लो जी और ताव दिलाओ , आम आदमी को , वो सलमान खान का नयका वाला डायलॉग सुने हैं कि नहीं ,
"आम आदमी सोता हुआ शेर है , उसे उंगली मत करो , जाग गया तो चीड फ़ाड कर रख देगा "
और फ़िर जब शेर भी ऐसा कि पिछले साठ सालों से लगभग कोमा में जाकर सो गया था । जंगल में रोज़ आग लगती , रोज़ बुझाई जाती , मगर शेर था कि जागने को तैयार ही नहीं । पिछले दिनों अचानक ही नींद से झिंझोड के जगाया गया उसे , और फ़िर तो जैसे खुद पर लगे किसी खरोंच तक का बदला लेने पर उतारू हुआ ये शेर , आए दिन अपनी उनमत्त दहाड से अरण्य से लेकर प्राचीरों तक को थर्राने लगा ।
जंगल के पुराने भिडैतों ने सोचा अगर इतने दिनों से अफ़ीम पिला कर सुलाए जा रहे शेर को सीधे सीधे लडने और जीतने की चुनौती दे दी जाए तो मामला चित्त हो सकता है , शेर अभी अभी तो जागा है । जब तक अपने दांत पैने करने की सोचेगा तक तक तो उसे लंगडी मार के दोबारा गिरा के सुला देंगे । और फ़िर खासकर तब तो ये बिल्कुल ही आसान साबित होगा जब कि लडाई भिडैतों के तरीके वाली होगी । शेर को चैलेंज़ पे चैलेंज़ । शेर ठहरा शेर , फ़िर वो भी जगा हुआ शेर ।
वही हुआ जिसका अंदेशा तो था मगर अंदाज़ा नहीं था । कुछ जुनूनी और जोशीले लोगों ने न सिर्फ़ अपने दम पर समर क्षेत्र में कदम रखा बल्कि , ताल ठोंक ठोंक के सभी बडे पहलवानों को ही चुनौती दे दी , सही भी था जब बदलने का ही ठान के कदम रखा है तो फ़िर यहीं से क्यों न शुरू किया जाए। ये देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था की ताकत और लोगों की वैचारिक भिन्नता का ही प्रमाण है कि , जनादेश कुछ ऐसा निकल कर आया कि सबको फ़िर मौका मिल गया , शेर की मूंछे मरोड कर उसकी पूंछ बना देने का ।
स्थितियां सबके सामने थीं और नीयत भी सबको पता होने के बावजूद फ़िर से सारा ठीकरा आम आदमी के सिर पर ही फ़ोडने में कोई कोर कसर नहीं रखी जा रही थी । हर तरफ़ उन्हें ही निशाने पे लिया जा रहा था और कमाल की बात है कि एक जिसे पचास साल तक राज़ करने का मौका मिला और दूसरी वो जिन्हें पहले और आगामी आम सभी चुनावों में भी देश में मौजूदा एक बेहतर विकल्प होने के कारण शायद दोबारा भी मौका मिलने की पूरी संभावना होने के बावजूद भी , अपेक्षित रूप से बिना कोई बडप्पन दिखाए , सभी राजनीतिक दांव पेंच और चौसर के पासे आम आदमी के सामने फ़ेंके जा रहे थे ।
एक समय ऐसा भी आया जब यही लग रहा था कि छोडो क्यों ली जाए ऐसी जिम्मेदारी , जिसे कंधा देने वाले उसे मैय्यत को कंधा देने टाईप की भावना से कंधा देने की धमकी दे रहे हैं , मगर जब कदम आगे बढा ही दिया तो फ़िर करो सिंहासन खाली , बैठ कर भी दिखा ही देते हैं । लो जी करो अब खाली सिंहासन कि जनता खुद जनार्दन बनी है और हां रही बात वायदों और करारों की तो सिर्फ़ दो बातें याद दिलाते चलें , अबे तुम होते कौन हो बिना अभी कुछ किए ही फ़ेल मार्क्स वाली मार्कशीट जारी करने वाले जबकि तुम्हारे वादों की असलियत को कई बार पर्दे फ़ाड कर टपक टपक कर गिरती है समाज के चेहरे पे तेज़ाब की बूंदों की तरह । और हां होने को क्या नहीं हो सकता , अगर आम आदमी ने ठान लिया कि सभी ये जो "खास" वाली केंचुली पहन के बुलेट और बैलेट प्रूफ़ हुए घूमते हो न ससुरी इस केंचुली को ही कुतर कुतर के चीथडा कर दिया जाए ।
इस देश में जब तक एक भी भूखा इंसान , भूख , गरीबी , बेकसी , बीमारी से टूट कर जूझ कर मर रहा है तब तक कोई भी कैसे खास बना रह सकता है । बिजली पानी , स्कूल अदालत , एक भी , कहा तो ऐसी एक भी समस्या नहीं है जिसे जड से खत्म न किया जा सके बेशक मगर बहुत अधिक कमज़ोर जरूर किया जा सकता है । फ़िलहाल तो सभी समर्थनकारी चित्कार मार मार कर अपना असली तेवर और रंग रूप दिखा रहे हैं , दिखाइए दिखाइए कि लोग अब सचमुच देख सुन रहे हैं ..............
"आम आदमी सोता हुआ शेर है , उसे उंगली मत करो , जाग गया तो चीड फ़ाड कर रख देगा "
और फ़िर जब शेर भी ऐसा कि पिछले साठ सालों से लगभग कोमा में जाकर सो गया था । जंगल में रोज़ आग लगती , रोज़ बुझाई जाती , मगर शेर था कि जागने को तैयार ही नहीं । पिछले दिनों अचानक ही नींद से झिंझोड के जगाया गया उसे , और फ़िर तो जैसे खुद पर लगे किसी खरोंच तक का बदला लेने पर उतारू हुआ ये शेर , आए दिन अपनी उनमत्त दहाड से अरण्य से लेकर प्राचीरों तक को थर्राने लगा ।
जंगल के पुराने भिडैतों ने सोचा अगर इतने दिनों से अफ़ीम पिला कर सुलाए जा रहे शेर को सीधे सीधे लडने और जीतने की चुनौती दे दी जाए तो मामला चित्त हो सकता है , शेर अभी अभी तो जागा है । जब तक अपने दांत पैने करने की सोचेगा तक तक तो उसे लंगडी मार के दोबारा गिरा के सुला देंगे । और फ़िर खासकर तब तो ये बिल्कुल ही आसान साबित होगा जब कि लडाई भिडैतों के तरीके वाली होगी । शेर को चैलेंज़ पे चैलेंज़ । शेर ठहरा शेर , फ़िर वो भी जगा हुआ शेर ।
वही हुआ जिसका अंदेशा तो था मगर अंदाज़ा नहीं था । कुछ जुनूनी और जोशीले लोगों ने न सिर्फ़ अपने दम पर समर क्षेत्र में कदम रखा बल्कि , ताल ठोंक ठोंक के सभी बडे पहलवानों को ही चुनौती दे दी , सही भी था जब बदलने का ही ठान के कदम रखा है तो फ़िर यहीं से क्यों न शुरू किया जाए। ये देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था की ताकत और लोगों की वैचारिक भिन्नता का ही प्रमाण है कि , जनादेश कुछ ऐसा निकल कर आया कि सबको फ़िर मौका मिल गया , शेर की मूंछे मरोड कर उसकी पूंछ बना देने का ।
स्थितियां सबके सामने थीं और नीयत भी सबको पता होने के बावजूद फ़िर से सारा ठीकरा आम आदमी के सिर पर ही फ़ोडने में कोई कोर कसर नहीं रखी जा रही थी । हर तरफ़ उन्हें ही निशाने पे लिया जा रहा था और कमाल की बात है कि एक जिसे पचास साल तक राज़ करने का मौका मिला और दूसरी वो जिन्हें पहले और आगामी आम सभी चुनावों में भी देश में मौजूदा एक बेहतर विकल्प होने के कारण शायद दोबारा भी मौका मिलने की पूरी संभावना होने के बावजूद भी , अपेक्षित रूप से बिना कोई बडप्पन दिखाए , सभी राजनीतिक दांव पेंच और चौसर के पासे आम आदमी के सामने फ़ेंके जा रहे थे ।
एक समय ऐसा भी आया जब यही लग रहा था कि छोडो क्यों ली जाए ऐसी जिम्मेदारी , जिसे कंधा देने वाले उसे मैय्यत को कंधा देने टाईप की भावना से कंधा देने की धमकी दे रहे हैं , मगर जब कदम आगे बढा ही दिया तो फ़िर करो सिंहासन खाली , बैठ कर भी दिखा ही देते हैं । लो जी करो अब खाली सिंहासन कि जनता खुद जनार्दन बनी है और हां रही बात वायदों और करारों की तो सिर्फ़ दो बातें याद दिलाते चलें , अबे तुम होते कौन हो बिना अभी कुछ किए ही फ़ेल मार्क्स वाली मार्कशीट जारी करने वाले जबकि तुम्हारे वादों की असलियत को कई बार पर्दे फ़ाड कर टपक टपक कर गिरती है समाज के चेहरे पे तेज़ाब की बूंदों की तरह । और हां होने को क्या नहीं हो सकता , अगर आम आदमी ने ठान लिया कि सभी ये जो "खास" वाली केंचुली पहन के बुलेट और बैलेट प्रूफ़ हुए घूमते हो न ससुरी इस केंचुली को ही कुतर कुतर के चीथडा कर दिया जाए ।
इस देश में जब तक एक भी भूखा इंसान , भूख , गरीबी , बेकसी , बीमारी से टूट कर जूझ कर मर रहा है तब तक कोई भी कैसे खास बना रह सकता है । बिजली पानी , स्कूल अदालत , एक भी , कहा तो ऐसी एक भी समस्या नहीं है जिसे जड से खत्म न किया जा सके बेशक मगर बहुत अधिक कमज़ोर जरूर किया जा सकता है । फ़िलहाल तो सभी समर्थनकारी चित्कार मार मार कर अपना असली तेवर और रंग रूप दिखा रहे हैं , दिखाइए दिखाइए कि लोग अब सचमुच देख सुन रहे हैं ..............
एक - एक शब्द सटीक ,पर अभी भी लोग छिद्रान्वेषण के बहाने ढूँढ रहे हैं ......
जवाब देंहटाएंहां सही कह रही हैं आप , यदि अब भी लोग बदलाव के बढे हुए कदमों को लंगडी मार कर लुढकाने पर तुले हैं तो यकीनन लडाई ज्यादा मुश्किल है
हटाएंजनता भी तो केवल लालच की भाषा ही समझ रही है। वह कौन देशहित में आगे आ रही है।
जवाब देंहटाएंहां यही तो ज्यादा बडी विडंबना है
हटाएंजबरा मारे और रोने न दे , जनता इसी हालत में थी।
जवाब देंहटाएंमुहावरा अब भी वही , बस किरदार बदल गये !
सटीक बात
हटाएंशेर तो है पर बहुत देर लग जाती है उसे भी।
जवाब देंहटाएंहां देर तो बहुत हुई है साठ बरस से भी ज्यादा की देर
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति को आज की बुलेटिन मोहम्मद रफ़ी साहब और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया हर्ष , पोस्ट को स्थान व मान देने के लिए
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