जब ये तय हुआ था कि पुत्र की एक प्रतियोगिता में उसे सहभागिता करने के लिए उसे इंदौर जाना होगा और वहां काम से कम तीन दिन रहना रुकना होगा तभी से ये खूबसूरत संयोग भी बन गया था या कहिये की जबरन बना लिया गया था कि साथ में और कोई जाए न जाए हम तो अपने राजा बेटा को लेकर वो भी बाकायदा कार में बैठा कर ले जाना है और इसके पीछे हमारी इंदौर , उज्जैन , ओम्कारेश्वर , महेश्वर , गुना जैसे सुन्दर शहरों नगरों को देखने घूमने की तमन्ना का जोर जोर से हिलोरें मारना असली कारण था , और बहुत सारी इधर उधर की गुंजाइश संभावनाओं के बाद ये तय हुआ कि बिटिया कर उसकी मम्मी साथ में नहीं जा पाएंगी , नहीं नहीं इसमें खुश होने वाली कौन सी बात जी
इस यात्रा की पूरी योजना के अनुसार हमें सुबह चार से पांच बजे के बीच दिल्ली छोड़ देना था और हम रुकते चलते देर शाम रात तक इंदौर पहुँच कर अगले दिन यानि रविवार को आराम विश्राम के बाद सोमवार से पुत्र अपनी प्रतियोगिता में व्यस्त होने वाले थे और हम और हमारे सारथी साथी हमनाम अजय दोनों अगले तीन दिनों तक आसपास का सब कुछ देख लेने के विचार में थे। अब पहला चक्कर तो ये हुआ कि सुबह पांच तो दूर शाम के पांच बजे भी हम दिल्ली में ही थे और जाने को तैयार बैठे थे , बच्चों की मम्मी की डाँट के साथ ही हम दो टाइम का खाना घर पर ही खा चुके थे और रात्रि भोजन के भी आसार यहीं के थे , कारण कुछ अपरिहार्य थे जो सो दस बजे रात को हम दिल्ली से विदा हुए।
रात को सफर करने से मैं अधिकांशतः बचता हूँ और इसके बहुत से कारण हैं जो गिनाए जा सकते हैं लेकिन ये भी है कि चाहे अनचाहे दर्जनों बार रात और पूरी पूरी रात सफर किया है , तो जब रात का सफर हो तो फिर हाइवे पर जाते ही जो गाना सबसे पसंदीदा होता है वो अक्सर यही होता है , सो गया ये जहां सो गया आसमां , रात के हमसफ़र , ओ रात के मुसाफिर चंदा जरा बता दे , और जाने कितने ही गाने गजलें हमारे साथ हाइवे पर बहती चलती रहती हैं। पहला पड़ाव रहा चाय का ठिकाना शिवा ढाबा , ढाबे पर भीड़ देख कर मैंने बेटे से पूछा ये रात के ही एक बज रहे हैं न। बेटे ने हां में सर हिलाया तो साथी अनुज अजय ने बताया कि यहाँ ये सामान्य बात है
फिर मुझे याद आया कि इस शिवा ढाबे पर हम जनवरी में मथुरा वृन्दावन जाते हुए भी रुके थे और तब भी यही हाल था जबकि उस समय शायद वक्त तड़के सात बजे का था , यहाँ ब्रेड पकौड़े और चाय तो लगभग सभी को लेते और खाते पीते देखा ,हमने पकौड़े के बदले चाय ही डबल कर दी , चाय दिल्ली में नहीं पीते हुए काफी वक्त हो गया था मगर इस बार सोच के ही गया था की इस सफर में चाय का साथ तो जरूर निभाया जाएगा यूँ भी सालों पहले जबलपुर के स्टेशन पर पी गई चाय का स्वाद अब तक जेहन में वैसा ही था और ये साबित भी हो गया जब इस दौरान मैंने इंदौर उज्जैन और तमाम शहरों में छोटे छोटे कप में बहुत ही स्वादिष्ट चाय पी।
चलिए रुकते हैं अभी इस शिवा ढाबे पर ही फिर आगे चलेंगे
अगली पोस्ट में बढ़ेंगे इस सफर में ढाबे से आगे और देखेंगे कि आगे हमें क्या कैसा मिला ??
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआभार और शुक्रिया आलोक जी
हटाएंअति रोचक यात्रा विवरण
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया और आभार प्रतिक्रिया देने के लिए अनीता जी
हटाएंवाह! बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शुभा जी
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद ओंकार जी
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