शुक्रवार, 12 जून 2009
बच्चे स्टार , तो माँ -बाप गिरफ्तार......
हाँ बिलकुल सच पढ़ा है आज छपी खबर के अनुसार इन दिनों तेजी से सभी कार्यक्रमों..सीरीयलों..तथा रीयलिटी शोज में बच्चों की भागीदारी के कारण बच्चों पर बढ़ते अनावश्यक बोझ के मद्देनजर महाराष्ट्र सरकार ने एक नया कानून लाने की योजना बनाई है जिसके तहत यदि किसी भी बच्चे को इन टी वी शोज में जरूरत से ज्यादा काम का सामना करना पड़ता है..या फिर की इन व्यावसायिक प्रतिबध्ह्ताओं के कारण उन बच्चों के बाल सुलभ बचपन जीवन पर कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ता है है तो ये न सिर्फ उन निर्माताओं-निर्देशकों पर भारी पडेगा बल्कि उन बच्चों के माता पिता को जेल की हवा भी खिला सकता है...
आज बच्चों का उपयोग ..विज्ञापनों..फिल्मों..टीवी सीरीयलों..यहाँ तक की बहुत बार तो कई विरोध प्रदर्शनों में किसी उत्पाद की तरह किया जा रहा है ..शायद ही कोई ऐसा मिनट बीतता हो जहां इन बच्चों को देखा और दिखाया na जा रहा हो...एक सर्वेक्षण के अनुसार ये प्रवृत्ति जहां एक तरफ बच्चों में समय से पहले ही एक अजीब तरह की परिपक्वता को जन्म दे रही है वही दूसरी तरफ अभिभावकों के मन में भी अपने बच्चों को इन रुपहले परदे पर चमकने की एक प्यास पैदा कर रहा है...ऐसा नहीं है की इन बच्चों की भागीदारी पर रोक लगाने से बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो जाएगा या की उन पर से बहुत बड़ा कोई बोझ उतर जाएगा..मगर कानून लाने के पीछे मंशा ये है की यदि इस प्रवृत्ति को अभी नहीं रोका गया तो परिणाम अगली नस्ल के लिए विनाशकारी होंगे..दूसरा तर्क ये है की बच्चे जो भी कर रहे हैं उससे उनका शारीरिक और मानसिक लाभ क्या कितना हो रहा है ये तो पता नहीं magar उनके अभिभावक उनके जरिये मिलने वाले आर्थिक लाभ के लालच में जरूर पड़ गए हैं...
गौर तलब है की कानून की अनुशंषा करने वालों का कहना है की बच्चों को आधारित करके बनाए जाने वाले कार्यक्रमों में ऐसा कुछ नहीं होता जो कहा जाए की उससे बच्चों का कोई लाभ होने वाला है...पहले बच्चों को आधारित करके पहेली प्रतियोगिताओं या ऐसे ही कई छोटे मोटे खेल आदि पर आधारित बनाए जाते थे..मगर अब संगीत और नृत्य पर आधारित टैलेंट शोज में भीस्टर हमेशा कहीं उंचा रखा जाता है.. इससे अलग इसके पीछे ये भी एक तर्क है की इन शोज में नकारात्मक परिणाम का बच्चों के जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है....इस कानून का कितना और कैसा विरोध होता ये तो देखने वाली बात होगी ..साथ ही बच्चों के साथ चल रहे पचासों धारावाहिकों और पिक्चरों का भविष्य अब क्या होग ये भी..
is gambhir vishya par aapki soch kabiletaarif hai
जवाब देंहटाएंbadhaai!
Sarthak prayas hai yah sarkaar ka....bada aawashyak hai yah nahi to abhibhavkon kee lolupta asankhy nanhi kaliyon ko samay se poorv kumhla denge.....
जवाब देंहटाएंऐसी आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता। रीयलिटी शोज में आखिर होता क्या है। निर्माता-निर्देशक मासूमों के बचपन को बेचते हैं, बस। उन्हें समय से पहले ही सातिर, चालबाज और झूठे बनने के लिए बाध्य करते हैं। रीयलिटी शोज में तो कभी-कभी बच्चों से ऐसा झूठा एक्टिंग करवाया जाता है कि देह सिहर जाये। पिछले साल सोनू निगम और सुरेश वाडकर के नेतृत्व लिट्ल चैंप कार्यक्रम में एक बच्चे से ऐसा झूठा एक्टिंग करवाया गया कि मैं चकित रह गया। निश्चित ही सरकार को इस पर सोचना चाहिए और ठोस कानून बनाया जाना चाहिए। अन्यथा ये बाजारू निर्माता-निर्देशक देश के हजारों बच्चों का बचपन बर्बाद कर देंगे। आपको बधाई कि आपने इसे बहस का मुद्दा बनाया।
जवाब देंहटाएंसही है, बच्चों के इस पक्ष पर भी कानून बनना चाहिए।
जवाब देंहटाएंबच्चो को वेसे ही इस सब बातो से दुर रखना चाहिये, लेकिन आज कल बच्चो के ही इतने शो आ रहे है कि ... यह बच्चे बडे हो कर क्या बनेगे???
जवाब देंहटाएंइस सार्थक पोस्ट के लिये आपको बहुत बधाई. वाकई चिंतनिय विषय है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
जोकरई का ये एक और उदाहरण है.. टीवी / फिल्म में काम करते बच्चे तो इन्हें शोषित होते नज़र आ रहे हैं. लेकिन पूरे देश में लाखों की तादाद में सरे आम जुटे बाल मजदूर इन्हें नहीं दीख रहे . आँख के अंधे नाम नैनसुख, कहावत इन्हीं जोकरों को देख कर ही रची गयी थी .
जवाब देंहटाएंमित्र काजल कुमार जी..आपकी भावनाओं का मैं भी पूरा सम्मान करता हूँ..मगर दोनों ही समस्या बिलकुल अलग अलग हैं..हाँ में जनता हूँ की आपकी बतैयी समस्या इससे भी कहीं अधिक गंभीर है..मगर ये सोच कर की वो ज्यादा गंभीर है इसे नजरअंदाज भी तो नहीं किया जा सकता...टिप्प्न्नी और अपना मत देने के लिए आभार..
जवाब देंहटाएंbilkul sahi kaha aapne..
जवाब देंहटाएंis tarah ke rules ki bahut jarurat hai..
अजय जी आज तो अलग ही तेवर नज़र आ रहे हैं इतना गँभीर चिन्तन भी आप करते हैं वाह वाह मगर इस विश्य पर क्या कहे काजल जी की बात भी सही है और आपकी भी इन बच्चों मे तो फिर भी क्षमता है और सेहत का ध्यान रख्ने के लिये मा-बाप पैसा भी है मगर वो ग्रीब बच्चा जो सारा दिन बरतन साफ करता है फिर भी भरपेट रोती नहीं मिलती इससे कम से कम टेलेन्ट तो सामने आ रहा है् हर बात के दो पहलु हैं अब क्या कहें
जवाब देंहटाएंसचमुच अजय जी, चर्चा का विषय होना चाहिये इसे.एक तो पहले ही टी.वी. ने बच्चों को समय से पहले परिपक्व कर दिया अब ऊपर से बच्चों के ये कार्यक्रम.जज द्वारा किये गये कमेंट का असर कलकत्ता की बाल कलाकार पर क्या हुआ हम सब जानते हैं.काजल जी जिस चिन्ता में हैं वो मुद्दा ही अलग है. इस मुद्दे के लिये तो सरकार पता नहीं कितने कानून बना चुकी है.ये अलग बात है, कि वो भी एक ज्वलंत पर शाश्वत मुद्दा है.
जवाब देंहटाएंपुन:
जवाब देंहटाएंअजय जी हिन्दी में कमेंट करने के लिये बधाई.
वाकई आजकल के हालातों में बच्चों की हालत बहुत नाज़ुक है.....कहीं बाल-मजदूरी तो कहीं टैलेंट-हंट के नाम पर पिसते बच्चे अपने बचपन से दूर होते जा रहे है.....अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के विरुद्ध भी आचरण करने लगे हैं....कुछ विचार हमने भी व्यक्त किये हैं इस बारे में, वक़्त मिले तो पढियेगा ज़रूर.....
जवाब देंहटाएंसाभार
हमसफ़र यादों का.......
achchhi sarthak post hai
जवाब देंहटाएंझा भाई, मेरे ब्लॉग पर एक लेख है "हाँ, मैं सलीम खान हिन्दू हूँ" ज़रूर पढें. दूसरी बात निष्पक्षता की तो मैं बता दूं यही कुछ शब्द दुनिया को अन्धकार में धकेल रहे हैं जैसे निष्पक्षता, उदारता, अति-उदारता, कला, संस्कृति आदि. इन शब्दों के आड़ में जो कुछ हो रहा है आपको भी मालूम है और हमें भी, मिसाल के तौर पर निष्पक्षता का लबादा ओढ़ कर अपनी बात को ही निष्पक्षता के दायरे में रखना, जैसा की अमेरिका कर रहा है, उदारता यानि लड़कियों को आज़ादी (वह बॉय फ्रेंड बनती है तो इसमें क्या बुराई है, आगे...वह शाम को अपने बॉय फ्रेंड के साथ घुमने जा रही है तो क्या हुआ, आगे... वह रत को पार्टी में बॉय फ्रेंड के साथ गयी तो इसमें बुराई क्या है आदि), अति उदारता में (सभी धर्म बराबर है), कला के नाम पर नंगई बढती जा रही है और सिनेमा, फिल्मों के ज़रिये इसे बहुत बधवा मिल रहा है, संस्कृति (यह एक अच्छ शब्द है लेकिन इसकी परिभाषा की जो वाट लगी जा चुकी है उसका कहना ही क्या), झा साहब आपके सामने है सब कुछ. तो एक सवाल क्या है जो सही है, इसके लिए करना होगा अध्ययन हमें भी और आपको भी और हम सबको भी... अध्ययन अपनी पुराणी किताबों का अपनी प्रमाणिक तथ्यों का, वेदों का, कुरान का...
जवाब देंहटाएंaapke vichar uchit hai aur sochne ko vivash karte hai...
जवाब देंहटाएंआपने बहुत सही उपयुक्त सवाल उठाया है.....
जवाब देंहटाएंयहाँ पर भी गरीबी का ही गला घुटता नज़र आता है.......
न जाने कैसी परंपरा कैसा अत्याचार है......
मेरा मतलब है की इन बच्चों पर कोई रोक पाबन्दी नहीं गरीब बच्चों की तरहां इनके लिए बालश्रम लागु नहीं होता क्या......????
ये भेद-भावः क्यूँ...और कब तक.....
आपका लेख बहुत ही सही है
मेरे ब्लॉग पर भी पधारें.....आपका स्वागत है.....
बिल्कुल सही फ़रमाया आपने! आपके इस पोस्ट ने तो गंभीरता से सोचने पर मजबूर कर दिया है! बहुत बहुत बधाई इस बढ़िया पोस्ट के लिए!
जवाब देंहटाएंसिर्फ टेलीविजन पर बाल कलाकारों के लिए ऐसा प्रावधान करने से कुछ नहीं होने वाला. बाल श्रम के मामले में ढिंढोरा पीटने वाले सरकारी तन्त्र को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए. सरकारी रैलियों, किसी नेता-शेता के आने पर जिस तरह बच्चों को धूप में घंटों खड़ा या सड़कों के चक्कर लगाने पर मजबूर किया जाता है, उसे क्या कहा जाये? पहले सरकार खुद बच्चों के प्रति ज़ुल्म और शोषण का रवैया ख़त्म करे फिर औरों को सुधारने का यत्न करे.
जवाब देंहटाएंBilkul Sahi kaha aapne, logo ko sochane par majboor kar diya aapne...
जवाब देंहटाएंDevPalmistry