बुधवार, 7 नवंबर 2007

पहला कबाड़ - रिश्ते

हाँ सच ही है आज के युग में रिश्ते नाते जैसी बातें कबाड़ के अलावा कुछ नहीं है। रिश्ते खून के हों, मन के हों ,जाने-पहचाने हो , अनजाने हों कैसे भी हों। पहली बात तो ये कि बिना किसी उद्देश्य के ,या कहें कि स्वत के रिश्ते न तो बनते हैं न बने रहते हैं। दुसरी ये कि इनके टूट जाने या ना बने रहने का कोई कारण हो ये जरूरी नहीं । कभी कभी तो ये अकारण ही दम तोड़ देते हैं । कुछ रिश्तों को हम इतना तंगहाल कर देते हैं कि उनका दम खुद ही निकल जाये। हां जब खून के रिश्ते सिसकते हुए आख़िरी सांस लेते हैं उन सिस्कारियों की गूज्ज़ ता उम्र गूंज्ज़ती रहती है।

यूं भी आजकल लोगों के पास इन सबके लिए सोचने कि फुरसत कहाँ है।
कहते हैं दिवाली रिश्तों का त्यौहार है मगर क्या सिर्फ उन रिश्तों का जो उपहार लेने-देने और खुशियाँ बाटने तक सीमित रहता है। वही रोशनी की चकाचौंध ,वही पटाखों का धूम-धडाम , वही बाज़ार, वही खरीददारी तो फिर इस दिवाली में कुछ अलग कहाँ हैं । चलें क्यों न ढूँढे कुछ पुराने रिश्ते। कोई बिछड़ा, कोई रूठा मिल जाये कहीं.

1 टिप्पणी:

मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला