शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

दिख तो रहा है , मगर दिखाई नहीं देता




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राजधानी दिल्ली में सिर्फ़ एक साल पुरानी राजनीतिक पार्टी “आम आदमी पार्टी” यानि “आप” की सरकार बने महज़ एक माह ही हुआ है और देश भर के राजनीतिक हलकों से लेकर समाज , मीडिया और लगभग पूरे देश में रोज़ाना चाहे सवाल उठा कर , चाहे आलोचना करके या फ़िर किसी और बहाने से निशाने पर लेकर किंतु निरंतर ही “आप” चर्चा में बनी हुई है । इस पार्टी के गठन की पृष्ठभूमि , इसका अंदाज़ , इसकी शैली के कारण इसके संगठन का तानाबाना बुनने वाले सभी छोटे बडे भी न सिर्फ़ सबकी नज़रों में हैं बल्कि आवश्यक अनावश्यक रूप से अपने उद्देश्यों और संकल्पों को पूरा करने का बोझ भी ढो रहे हैं ।
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हालांकि वो नियम कि जिसे जितना दबाओ वो उतना ही ऊपर उठ जाता है , इस नई नवेली पार्टी पर भी लागू हो रहा है । इस पोस्ट के लिखे जाने तक नई बनी सरकार ने लगभग एक माह का काम काज तो देख ही लिया है और साथ ही अपने पूर्व के साथियों सहित वर्तमान के बहुत से सहयोगियों के बदलते हुए रंग और तेवर भी । इस पार्टी का भविष्य , इस सरकार का भविष्य क्या और कैसा होगा ये तो अभी देखना बांकी है किंतु जिस तेज़ी से दिल्ली के बाद पूरे देश भर में इससे जुडने वाले लोगों की संख्या बढी है , इसके बारे में लोगों के बीच कौतूहल और बहस बढी है उसने सत्तासीन केंद्रीय पार्टी समेत इस बार सत्ता में आने की प्रबल दावेदार बनकर उभरी भारतीय जनता पार्टी को भी कहीं कहीं चिंतित तो कर ही दिया है ।
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कहते हैं न कि अंधों के देश में यदि कोई आंख वाला पहुंच जाए तो उसे वहां बीमार करार दे दिया जाता है । ऐसा ही कुछ परिदृश्य वर्तमान की दिल्ली सरकार के साथ हो रहा है । जिस प्रदेश में पिछले पंद्रह वर्षों से लगातार कांग्रेस की सरकार चली आ रही थी और उसके हिस्से में बिजली पानी की महंगाई , बेतहाशा भ्रष्टाचार के साथ साथ राष्ट्रमंडल खेल घोटाला जैसे जाने कितने ही कारनामे आए , जिस प्रदेश में निगम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी प्रबल जीत के साथ काबिज होने के बावजूद भी इन मुद्दों के खिलाफ़ खडा होना तो दूर निगम में व्याप्त भ्रष्टाचार अनियमितता और तमाम गडबडियों की तरफ़ रत्ती भर भी ध्यान न दे सकी और कमाल की बात ये कि चुनाव के बाद जब अप्रत्याशित रूप से एक नई पार्टी जिसके प्रत्याशियों और समर्थकों तक को हिकारत की नज़र से देखा जाता था , खिल्ली उडाई जाती थी वो उस संख्या तक पहुंच गई कि सांप छछूंदर वाली स्थिति हो गई तो एक नई रस्सा कशी का खेल शुरू हो गया , पहले मैं , पहले मैं की स्थिति बदल कर पहले “आप” पहले “आप” पर आकर टिक गई । सीधे सीधे इस नई पार्टी को ही घेरा गया कि अब चुनाव लडा है तो सरकार बनाओ और चला कर दिखाओ । तिस पर तुर्रा ये कि जो काम साठ सालों से बिगडा हुआ था , उलझा हुआ था उसका हल ढूंढने और तलाशने के लिए सबने डेडलाइन भी तय करनी शुरू कर दी ।
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रोज़ाना वादों को पूरा और झट से पूरा कर देने का दबाव और अगले ही पल उसे पूरा न करने का आरोप जडने का एक अंतहीन सिलसिला ही शुरू हो गया । आम जनता जो बरसों से त्रस्त और पस्त थी उसने तो खैर जिस तरह का व्यवहार किया वो समझ में आता है और उसकी एक बानगी इस इश्तेहारनुमा खबर से भी समझी जा सकती है , जिसमें एक सज्जन से सीधे सीधे ही सरकार से कहा है कि वो उनकी मांग मान ले अन्यथा आंदोलन के लिए तैयार रहे
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अब कुछ मुख्य बातें जो दिख तो रही हैं मगर दिखाई नहीं दे रही हैं
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१. दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री को दिल्ली के एक थाने के प्रभारी को निलंबित करने के लिए आग्रह करना पड रहा है , जबकि पडोसी राज्य के मुख्यमंत्री महज़ चंद मिनटों में एक प्रशासनिक अधिकारी को रातों रात निलंबित करने में भी नहीं हिचकते हैं
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२.दिल्ली सरकार के वर्तमान मंत्रियों की सरलता और साधारण व्यक्तिव के कारण न सिर्फ़ अदने से पुलिस अधिकारी , कर्मचारी तक उन्हें आंखे दिखा रहे हैं जबकि इससे पहले के तमाम सरकारों के निगम पार्षद और उनके चमचे तक आला अधिकारियों को हडकाते नहीं डरते थे ।
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३. इस नई पार्टी पर कांग्रेस की बी टीम होने जैसा आरोप लगाया जाता है और जब दल के मुखिया ये बयान देते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस मैदान में है ही नहीं तो इस पार्टी की तथाकथित ए टीम यानि कांग्रेस के नेतागण कहते हैं कि आम आदमी पार्टी में बदबूदार और घटिया लोग भरे पडे हैं ।
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४.इस पार्टी के मुखिया , अगुआ से लेकर तमाम नेताओं के लिए मीडिया से लेकर समकक्ष और विपक्ष के तमाम नेता , क्या करेगा , जूते खाएगा , झूठ बोल रहा है , यानि तू तडाक की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं जो ये बता समझा रहा है कि बेशक आम आदमी सत्ता पर बैठ गया हो मगर सियासती लोगों की नज़र में उसकी औकात अभी वही है ।
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अब कुछ वो बातों जिनसे फ़िलहाल इस नई पार्टी को परहेज़ ही करना चाहिए था :-
फ़िलहाल दिल्ली में पैठ बना कर सत्ता में आकर लोगों का बहुत सारा अधूरा काम करने को प्राथमिकता देनी चाहिए थी बनिस्पत इसके कि तुरंत फ़ुरत में आगामी लोकसभा चुनावों के लिए अपनी दावेदारी ठोंकने की जल्दबाज़ी । इस नई पार्टी के पास  करने के लिए काम और कार्यक्षेत्र पहले ही इतना ज्यादा है कि अनावश्यक रूप से फ़ैलाव करने की जगह केंद्रित होकर मुद्दों पर अपनी सारी उर्ज़ा और श्रम लगाना चाहिए था ।
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ये जरूरी नहीं कि पल पल , मिनट दर मिनट , किया अनकिया , कहा अनकहा , सब कुछ का मीडियाकरण होता रहे । आप काम करते जाइए , चुपचाप करते जाइए , ढिंढोरा पीटने की कोई जरूरत नहीं है । काम का परिणाम सारी कहानी और फ़साना लोगों के सामने अपने आप रख देंगे ।
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आप सामाजिक सेवा के उद्देश्य से राजनीति में आए हैं , व्यवहार , तेवर , शैली , भाषा नम्र और उदार रखें एक सेवक और समाज के सेवक की तरह , बेशक रखें इसमें किसी को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए , होगी भी नहीं किंतु ये इतना भी नम्र और सरल साधारण न हो कि नीचे बैठा मातहत भी आपको अपना सेवक ही समझे । ये भारत है मेरी जान , यहां डंडे का काम डंडे के बल पर ही हो सकता है , कम से कम डंडे को उतना ऊंचा तो रखना ही होगा कि उसका डर और खौफ़ बना रहे ।
अब एक आखिरी बात , लोगों ने आपको आपकी नीयत देख कर एक विकल्प के रूप में चुना है तो सबसे पहला और आखिरी प्रयास यही और सिर्फ़ यही होना चाहिए कि अपनी नीयत स्पष्ट और साफ़ रखिएगा । आप करते जाइए , आप बढते जाइए ….

4 टिप्‍पणियां:

  1. व्‍यवस्‍था परिवर्तन यदि मन में है तो आप टिककर राजनीति करिए। अभी आपने एक छोटा सा प्रदेश देखा है और सपने विशाल देश के देखने लगे हैं यह गलत है। इतनी जल्‍दी क्‍या है लोकसभा में जाने की? पहले अपना कार्य तो सिद्ध करिए। ताबड़तोड़ हल्‍ले से तो यही लग रहा है कि आप केवल नरेन्‍द्र मोदी को नुकसान पहुंचाना चाह रहे हैं। यदि आपकी मंशा शुद्ध है तब आपको कोई गलत नहीं कहेगा लेकिन आपकी मंशा सही नहीं दिखती। केवल सभी को बेईमान सिद्ध करने की मंशा रहेगी तो दूसरे भी आपको बेईमान ही सिद्ध करेंगे। संतान के पैदा होते ही जो चाहते हैं कि उसके मूछें निकल आएं वे दुखी ही होते हैं।

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    1. आपसे पूरी तरह सहमत हूं अजित गुप्ता जी । प्रतिक्रिया देने के लिए आभार और शुक्रिया

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  2. आशायें बढ़ाने के पहले सोचना था कि निभाना भी पड़ेगा।

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला