ki bartan saaf karnae vaali kae 6 bachchey haen 7 vae ki tyaari haen aur unmae sae 5 ladkiyaa 2200 rupay pratimaah kamaa kar {vahi jhadu pochcha aur bartan } maa baap ko daeti haen

    aaj hi maene us sae kehaa ki sarkaar free education deti haen inko padhao to boli padh kar kyaa hogaa
    aap ke ghar ka kaun saa bachcha 12-13 saal ki umr mae 22000 rupya kamaataa haen

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  2. अजय भैया पहली बात तो यह कि यह कैसा न्याय रहा..जिसका आय कम है उसे तो और अधिक मुआवज़ा मिलनी चाहिए ताकि अच्छे ढंग से इलाज करा सके ..यहाँ तो और भी उल्टा.....


    और दूसरी बात कभी तक मुझे कोई ऐसी संस्थान का पता नही है जब पता चला बता दूँगा..

    बढ़िया चर्चा...नमस्कार भैया

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  3. बात तो बड़ी गम्भीर उठाई आप ने लेकिन मेरे मन में एक बात आई है यदि संसद और विधानसभाओं के आस पास इस तरह के संस्थान खुलें तो..... ...

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  4. ... और अक्सर खबरें आती हैं कि भारत में कुशल श्रमिकों की कमी से उद्योगपति चिंतित

    यहाँ विवाह पश्चात के भारतीय संस्कार सिखाने वाली संस्थायें मिल जायेंगी, आजीविका के लिए बूट पॉलिश सिखाने वाली नहीं

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  5. अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही है आप ने। वैसे इन कामों को मजबूरी की पाठशाला स्वयं ही सिखा देती है। मुसीबत तो यह है कि मजबूरी की पाठशाला में कोई प्रिंसिपल नहीं होता। और शिक्षक तो विद्यार्थी खुद चुन लेता है।
    इन की आय का कोई प्रमाण पत्र नहीं देता एक आयकर विभाग है जहाँ से प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए रिटर्न भरना पड़ता है।

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  6. केन्द्र सरकार की एस डी आई योजना के द्वारा राज्यों के आई टी आई संस्थानो द्वारा 231 ट्रेड में वोकेशनल ट्रेनिंग दी जाती है तथा एन सी वी टी द्वारा स्वीकृत स्थानों पर यह पाठ्यक्रम प्रारंभ है। इसका पाठयक्रम आर डी ए टी कानपुर ने बनाया है तथा इसका प्रमाण पत्र भी वही देती है। इस पाठ्यक्रम के लिए न्युनतम शैक्षणिक योग्यता 5वीं क्लास है। आयु की कोई सीमा नही है। कोई भी व्यक्ति अपनी कार्यकुशलता दिखा कर 30 घंटे से 750 घंटे के पाठ्यक्रम का चुनाव कर सकता है।

    अभी तो इतनी ही जानकारी दे रहा हुँ। इस पर पोस्ट लिख कर पुरी जानकारी दुंगा। बहुत ही अच्छा पाठयक्रम है। इसकी मान्यता विदेशों में भी है।

    आपने एक अच्छा सवाल पुछा, मैं तो इसे भुल ही गया था। जबकि हमने इसे लागु करवाने के लिए काफ़ी पसीना बहाया था।

    आभार

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  7. आपके उमड़ते घुमड़ते विचार ने आज एक बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
    से अवगत कराया. दरअसल बूट पोलिश केश कर्तन आदि का प्रशिक्षण
    पापी पेट ही संस्था बन करवा देता है. और जब ख्याति प्राप्त की बात
    आती है तो फिर उसके लिए भी अवसर है. शायद है संस्था तभी तो
    बड़े बड़े कलाकारों के केश सजाने संवारने के लिए प्रशिक्षित लोग जाते हैं.
    वैसे अच्छे विचार उमड़े और घुमड़े हैं

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  8. Ye Late Sh Bhimrav Ambedkar ji ka banaya gaya kanoon hai.


    Ab Naya kanoon Banana chahiye....

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  9. भाई ललित की टिपण्णी पढ़ नहीं पाया था
    अतएव कहना चाहूँगा की उनके द्वारा उपलब्ध करै गई जानकारी पर्याप्त है.

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  10. बढिया मुद्दा उठाया आपने .. ललित शर्मा जी की पोस्‍ट का इंतजार है!!

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  11. अजय जी आप ने बहुत सुंदर बात कही, वेसे हमारे भारत देश मै एक मजदुर को बहुत कम वेतन मिलता है, यानि हमारे मजदुर एक तरह से गुलामी की जिन्दगी ही व्यातीत करते है, हम कदम कदम पर युरोप की नकल करते है तो क्यो नही हाथ के काम करने वाले को उन के घंटॊ के हिसाब से वेतन दे.. जब इन मजदुरो को सही वेतन मिलेगा तो यह भी अपने बच्चो को हर तरह का कोर्स करवायेगे, उन्हे पढायेगे...... ओर उस दिन भारत सही मायनो मै तरक्की करेगा

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  12. शायद इलाहाबाद पालिटेक्निक में इस तरह के कई दडिप्लोमा के कोर्स चलाए जाते है मगर जूता पालिश करना तो कही भी नहीं सिखाया जाता होगा

    मुझे तो यही लगता है

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  13. अजय भाई , कुछ बातें ऐसी होती हैं जिसके लिए किसी डिग्री या डिप्लोमा की ज़रुरत नहीं पड़ती । उलटे डिग्री वाले दर दर भटकते हैं। बच्चे को बोलना , चलना , खड़े होना आदि , कुदरती तौर पर अपने आप आ जाता है ।
    इन अनस्किल्ड लेबर का भी यही हाल है। सब अनुभव से सीख जाते हैं। लेकिन कानून की अपनी सीमायें हैं। वहां तो खुद को भी खुद साबित करना पड़ सकता है।

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  14. ग्रामीण विकास अभिकरण विभाग ऐसे छोटे छोटे काम धंधों की ट्रेनिंग दिलवाता है | मैंने भी आज से २४ साल पहले कई लोगों को इसी योजना के तहत फोटोग्राफी का प्रशिक्षण दिया था जिनमे से आज कई लोग अपने फोटोग्राफी स्टूडियो चला रहे है |
    ऐसी योजनाओं की अब ज्यादा जानकारी मुझे नहीं रही |

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  15. ललित जी एवं आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया बताने के लिए ऐसे संस्थानों के विषय में हालांकि मैं जानता था कि कुछ संस्थान बहुत सारे छोटे छोटे कोर्सेस करवाते हैं । मगर मेरे इस पोस्ट में इस मुद्दे को उठाने का मकसद सिर्फ़ ये था कि आखिर जो गरीब ,मजदूर, बेसहारा बच्चे आज अनाथालयों , सुधार गृहों आदि में पडे हुए हैं सह रहे हैं ,क्या सरकार नियोजित रूप से बाकायदा इन छोटे छोटे कार्यों उद्योग के रूप में परिवर्तित नहीं कर सकती । मुंबई के डिब्बे वाले , या कोई और , सबने शुरूआत तो कहीं न कहीं से की ही होगी । इन पाठ्यक्रमों के बारे में , पता नहीं कितना जानती होगी आम जनता खासकर वे गरीब जिन्हे ये लाभ पहुंचा सकती है ।

    रचना जी आपने जो बात उठाई है , उस पर एक पोस्ट फ़िर कभी

    अजय कुमार झा

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  16. रचना जी ने जो सवाल उठाये हैं वही आज की ज़मीनी स्थिति है, मैं भी एक उदाहरण देना चाहता हूं… रचना जी ने तो शहरों की स्थिति बताई, गाँवों में भी हालत कोई अलग नहीं है। सरकार ने मध्यान्ह भोजन योजना और कमजोर वर्गों के लिये मुफ़्त शिक्षा का प्रावधान रखा है, वहाँ जाकर देखने पर पता चलता है कि बच्चे स्कूल में सिर्फ़ खाना खाने आते हैं। एक परिवार में पति-पत्नी, 4 या 5 बच्चे, पति-कुशल कारीगर या बड़ा मजदूर (250 रुपये रोज), उसकी बीबी (150 रुपये रोज), 5 बच्चों में से कम से कम तीन बच्चे 50-100 रुपये रोज, महीने का कितना हुआ 15,000 रुपये… ऐसे में भला कौन अपने बच्चों को स्कूल या शिक्षण संस्थान भेजना चाहेगा? समस्या ज़मीनी स्तर पर फ़ैली घोर गरीबी की है, यदि बच्चे पढ़ने चले जायें तो सीधे-सीधे महीने के 3000 रुपये की आमदनी कम हो जाती है, और उन लोगों के इस सवाल का जवाब देना तो और भी मुश्किल हो जाता है कि "पढ़-लिखकर भी क्या कर लेंगे?"

    आपने जिस प्रकार के संस्थानों की आवश्यकता बताई है, वह आइडिया केन्द्र सरकार के ITI संस्थानों के पास पहले से लम्बित है, पर ITI तक पहुँचने के लिये भी आठवीं-दसवीं तो पास करनी पड़ेगी ना?

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  17. बढिया मुद्दा उठाया आपने

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  18. अजय जी, आपने इंस्टीट्यूट के बारे में कहा आैर कई साथियों ने गिना भी दिये! बहुत अच्छा है जो इस तरह के इंस्टीट्यूट हैं। पर मेरा सवाल यह है कि जिस वर्ग के लोगों की आप बात कर रहे हैं क्या वे उन प्रशिक्षण संस्थानों में दाखिला भी पा सकेंगे? क्या उनके पास कोर्स की फीस अदा करने लायक धनराशि है? आैर जिन साथियों ने संस्थानों का ज़िक्र किया है कृपया वे यह बताएं कि नि:शुल्क प्रशिक्षण प्रदान करने वाले कितने संस्थान हैं?
    ठीक है कि बाल काटने, कपड़े सीने का प्रशिक्षण मिल जाता है, परंतु इस प्रशिक्षण के बाज़ारीकरण की तरफ देखना भी ज़रूरी है। सोचने वाली बात यह है कि प्रशिक्षण संस्थान आैर अवसर होने पर भी बाल काटने, स्कूटर ठीक करने, कपड़े सीने, जूता बनाने, बिजली का काम करने वाले, प्लंबर, फ़र्नीचर बनाने, झाड़ू बनाने, बांस की टोकरियां बनाने आैर एेसे ही कई आैर काम करने वाले अधिकांश लोग बिना किसी डिप्लोमा या डिग्री के ही क्यों हैं?
    बहरहाल आपने एक बेहतर सवाल उठाया है कि क्या सरकार नियोजित रूप से बाकायदा इन छोटे छोटे कार्यों उद्योग के रूप में परिवर्तित नहीं कर सकती?
    शुक्रिया!

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  19. @ सुरेश जी, रचना जी

    आपने जो बात कही वह सच है। यदि कोई बिना शिक्षा के ही जीविकोपार्जन कर रहा है तो उसके लिए शिक्षा की कोई अहमियत नहीं है। हमेशा की तरह रोटी आज भी एक बड़ा सवाल है। दूसरा जो विकराल प्रश्न है वह है - पढ़-लिख कर भी क्या करेंगे?
    इस सवाल का जवाब तो भई सरकार ही दे सकती है जिसके हाथ में शिक्षानीति है। दरअसल हमारी शिक्षा व्यवस्था किताबी ज्ञान के अलावा कुछ नहीं परोसती। कम से कम 12वीं तक तो निश्चित ही नहीं। यानि आपके कैरियर में, जीविकोपार्जन में जो काम आ सकता है वो आपको 12वीं के बाद उपलब्ध होगा। दूसरी आेर हमारे देश के विद्यालयों में व्यावसायिक शिक्षा भी कक्षा 10 के बाद ही शुरू होती है। यानि 10वीं तक तो आप उसके योग्य ही बनते हैं। आैर फिर जब पढ़े-लिखे बेरोज़गारों के किस्से आम सुनाई देते हों तो ग़रीब मज़दूर वर्ग किस उम्मीद पर अपनी गाढ़ी कमाई उस शिक्षा पर ख़र्च करने के लिए तैयार होगा जिससे किसी हासिल की उसे उम्मीद नहीं।
    कल ही से सरकार ने 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए नि:शुल्क आैर अनिवार्य शिक्षा का कानून लागू किया है, निश्चित ही इससे शिक्षितों की संख्या में फ़र्क पड़ेगा।
    पर जो विकराल प्रश्न है, वह फिर भी कायम है। उसका समाधान में शायद नि:शुल्क व्यावसायिक शिक्षा एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।

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  20. बहुत ही सही मुद्दा उठाया है,आपने...अगर मुआवजा उनकी आमदनी ही निर्धारित करती है...फिर तो यह बहुत ही दुखद स्थिति है....गंभीरता से सोचना चाहिए इस विषय पर.

    पर अभी हमारे देश का जो हाल है....अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी इस कदर व्याप्त है कि अगर ये सारे काम भी ट्रेनिंग वाले लोग करने लगें फिर ये फूटपाथ पर रहने वाले,अनाथ, बेसहारे कहाँ जाएंगे...अभी दो इज्जत की रोटी तो कमा ले रहें हैं...

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  21. बहुत ही सटीक मुद्दे को इंगित किया है आपने.

    रामराम.

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  22. अह्म मुद्दा है और इस दिशा में गंभीर विचार करना चाहिये.

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  23. कोर्ट में अक्सर इस तरह की मर्मस्पर्शी स्वाभविक समस्याओं की बेदर्द चीरफाड़ रोज ही देखते होंगे ! आप जैसा संवेदनशील व्यक्ति कोर्ट की रूखी और निर्दयी वास्तविकता कैसे झेलता होगा ...यही सोच रहा हूँ !
    शुभकामनायें अजय भाई !

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  24. क्या बताऊं सतीश जी कभी कभी तो लगता है कि शायद कुछ लोग ठीक ही कहते हैं कि आप गलत जगह पर हैं , पर किया क्या जाए ..नियति सब तय कर देती है ..।
    एक बार एक बलात्कार आरोपी को खूब गालियां दी थी मैंने और पीडिता जो कि एक बच्ची थी शायद सात वर्ष की , उसके परिवार वालों से कहा था कि इसे समय मिलते ही हाथ पांव काट देना या कटवा देना ,,,बाद में बहुत दिनों तक सोचता रहा था कि मैंने ये क्यों किया । ????

    अजय कुमार झा

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  25. [red] sab ne kaha aur main kahun to kam hai ...........


    meri baate jayada se taluk rakhtee hai

    aur theek bhi hai kyoki ham sab ek dharm ke insaan hai manviy sambedna

    IGNOU ek motorcycle repring me diploma karwa rahi hai aur koi jaan kaar ho to batayen aur is cource ko karne se mujhe lagta hai sarkari madad mil saktee hai

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला