रविवार, 28 मार्च 2010
लिव इन रिलेशनशिप : फ़ैसले पर एक दृष्टिकोण
यूं तो अभी इस मुद्दे पर लंबित मुकदमें में न्यायालय का अंतिम फ़ैसला नहीं आया है , और जाने किन किन आधारों पर मीडिया में इस मुद्दे को लेकर तमाम तरह की खबरें , रिपोर्टिंग और सर्वेक्षण तक दिखाए समझाए जा रहे हैं । इस फ़ैसले को लेकर बहस, और फ़ैसले के बाद की स्थितियों , बदलने वाली तमाम सामाजिक अवधारणाओं पर रायशुमारी , विश्लेषण आदि भी खूब किए जा रहे हैं । समाचार से लेकर अंतर्जाल तक पर इसी मुद्दे पर खूब लिखा और पढा जा रहा है । आज इसी मुद्दे पर एक आम आदमी की तरह सोच कर एक दृष्टिकोण रखा जाए ।
अभी अदालत का फ़ैसला नहीं आया है इसलिए ये कहना कि उस फ़ैसले में वास्तव में न्यायालय ने कहा क्या है ये कहना जल्दबाजी होगी मगर फ़िर भी कुछ बातें तो स्पष्ट हो ही जाती हैं । न्यायालय का मत है कि (जैसा कि समाचार में बताया जा रहा है ) कि दो वयस्क पुरूष महिला बिना विवाह के भी एक साथ एक युगल दंपत्ति की तरह रहते हैं , उनका आपसी शारीरिक, मानसिक रिश्ता एक पति पत्नी की तरह का होता है तो वो भारतीय कानून के लिहाज़ से अपराध नहीं माना जाएगा । अब ये देखते हैं कि इसकी पृष्ठभूमि क्या थी । दरअसल इससे पहले भी जब समलैंगिकता पर भी न्यायालय का निर्णय आया था उसका भी अर्थ और अनर्थ सबने अपने अपने हिसाब से लगाया था । जबकि वास्तव में इसके पीछे बात कुछ और ही थी । पिछले कुछ वर्षों में महानगरीय समाज में , बहुत सी नई प्रवृत्तियां और बहुत से नए चलन , जैसे समलैंगिकता, ये लिव इन रिलेशनशिप , किराए की कोख आदि तेजी से बढीं और आत्मसात की जाने लगीं । यदि ये गरीब तबके , मजदूरों के समाज में होता तो भी शायद उतना बवेला न मचता..मगर जो समाज इस आयातित संस्कारों को अपना रहा था ( हालांकि बहुत से समाजशास्त्री इस बात को मानते हैं कि इन सबका अस्तित्व भारतीय इतिहास में भी मिलता है ) वो तथाकथित रूप से आधुनिक समाज का एलीट क्लास था । मौजूदा कानूनों के तहत जब पुलिस प्रशासन ने इन्हें परेशान करना शुरू किया और उनका साथ दिया शिवसेना और उन जैसी बहुत सी संस्थाओं ने जिन्होंने भारतीय संस्कृति के स्वयंभू ठेकेदारों का चोला पहना हुआ था , उन्होंने भी इस समाज के लिए मुश्किलें खडी करनी शुरू की तो थकहार कर सरंक्षण के लिए कानून का दरवाज़ा खटखटाया गया ।
इसके बाद अदालत ने बहुत सारी दलीलों और तर्कों , समाज में आ रहे बदलावों और सबसे बढकर भारतीय दंड संहिता को व्याख्यायित करते हुए अपने फ़ैसले सुनाए । अदालत के फ़ैसले के अनुसार , यदि दो वयस्क युगल किसी भी सामाजिक रिश्ते, वैवाहिक संस्कार और ऐसे ही किसी परिचर्या के बगैर भी आपस में एक दंपत्ति की तरह रहते हैं तो उसे गैरकानूनी नहीं माना जाएगा । मगर अदालत ने कहीं भी ये नहीं माना है कि सदियों से चली आ रही विवाह संस्था का कोई मायने नहीं है । अदालत ने ये भी कहीं नहीं कहा कि लिव इन रिलेशनशिप विवाक का कोई विकल्प है , ये भी नहीं कहा गया कि इस लिव इन रिलेशनशिप को एक परंपरा के रूप में अपनाने से महिलाओं की स्थिति में कोई बडा भारी परिवर्तन आ जाएगा । यहां एक और बात का जिक्र समीचीन होगा । इसी मुद्दे पर एक प्रश्न ये उछाला गया कि यदि ऐसा ही है तो फ़िर इसे किस तरह से वेश्यावृत्ति से अलग रूप में देखा जा सकेगा । बहुत ही सरल सी बात है , अदालत का मंतव्य सिर्फ़ ये है कि दो युगल ..दंपत्ति की तरह रह रहे हों ..न कि दो युगलों ने किसी भी कारण से आपसे में संबंध स्थापित किया या कि जबरन करवाया गया तो वो लिव इन रिलेशनशिप कहलाएगा । किसी विवाद की स्थिति में इसे अदालत में कैसे साबित किया जा सकेगा ..ये कोई भी कानूनविद बडी आसानी से समझ सकता है ।
अदालत के फ़ैसले के इतर इन नई सामाजिक प्रवृत्तियों से भविष्य में भारतीय समाज में होने वाले संभावित परिवर्तनों पर भी एक बहस शुरू हो चुकी है , मगर इन बहसों को इतनी व्यापकता देने वाले बहुत सी बातों को नज़र अंदाज़ कर रहे हैं । पहली बात ये सभी प्रवृत्तियां जिन देशों से जिस समाज से आयातित होकर पहुंच रही हैं क्या उन देशों में ये शतप्रतिशत सफ़ल साबित हो रही हैं ,क्या वहां विवाह जैसी संस्थाओं को दरकिनार किया जा रहा है । सुना तो ये है कि वे भी अब थकहार क्या या शायद एड्स जैसी बीमारियों के डर से ही सही पुन: भारती जैसे देशों के संस्कारों को अपनाने का मन बना रहे हैं । यदि वर्तमान भारतीय समाज की बात की जाए तो ये जो भी नई परिकल्पना अपनाई जा रही है .. वो अब भी महानगरीय समाज के सिर्फ़ एक खास और बहुत ही छोटा वर्ग है । और भारतीय समाज के विभिन्न सामाजिक आर्थिक और मानसिक स्तरों को देखते हुए लगता नहीं है कि इसे इतनी जल्दी सार्वभौमिक मान्यता मिल जाएगी । इसलिए इन बहसों के ये निहितार्थ निकालना कि सदियों या कहूं कि युगों से चली आ रही विवाह जैसी संस्था के अस्तित्व का कोई विकल्प मिल गया है ..बिल्कुल बेमानी है । मैं मानता हूं कि पलायनवाद ने ग्राम्य समाज जो भारतीय परंपराओं का सच्चा वाहक था , को भी लीलने का काम किया है । मगर देखा ये गया है कि शहरों में आ बसे लोग भी कहां अपनी परंपराओं को छोड पाते हैं । एक और ध्यान देने योग्य बात ये है कि मनुष्य स्वभाव से ही सामाजिक प्राणी रहा है और चाहे अनचाहे उसका एक समान बन ही जाता है ..रिश्ते कैसे भी हों अस्थाई या स्थाई . विवाह या लिव इन रिलेशनशिप .यदि उनमें रिश्ते की कोई भी बंदिश हुई तो सब कुछ वहीं आकर रुक जाएगा । यहां उन हिप्पी समाज का ज़िक्र करना ठीक होगा जो समूह में सिर्फ़ एक आनंद और नशे के प्रवाह में ही जीवन बिताते हैं । वैवाहिक संस्थाओं के औचित्य पर बहस करने वाले चंद बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोग शायद ये भूल जाते हैं कि सवा अरब की जनसंख्या वाले इस देश में यदि कोई बहस सडक पर उतर जाए तो ही उसकी सही दिशा और दशा का पता चलता है ..फ़िर ये थोडा सा विमर्श कितना प्रभावित कर पाएगा समाज को ये तो देखने वाली बात होगी । बहस लंबी चलेगी इसलिए फ़िलहाल इतना ही शेष अगले भाग में ...............
झा जी ,
जवाब देंहटाएंआज भारतीय समाज परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा ना ही सहजीवन और ना ही सम्लैंगिंक सम्बन्ध नए है ये हमेशा से थे पर पर्दों के पीछे ,आज अदालत के फैसले इन्हें व्यापक रूप से स्वीकार्यता दिला रहे है ....
आप ने बहुत खूबसूरती से अपनी बात को रखा है। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष के बीच ऐसा संबंध है जिस से दोनों एक दूसरे के प्रति किसी कानूनी दायित्व या अधिकार में नहीं बंधते। जब कि विवाह समाज विकास के एक स्तर पर विकसित हुआ जो पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति कानूनी दायित्वों और अधिकारों में बांधता है। जहाँ तक पितृत्व का प्रश्न है वह तो लिव-इन-रिलेशन में भी रहता है और संतान के प्रति दायित्व और अधिकार भी बने रहते हैं। इस युग में जब कि डीएनए तकनीक उपलब्ध है कोई भी पुरुष अपनी संतान को अपनी मानने से इंन्कार नहीं कर सकता।
जवाब देंहटाएंविवाह का स्वरूप भी हमेशा एक जैसा नहीं रहा। 1955 के पहले हिन्दू विवाह में एक पत्नित्व औऱ विवाह विच्छेद अनुपस्थित थे। यह अभी बहुत पुरानी बात नहीं जब दोनों पक्षों की इच्छा से वैवाहिक संबंध विच्छेद हिन्दू विवाह में सम्मिलित हुआ है।
लिव-इन-रिलेशन भी अपने अनेक रूपों के माध्यम से भारत में ही नहीं विश्व भर में मौजूद रहा है लेकिन आटे में नमक के बराबर। समाज व राज्य ने उस का कानूनी प्रसंज्ञान कभी नहीं लिया।
नई परिस्थितियों में लिव-इन-रिलेशन का अनुपात कुछ बढ़ा है। इस का सीधा अर्थ यह है कि विवाह का वर्तमान रूप वर्तमान समाज की आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त हो रहा है। कहीं न कहीं वह किसी तरह मनुष्य के स्वाभाविक विकास में बाधक बना है। यही कारण है कि नए रूप सामने आ रहे हैं। जरूरत तो इस बात की है कि विवाह के वर्तमान कानूनी रूप और वैवाहिक विवादों को हल करने वाली मशीनरी पर पुनर्विचार हो कि कहाँ वह स्वाभाविक जीवन जीने और उस के विकास में बाधक बन रहे हैं। जिस से लिव-इन-रिलेशन में जाने वाले लोगों को वापस विवाह की और लाया जा सके।
इस विषय पर आपने एक उपयोगी और तर्क संगत अलेख लिखा है. नियम कानून समयानुसार बदलते रहे हैं. वर्तमान परिपेक्ष्य में इस विषय पर बहस तो जरुरी हो ही गई है. अब कानून क्या कहता है यह देखने वाली बात होगी.
जवाब देंहटाएंरामराम
आप ने बहुत खूबसूरती से अपनी बात को रखा है। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष के बीच ऐसा संबंध है जिस से दोनों एक दूसरे के प्रति किसी कानूनी दायित्व या अधिकार में नहीं बंधते। जब कि विवाह समाज विकास के एक स्तर पर विकसित हुआ जो पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति कानूनी दायित्वों और अधिकारों में बांधता है।
जवाब देंहटाएंलिव-इन-रिलेशनशिप ,नोजावानो के लिये जरुरी क्यो है??? क्योकि दोनो ही जिम्मेदारी नही चाहते... अगर ऎसे रिशते मै बच्चा होता है तो क्या उस की देख भाल सरकार करेगी? हम नकल तो युरोप ओर अमेरिका की करते है, क्या हमारे यहां यह सिस्टम है..... नकल करना आसान है, लेकिन उस का परिणाम भी पहले सोचे, मै इस मै किसी बहस मै नही पडना चाहता, लेकिन हमारे यहां भी यह "लिव-इन-रिलेशनशिप " फ़ेल है, लोग रहते है ऎसे रिशतो मै, कोई दो साल, कोई चार साल, चार चार बच्चे है, चारो के बाप अलग अलग है..... लेकिन यहां सरकार मदद करती है, तो क्या हमारी सरकार पाले गी इन बच्चो को??? फ़िर कोन पालेगा इन बच्चो को.... मां तो जायेगी नोकरी करने या घर बेठ कर इन बच्चो की देख भाल करेगी??
जवाब देंहटाएंअजय भाई,
जवाब देंहटाएंये ग्लोबलाइजेशन या मनमोहन इकोनॉमिक्स के बाईप्रोडक्ट्स है...जब मल्टीनेशन को हम गले लगा रहे हैं, मैक्डॉनल्ड, केएफसी के फूड प्रोडक्ट के साथ पेप्सी-कोक को डकारते हुए ली-वायस और पीटर इंग्लैंड के ब्रैंडेड कपड़े पहन कर इतराते रहते हैं तो फिर वहां की कल्चर के एक्सपोर्ट पर इतनी हाय-तौबा क्यों....अंग्रेज बनने चले हैं तो फिर अपनी जड़ों की दुहाई किस मुंह से...या तो पूरा अंग्रेज बनिए या पूरे भारतीय रहिए...ये अधकचरे भूरे-काले अंग्रेज बनने से तो सत्यानाश होगा ही होगा...संस्कृति का भी, हमारा भी....
अजय भाई,
आज आपकी एक बात मुझे खटकी...आपसे दिल का नाता है इसलिए बिना किसी लाग-लपेट साफ़ साफ़ कह रहा हूं...इसे एक बड़े भाई की गुस्ताखी समझ कर माफ़ कर दीजिएगा...आज आपने एक बेनामी महोदय के ब्लॉग पर जाकर बहस में हिस्सा लिया...जिस आदमी में इतनी हिम्मत नहीं कि बोल्ड विषय उठाने के लिए चिलमन से बाहर आकर पहले अपनी पहचान बताए, उसे इतना क्यों बढ़ावा दिया गया...हम जब भी मिले, हमारे साथ और ब्लागर भाइयों ने भी हर बार बेनामी की बीमारी पर खूब माथापच्ची की...फिर हम खुद ही क्यों बेनामी से बहस में उलझ कर उसे बढ़ावा दे रहे हैं...मुद्दा चाहे कितना भी ठीक क्यों न हो लेकिन पहले आदमी को अपनी पहचान बताने का तो कलेजा होना चाहिए...आप ही नहीं मुझे कई और सुधि और सम्मानित ब्लॉगरों को वहां टिप्पणियों पर टिप्पणियां करते देख आश्चर्य और पीड़ा हुई...पता नहीं मैं गलत हूं या सही, आपको अपना समझता हूं, इसलिए सीधे कहने की हिम्मत दिखा भी गया...एक बात और इसी बेनामी महोदय ने जिनका कि वो ब्लॉग है आज मेरे ब्लॉग पर आकर बोल्डनेस को निशाना बनाते हुए तीखा निशाना साधा था...मैं अपने ऊपर तो सह जाता लेकिन मेरे साथ एक सम्मानित महिला ब्लॉगर पर भी तंज कसा गया...जो मैं किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं कर सकता...अगर मैं कुछ ज्यादा कह गया हूं तो एक बार फिर माफी मांगता हूं...
जय हिंद...
समाज की सोच बदली है, व्यवस्थायें बदली है. कुछ पश्चमिकरण की ओर भागे, कुछ अपनी सम्स्कृति रखे है..पूरी खिचड़ी बन गई और अब दाने अलग करने के चक्कर में लगे हैं.
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख है. विमर्श का विषय है. कोर्ट फैसला दे ही देगा.
परिवर्तन के इस दौर में कुछ परिवर्तन आसानी से नहीं पचते, यह परिवर्तन कुछ इसी तरह का है.
जवाब देंहटाएंअच्छा विश्लेषण -लिव इन रिलेशन नारी के लिए ठीक नही है -जब तक की वः पूरी तरह समर्थ नही हो जाती-वह जीवन में कितने लिव इन रखेगी ? एंड व्हाट इज बिग डील इनटू/ओउट ऑफ़ इट?
जवाब देंहटाएंजैसा कि वहाँ भी हुआ, आप की पोस्ट गम्भीर और सोचने को उत्प्रेरित करती है। दिनेश जी ने सब कुछ कह दिया है। उनसे सहमति सिवाय इसके कि "लिव-इन-रिलेशन में जाने वाले लोगों को वापस विवाह की और लाया जा सके।
जवाब देंहटाएं"
कल से मंथन है और एक नई बात ऐसी आ रही है कि नियम क़ानून ऐसे बनाए जाय कि विवाह संस्था में आमूल चूल परिवर्तन हो। लेकिन एक भावनात्मक सम्बन्ध में नियम क़ानून क्या परिवर्तन ला पाएँगे?
सुन्दर विश्लेषण - समसामयिक आलेख।
जवाब देंहटाएंशादी बिनु राधा किशन तब रहते थे संग।
सुमन यकायक रो पड़ा देख नजरिया तंग।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
@ खुशदीप जी,
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग का उद्देश्य किसी पर 'निशाना साधना' या तंज कसना कभी नहीं रहा। आप मेरी की हुई सारी टिप्पणियों को देख सकते हैं और वहाँ के पोस्ट भी। रही बात आप की पोस्ट पर किए कमेंट की जो शायद यह था (शायद इसलिए कि आप टिप्पणी मिटा चुके हैं)"बोल्ड बेहद बोल्ड! अदा जी के बोल्डनेस के क्या कहने!" तो यह प्रशंसा में की गई थी। वाकई आप की पोस्ट और अदा जी की टिप्पणी में वह बोल्डनेस थी जिसकी हिन्दी ब्लागिंग में कमी है। चूँकि मेरे ब्लॉग पर घनघोर बहस चल रही थी इसलिए लम्बी टिप्पणी नहीं हो पाई और आप लोग उल्टा समझ बैठे।
आप लोगों को गलतफहमी हुई, इसके लिए शर्मिन्दा हूँ और आप दोनों से मुआफी की दरकार है। ब्लॉग जगत के बाकी जिन लोगों को भी तकलीफ हुई हो उनसे भी मुआफी की दरकार है।
यदि ऐसा हुआ है तो यह इस ब्लॉगके उद्देश्य के विरुद्ध है। पहली बार हुआ है इसलिए कष्ट अधिक है, आशा है आप लोग समझेंगे।
रही बात छिपने की, डरने की तो यह मेरे ब्लॉग की प्रथम पोस्ट में ही स्पष्ट किया गया है:
"इस नामवर दुनिया में सभी बेनामी हैं। स्पष्टीकरण उन्हें देना है जो नाम के साथ घूमते हैं, बात करते हैं और अनर्थ करते हैं।हमें अपने बेनामी होने की सफाई देने की कोई आवश्यकता नहीं। हम लिखेंगे बिन्दास और अपनी बात भी रखेंगे बिन्दास।"
बेनामी होने का एक उद्देश्य है - लोग वस्तुपरक होकर पढ़ सकें, टिप्पणी कर सकें और बहस कर सकें। नाम होने से मन में दुविधाएँ आती हैं और बात खुल कर सामने नहीं आ पाती।
खुशदीप जी, मैं उस टाइप का बेनामी नहीं जो कुछ भी अंट शंट टिप्पणी करता रहता है। एक बार मेरी की गई टिप्पणियों को देखिए तो सही।
जवाब देंहटाएंबेनामी ब्लॉग जगत का एक खुशनुमा पहलू है जिसकी मर्यादा, हाँ मर्यादा, याद दिलाने के लिए यह ब्लॉग शुरू किया गया। पुराने जमाने में प्रिंट में ऐसा होता रहा है - याद करिए नेहरू का 'चाणक्य' घोस्ट नाम से अपनी ही आलोचना करता लेख।
आप ने बहुत खूबसूरती से अपनी बात को रखा है। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष के बीच ऐसा संबंध है जिस से दोनों एक दूसरे के प्रति किसी कानूनी दायित्व या अधिकार में नहीं बंधते। जब कि विवाह समाज विकास के एक स्तर पर विकसित हुआ जो पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति कानूनी दायित्वों और अधिकारों में बांधता है
जवाब देंहटाएंलेख बहस की मांग करता है।
जवाब देंहटाएंबेनामी जी,
जवाब देंहटाएंअच्छा हुआ आपने मंतव्य स्पष्ट कर दिया...आपने जो एक लाइन की टिप्पणी दी थी, उसमें आगे-पीछे संदर्भ न होने की वजह से किसी को भी गलतफहमी हो सकती थी....अगर आप वहीं पूरी बात लिख देते तो ऐसी स्थिति ही नहीं आती...
रही बात आपकी कल वाली पोस्ट की तो वो मुझे अच्छी लगी...उस मुद्दे पर मेरी क्या प्रतिक्रिया है, वो मैंने अजय कुमार झा जी के ब्लॉग पर स्पष्ट कर दी...बेनामी होने से मेरा विरोध बस इतना है कि मैं उस व्यक्ति से जिसके मैं विचार पढ़ रहा हूं, वास्तविकता में रू-ब-रू नहीं हो सकता...जिसकी प्रकृति से मैं वाकिफ़ नहीं, उससे कैसे अंतर्सवांद कर सकता हूं...आशा है एक दिन आप ज़रूर असली पहचान के साथ लिखना शुरू करेंगे...आपने गलतफहमी दूर करने के लिए दोबारा लिखा...आभार...
जय हिंद...
इस विषय पर काफी में पहले ही अपने ब्लाग http://nepathyaleela.blogspot.com पर एक पोस्ट लिख चुका हूँ . आज समाज की भूमिका भीड़ में बदल गयी है और भीड़ को यह अधिकार नहीं होता कि वह किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला करे। यही कारण था कि पहले इस तरह के विचलन में समाज से बाहर कर देने का दण्ड प्रचलित था। जो लोग स्वतंत्र रूप से नये तरह के समाज बना रहे हैं वे जीवन दर्शन भी अपना चुनेंगे। यौन समबन्धों में जब से बच्चों की भूमिका नियंत्रण में आयी है तब से उसकी सारी मर्यादाएं बदल गयीं हैं और नारी पुरुष के बीच नये तरह के सम्बन्ध निर्मित होने लगे हैं, किंतु जब भी नया परिवर्तन आता है तो पुरानी व्यवस्था से लाभांवित लोग उसका विरोध करते ही हैं। यह इसी बात से स्पष्ट है कि इसका विरोध करने वालों में सबसे आगे वे लोग हैं जो किसी तरह धार्मिक ओट में साम्प्रयादिक राजनीति करते आये हैं। ये ही लोग निर्णय में एक धार्मिक विश्वास का उल्लेख कर देने के बहाने बदमाशी पर उतारू होने लगे हैं।
जवाब देंहटाएंMai Dvivedi ji se sahmat hun...ek aur baat..aise silsile ate jate rahenge..maine yah bhi dekh ki 15 saal live in relationship khoob achhee rahee aur shadi, bachhe hote hi divorce!
जवाब देंहटाएंबेनामी का मामला भी अच्छा रहा। हम तो बनामियों से पंगे लेते रहते हैं। ये अलग बात है कि हमारे यहां बेनामी कम आते हैं।
जवाब देंहटाएंअजय भाई ने कल दिनेशजी के ब्लाग पर मेरी टिप्पणी की शंकाओं से आगे जाकर खुलासा किया है। दिनेशजी ने भी उसकी तस्दीक की है। आप दोनों का आभार।
अच्छी पोस्ट। लिव इन...महिला के लिए घाटे का सौदा है, मेरी इस धारणा की पुष्टि हुई।
पढ़े-लिखे और खाते-पीते लोगों के लिये यह बहस का अच्छा विषय है । अब यह आधुनिक होने के लिये ज़रूरी भी है कि हम ऐसे विषयों पर बहस करें वरना क्या वही भुखमरी, ग़रीबी , महंगाई , बेरोजगारी किसानो की आत्महत्या जैसे चुके हुए विषय लेकर बैठ जाते हैं । भारत की जनता अब ऐसे विषयों पर सार्थक बहस करे इसी में विकास की सम्भावना है ।
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