सोमवार, 17 मार्च 2008

एक कविता

मैं जो करता हूँ,
सब वो,मेरी ,
गलतियां कहलाती हैं।

कोशिशें अक्सर,
मेरी,
नाकामियां बन जाती हैं॥

जब भी थामता हूँ,
हाथ किसी का, उसकी,
दुश्वारियाँ बढ़ जाती हैं॥

जब बांटता हूँ,
दर्द किसी का,
रुस्वाइयां बन जाती हैं॥

मगर मैं फ़िर भी चलता रहता हूँ.

8 टिप्‍पणियां:

  1. फ़िर नहीं फिर लिखा करें, कविता बहुत अच्छी है!

    जब बांटता हूँ,
    दर्द किसी का,
    रुस्वाइयां बन जाती हैं॥

    वाह!

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  3. कविता तो अच्छी है।
    आशा और निराशा दिखती है आपकी कविता मे। ।

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  4. aashaa aur niraashaa kavita mein hee hai mujhe apne mein to kuchh bhee nahin dikhtaa hai shaayad dabba hoon bilkul

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  5. बहुत खूब। इसी का नाम जीवन है, और इन्हीं तमाम अनुभवों से ही जिन्दगी बनती है। इस सरल एवं सफल अभिव्यक्ति के लिए बधाई।

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला