मंगलवार, 23 जुलाई 2024

पीली मिटटी और पवन चक्कियों वाला प्रदेश : दिल्ली इंदौर दिल्ली _ सड़क मार्ग यात्रा -भाग दो

 







पिछले भाग में आपने पढ़ा कि , हम देर रात दिल्ली से निकल कर शिवा ढाबे पर चाय वाय के लिए रुके थे , अब इसके आगे 

चाय पीने के बाद थोड़ा सा तरोताजा होकर हम आगे की और बढ़ चले , बेटे लाल को पीछे आराम से सोने के लिए कह दिया था लेकिन वो भी हमारे साथ ही जगा हुआ था तो फिर गानों का दूसरा दौर चल पड़ा। मैं अक्सर सफर के दौरान आदतन भी कम ही सोता हूँ लेकिन साथ में गाडी चला रहे हमारे सारथि अजय पर वो तड़के भोर वाली तेज़ वाली भयंकर नींद हावी होते देख मैंने अजय से कहा कि अब जहाँ भी सही जगह दिखे गाडी रोक कर पहले इस नींद के झोंके को पूरा किया जाए , समय तकरीबन सुबह पौने चार के आसपास का था। 






टोल नाका पार करते ही चाय की छोटी टपरी के पास कार रोक दी गई और अजय और हमारे सुपुत्र दोनों थोड़ी देर में ही नींद की झपकी मारने लगे।  मेरी नींद तो यूँ भी गायब ही थी सो मैं कार से उतर कर चाय की टपरी पर बैठ गया , पहले मन हुआ कि चाय के लिए पूछ लूँ लेकिन फिर सुबह चार बजे वो भी एक अकेले के लिए , लेकिन दुविधा उस समय ख़त्म हो गई जब उसने खुद ही पूछा चाय पीयेंगे क्या , मैंने भी हाँ कह दिया। 


 

 चाय आराम से पीते हुए देखा तो पौ फटने लगी थी और आसमान का रंग बता रहा था कि यहाँ भोर बहुत ही ज्यादा खूबसूरत लगाने दिखने वाली है।  मैंने चाय पी और एक नज़र गाडी पर डाली देखा तो अजय और आयुष दोनों अभी सो रहे थे , मैं पास ही किसी गाँव की और जाते हुए रास्ते की ओर निकल गया जहां से मैं इस खूबसूरत सुबह को और देर तक निहार सकूं।  सुबह होने तक का नज़ारा वाकई अद्भुत था।  


जब तक मैं वापस आया अच्छी खासी रौशनी निकल आई थी और अजय भी उठ कर साथ ही बने प्रसाधन में अपने नित्य कर्म से निवृत्त होने चले गए थे , आयुष भी उठ चुका था।  अजय के साथ मैंने एक चाय और पी उस टपरी पर और फिर हम आगे चल दिए ग्वालियर की तरफ।  

मैंने गौर किया तो पाया कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में बहुत कुछ साम्य सा दिख रहा था , वही पीली पीली उसर धूसर मिटटी और तेज़ धूप वाली गर्मी।  मगर मेरा अनुमान बहुत जल्दी ही गलत साबित हुआ जब मैंने देखा कि मध्यप्रदेश के खेतों में शायद ही कोई फसल ऐसी हो सामयिक जो मुझे रास्ते में उगाते लगाते नहीं दिखी।  ट्रकों की लम्बी लम्बी कतारें अक्सर हमारे साथ मिल जाती थीं या शायद हम ही उनके काफिले के बीच में आ जाते थे।  
















सुबह के पौने नौ के करीब हमारी गाडी फिर रुकी एक ढाबे पर जहां हमने नाश्ता करने का मन बनाया था , अजय थोड़ी देर और आराम करना चाहते थे इसलिए हमने उन्हें खाट पर आराम से सोने को कह दिया और हम दोनों पिता पुत्र वहीँ नित्य क्रिया से निवृत्त होकर ,दांत मांजने आदि के बाद नाश्ते का विचार करने लगे।  और हमने आलू के पराठे के लिए बोल दिया। सुबह का समय था जब तक आलू उबले और तैयारी हुई अजय भी उठ कर हमारे साथ ही नाश्ते के लिए आ गए।  मिर्च काफी तेज़ होने के कारण मेरे से पराठा पूरा नहीं खाया गया और मैंने लस्सी पर ही ज्यादा ध्यान दे दिया।  





टंकी फुल्ल करने के बाद हमारा सफर फिर आगे की और बढ़ चला।  ,कसबे , गाँव , खेत खलिहानों को पार करते हुए हम पहुंच गए ऐसे क्षेत्र में जहां चारों तरफ बड़ी विशाल पवन चक्कियां लगी हुई थीं और चलते हुए इतनी खूबसूरत लग रही थीं मानों हम किसी दुसरे देश की किसी दूसरी दुनिया में घूम रहे हों।  खुले खाली रास्तों के साथ साथ चलते हरे भरे खेत और दूर गोल गोल घूमती पवन  चक्कियां , लग रहा था कोई सिनेमा जैसा दृश्य आ गया हो सामने।  



दोपहर से आगे वक्त खिसक कर शाम की आगोश में जाने को तैयार था और हम भी धीरे धीरे अपने मंजिल इंदौर शहर के आखरी छोर की ओर पहुँच रहे थे जहां पुत्र को अपनी प्रतियोगिता में शामिल होना था , ...

अभी के लिए इतना ही , अगली पोस्ट में 


इंदौर , ओंकारेश्वर , शीतला माता जल प्रपात और महेश्वर के साथ ही बाबा माहाकाल की नगरी उज्जैन भी लिए चलेंगे आपको।  

सोमवार, 15 जुलाई 2024

दिल्ली इंदौर दिल्ली -सड़क मार्ग यात्रा -प्रथम भाग

 





जब ये तय हुआ था कि पुत्र की एक प्रतियोगिता में उसे सहभागिता करने के लिए उसे इंदौर जाना होगा और वहां काम से कम तीन दिन रहना रुकना होगा तभी से ये खूबसूरत संयोग भी बन गया था या कहिये की जबरन बना लिया गया था कि साथ में और कोई जाए न जाए हम तो अपने राजा बेटा को लेकर वो भी बाकायदा कार में बैठा कर ले जाना है और इसके पीछे हमारी इंदौर , उज्जैन , ओम्कारेश्वर , महेश्वर , गुना जैसे सुन्दर शहरों नगरों को देखने घूमने की तमन्ना का जोर जोर से हिलोरें मारना असली कारण था , और बहुत सारी इधर उधर की गुंजाइश संभावनाओं के बाद ये तय हुआ कि बिटिया कर उसकी मम्मी साथ में नहीं जा पाएंगी , नहीं नहीं इसमें खुश होने वाली कौन सी बात जी 

इस यात्रा की पूरी योजना के अनुसार हमें सुबह चार से पांच बजे के बीच दिल्ली छोड़ देना था और हम रुकते चलते देर शाम रात तक इंदौर पहुँच कर अगले दिन यानि रविवार को आराम विश्राम के बाद सोमवार से पुत्र अपनी प्रतियोगिता में व्यस्त होने वाले थे और हम और हमारे सारथी साथी हमनाम अजय दोनों अगले तीन दिनों तक आसपास का सब कुछ देख लेने के विचार में थे।  अब पहला चक्कर तो ये हुआ कि सुबह पांच तो दूर शाम के पांच बजे भी हम दिल्ली में ही थे और जाने को तैयार बैठे थे , बच्चों की मम्मी की डाँट के साथ ही हम दो टाइम का खाना घर पर ही खा चुके थे और रात्रि भोजन के भी आसार यहीं के थे , कारण कुछ अपरिहार्य थे जो सो दस बजे रात को हम दिल्ली से विदा हुए। 

रात को सफर करने से मैं अधिकांशतः बचता हूँ और इसके बहुत से कारण हैं जो गिनाए जा सकते हैं लेकिन ये भी है कि चाहे अनचाहे दर्जनों बार रात और पूरी पूरी रात सफर किया है , तो जब रात का सफर हो तो फिर हाइवे पर जाते ही जो गाना सबसे पसंदीदा होता है वो अक्सर यही होता है , सो गया ये जहां सो गया आसमां , रात के हमसफ़र , ओ रात के मुसाफिर चंदा जरा बता दे , और जाने कितने ही गाने गजलें हमारे साथ हाइवे पर बहती चलती रहती हैं।  पहला पड़ाव रहा चाय का ठिकाना शिवा  ढाबा , ढाबे पर भीड़ देख कर मैंने बेटे से पूछा ये रात के ही एक बज रहे हैं न।  बेटे ने हां में सर हिलाया तो साथी अनुज अजय ने बताया कि यहाँ ये सामान्य बात है 

फिर मुझे याद आया कि इस शिवा ढाबे पर हम जनवरी में मथुरा वृन्दावन जाते हुए भी रुके थे और तब भी यही हाल था जबकि उस समय शायद वक्त तड़के सात बजे का था , यहाँ ब्रेड पकौड़े और चाय तो लगभग सभी को लेते और खाते पीते देखा ,हमने पकौड़े के बदले चाय ही डबल कर दी , चाय दिल्ली में नहीं पीते हुए काफी वक्त हो गया था मगर इस बार सोच के ही गया था की इस सफर में चाय का साथ तो जरूर निभाया जाएगा यूँ भी सालों पहले जबलपुर के स्टेशन पर पी गई चाय का स्वाद अब तक जेहन में वैसा ही था और ये साबित भी हो गया जब इस दौरान मैंने इंदौर उज्जैन और तमाम शहरों में छोटे छोटे कप में बहुत ही स्वादिष्ट चाय पी।  

चलिए रुकते हैं अभी इस शिवा ढाबे पर ही फिर आगे चलेंगे 

अगली पोस्ट में बढ़ेंगे इस सफर में ढाबे से आगे और देखेंगे कि आगे हमें क्या कैसा मिला ?? 


शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

घुमक्क्ड़ी से नाता जोड़ा क्या

 







घुमक्कडी से नाता :

बचपन में सुना  हुआ एक गीत ,

धरती मेरी माता पिता आसमान
मुझको तो अपने जैसा लागे सारा जहां ,




 देखते हुए एकदम जोर से महसूस हुआ था की सच में ही शायद मैं रास्तों पर चलने और चलते जाने के लिए ही पैदा हुआ हूँ , उम्र के साथ साथ सरिता का पर्यटन विशेषांक और एक और पत्रिका शायद इलस्ट्रेटेड वीकली इनमें सिर्फ और सिर्फ पर्यटन वाले पन्नों को निकाल कर उनमें कभी गुलमर्ग तो कभी मेघालय कभी अमृतसर तो कभी दार्जलिंग , कई कई दिनों तक फोटो निहारने के बाद अगर मौक़ा मिले तो उसे काट कर एक डायरी में रख लेने की आदत को बहुत बाद तक रही। 

पिता जी थलसेना में थे , तो जन्म स्थान हुआ सैनिक अस्पताल जबलपुर , वैसे पैतृक स्थान है मधुबनी ,बिहार , फिर जहाँ जहाँ फौजी सर की पोस्टिंग वहां वहां बच्चे केंद्रीय विद्यालय में पढ़ते हुए विचरण करते रहे। ढाई तीन साल के बाद ही बोरिया बिस्तर गोल हो जाता था हमारा , बचपन बीता फिरोजपुर , लखनऊ , पूना , पटियाला , दानापुर , और आखिरी पोस्टिंग मुजफ्फरपुर ,   इस घुम्मकड़ वाली नौकरी से माँ और पिताजी को कितनी क्या कठिनाई आती थी ये तो हमें ठीक ठीक नहीं पता लेकिन हर बार दोस्तों को छोड़ कर नए क्लास में जाना और फिर वही सब , बाद में तो हमें भी बाकी के सभी बच्चों की तरह आदत ही हो गई , लेकिन जो बाद सबसे अच्छी थी वो ये कि बचपन भी हमारा देश के हर कोने के शहर और उसके सभ्यता संस्कृति से परिचय होते हुए ही बीता , युवक होने तक मैं अपनी मातृभाषा मैथिली और राजभाषा हिंदी के अलावा पंजाबी , मराठी और भोजपुरी भी काम चलाने लायक बोलने और समझने लगा था।  




इसके बाद अगला दौर मेरे जीवन का घुमक्क्ड़ी वाला रहा , मेरी प्रतियोगिता परीक्षाओं में शामिल होने वाला दौर , ये बहुत लंबा था शायद चार या पांच साल तक और आखरिकार चयन होने तक मैं अपनी परीक्षा देने के क्रम में बहुत  से शहरों में पहुंचा , कई बार मौक़ा मिलने पर घूमा भी देखा भी लेकिन उन दिनों लक्ष्य सेवा संधान का था तो न घुमक्क्ड़ी वाला सुख अनुभव हुआ न ही पर्यटन वाला सौंदर्य 

इसके बाद  तब तक जब तक सेवाकाल में नए रहे और  विभिन्न शिक्षण प्रशिक्षण में व्यस्त रहे तभी बस तभी तक थोड़ा रुके और सके बाद फिर शुरू हो गए ताबड़ तोड़ 

शुरू से गिनूँ तो 

फिरोजपुर , लखनऊ , पूना , मुंबई , पटियाला , दानापुर , मुजफ्फरपुर ,रांची , गया ,  भोपाल , सिल्लीगुड़ी , दार्जलिंग ,आसनसोल , कोलकाता , सिकंदराबाद , हैदराबाद ,बंगलौर  जालधंर , होशियारपुर ,  अमृतसर , चंडीगढ़ , लुधियाना , जम्मू , श्रीनगर , शिमला , मनाली , डलहौजी , खजियार , मणिकरण , कुल्लू , माउंट आबू , नैनीताल , कानाताल , टिहरी , धनोल्टी , बुरांशखण्डा , जयपुर , जोधपुर , उदयपुर , चितौड़गढ़ , राजसमंद , हल्दीघाटी , मथुरा , वृन्दावन , बरसाना , सालासर ,मेंहदिपुर ,  खाटू श्याम जी , वैद्यनाथ धाम , वैष्णो देवी , नैना देवी , बगुलामुखी , कांगड़ा माता , चामुंडा माता , ज्वाला देवी , जनकपुर , काठमांडू अभी तो इतना ही याद आ रहा है 





जितना घूमे हैं या घूम पाए हैं उसका दस गुना और घूमने देखने की इच्छा है और यही ख़्वाब है जिसे पूरा करने के लिए लिए सारे जुगत तलाशे जा रहे हैं , इस टेबल कुर्सी से प्रेम मुहब्बत करके आधी शताब्दी तो बीत गई ज़िन्दगी की अब पचास के बाद का सारा समय मेरा है और मेरा ही हो इसलिए फिलहाल तो सिर्फ और सिर्फ अपना देश देखना है और अभी तो कुछ भी नहीं देखा है असल में घूमना तो अब शुरू करना है ये तो ऊपर की सूची है , इतना घूमना है कि फिर कभी किसी भी सूची में पूरे नाम लिख ही न पाएं 

दक्षिण भारत से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक और रेल के सफर से मोटरसाइकिल की पीठ पर बैठ तक कर , जहाँ तक भी जा सके , 

अकेले भी दुकेले भी 
और जो साथ हो कारवां मेले भी , 

कोई दिक्कत नहीं कोई परहेज़ नहीं , घुमक्क्ड़ी के जाबांज किस्से  पढ़ते हुए अक्सर मैं लेखक के साथ उसके बिलकुल करीब चलने लगता हूँ और ये बार बार होता है , 

सफर में पहले किताबें पसंद थीं बहुत पढता भी था अब जबसे नज़र नज़ारों पर रहती है तो बस वहीँ अटक से जाते हैं हम भी और हमारा मोबाइल भी , अब फोटों खींचना भी बहुत अच्छा लगता है इसलिए ये भी इच्छा है कि सीख कर कुछ हुनरमंद बना जाए और देखा दिखाया जाए प्रकृति को भी उसके गजब के रूप में 

आप भी करते हैं क्या घुमक्क्ड़ी , कब कहाँ कैसे शुरू की , कहाँ तक पहुँची , अपना अनुभव भी साझा करें हमसे।  
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