उस दिन फेसबुक की एक पोस्ट पर अनुज भवेश ने टिप्पणी करते हुए कहा की भैया इस बार जब हम सब गांव चलेंगे तो सब लोग सायकल पर ही सारी जगह घूमने जायेंगे। ऐसा कहते ही सायकल चलाने के प्रति मेरे भीतर छुपी ललक और स्नेह जैसे एक मीठी सी टीस जगा गया। मुझे जानने समझने वाले तमाम दोस्त रिश्तेदार जानते हैं कि सायकल के प्रति मेरी दीवानगी कैसी है और मैं सायकल चलने का कोई भी मौक़ा कहीं भी मिलता है उसे मैं नहीं छोड़ता।
सायकल से मेरी यादें बचपन के उस ,सायकल के टायर चलने वाले खेल से शुरू होती है जिसमें हम बच्चे पुराने बेकार हो चुके टायरों को लकड़ी या बेंत के सहारे मार मार कर लुढ़काते हुए बहुत दूर दूर तक ले जाया करते थे और कई बार तो उन टायरों की हालत इतनी ख़राब होती थी कि वे लचकते हुए टेढ़े मेढ़े चलते थे मगर मजाल है कि हम बच्चों का जोश ज़रा सा भी कम हो।
इससे थोड़ा बड़े हुए तो सायकल चलाना सीखने का यत्न शुरू हुआ और उन दिनों ये बच्चों वाली साइकिलों का दौर नहीं था यदि किसी के पास थी भी तो मध्यम वर्गीय परिवार से ऊपर की बात थी। हम अपने पिताजी की सायकलों की सीट पर अपने कंधे टिका कर कैंची सायकल चलाना सीखा करते थे और तब तक उसी अंदाज़ में चलाते थे जब तक बड़े होकर सीट पर तशरीफ़ टिका कर पैर जमीन पर टिकाने लायक नहीं हो जाते थे।
ये वो दौर था जब गेंहूं पिसाई से लेकर , गैस के सिलेंडर की ढुलाई , सब्जी सामन आदि लाना तक , का सारा काम हमारे जैसे बच्चे अपने घरों के लिए इन्हीं सायकलों पर वो भी कैंची चलाते हुए ही किया करते थे। यहां ये भी ज़िक्र करना रोमांचक लग रहा है कि हमारा पूरा बचपन पिताजी के साथ सायकल के पीछे लगे कैरियर , आगे लगने वाली सीट और उससे भी आगे लगने वाली छोटी सी टोकरी में बैठ कर ही घूमने फिरने की यादों से जुड़ा हुआ है।
मुझे अच्छी तरह याद है कि सीट पर बैठ कर सायकल चलाने लायक होते होते और सायकल सीखते हुए जाने कितने ही बार कुहनियों और घुटनों को छिलवा तुड़वा चुके थे। मगर कॉलेज जाने से पहले पहले सायकल की सीट पर बैठ कर उसे चलने लायक हो चुके थे। स्कूल के दिनों में हुई सायकल रेस में प्रथम आना उसी सायकल प्रेम का नतीज़ा था।
पूरा कॉलेज जीवन सायकल भी किताबों की तरह साथ साथ रहा। गांव से कॉलेज 14 किलोमीटर दूर गृह जिला मधुबनी में था और कॉलेज की कक्षाओं के लिए रोज़ कम से कम 30 किलोमीटर सायकल चलाना हमारी आदत में शुमार हो गया था। इतना ही नहीं आपसास के सभी गाँव में रह रहे बंधु बांधवों के यहां रिश्तेदारों के यहां भी आना जाना उसी सायकल पर ही होता था। जरा सी छुट्टी पाते ही सायकल को धो पांच के चमकाना तेल ग्रीस आदि से उसकी पूरी मालिश मसाज [ओवर ऑयलिंग ] करना भी हमारे प्रिय कामों में से एक हुआ करता था।
नौकरी वो भी दिल्ली जैसे महानगर में लगी तो सब छूट सा गया और बिलकुल छूटता चला गया। लेकिन अब भी जब गांव जाना होता है तो सबसे पहला काम होता है सायकल हाथ में आते ही निकल पड़ना उसे लेकर कहीं भी। हालाँकि गांव देहात में भी अब चमचमाती सुंदर सड़कों ने सायकल को वहां भी आउट डेटेड कर दिया है और अब सायकल सिर्फ गाँव मोहल्ले में ही ज्यादा चलाई जाती हैं किन्तु फिर भी बहुत से लोगों को मोटर सायकिल स्कूटर और स्कूटी आदि नहीं चलाना आने के कारण अभी भी सायकल पूरी तरह से ग्राम्य जीवन से गायब नहीं हुए हैं।
जहाँ तक मेरा सवाल है तो मैं तो सायकल को लेकर जुनूनी सा हूँ इसलिए अब भी सारे विकल्पों के रहते हुए जहाँ भी सायकल की सवारी का विकल्प दिखता मिलता है मैं उसे सहसा नहीं छोड़ पाता हूँ। अभी कुछ वर्षों पूर्व ऐसे ही एक ग्राम प्रवास के दौरान मैं किसी को भी बिना बताए सायकल से अपने गाँव से तीस पैंतीस किलोमीटर दूर की सैर कर आया था। अभी दो वर्ष पूर्व ही छोटी बहन के यहां उदयपुर में अचानक ही भांजे की सायकल लेकर पूरे उदयपुर की सैर कर आया और वहां जितने भी दिन रहा सायकल से ही अकेले खूब घूमता रहा।