शनिवार, 4 अगस्त 2012

लडाई खत्म नहीं , लडाई अब शुरू हुई है






अन्ना हज़ारे और उनके सहयोगियों , जिन्हें सिविल सोसायटी के सदस्य के रूप में देश ने पहचाना था , ने कल अचानक ही घोषणा कर दी और एक प्रश्न पूरे देश के सामने उछाल दिया कि क्या अन्ना और उनके सहयोगियों को अब एक राजनीतिक विकल्प देने के लिए खुद राजनीति में उतरना होगा और साथ ही अनशन की समाप्ति की घोषणा भी कर दी । बेशक राजनीतिक सामाजिक गलियारों में इस तरह के और इससे जुडी कई संभावनाओं के कयास लगाए जाते रहे हों किंतु जंतर मंतर पर खडे और इस सारे जनांदोलन पर अपने मन मस्तिषक का एक कोना लगाए आम आदमी के लिए ये सब अचानक सा हुआ ही रहा । इस निर्णय की जो प्रतिक्रिया देखने पढने सुनने को मिली उसने कहीं से भी आश्चर्यचकित नहीं किया । राजनीतिक दल अपने अपने चरित्र के हिसाब से उपहास उडा रहे हैं , लांछन लगा रहे हैं , और खुद अपनी पीठ थपथपा रहे हैं । कुछ मौका उन्हें भी मिल गया है जो शुरू से ही इसे किसी न किसी करवट बिठाने पर आमादा थे ।

एक आम आदमी की नज़र से इस जनांदोलन का आकलन विश्लेषण किया जाना जरूरी है और इसके लिए सबसे पहले एक आम आदमी होना जरूरी है । आम आदमी जो पिछले साठ बरसों से जाने कितने ही जननायकों , कितने ही जनांदोलनों और कितने ही राजनीतिक दलों के तमाम वादों ,नारों के बहकावे भुलावे में आकर हर बार किसी न किसी को अपनी किस्मत का फ़ैसला करने का हक देता रहा ,और हर बार पिछली बार से ज्यादा और अधिक ठगा जाता रहा , उसे जब कोई गैर राजनीतिक व्यक्ति , कोई गैर राजनीतिक समूह ऐसा मिला जिसने उसे रातों रात गरीबी से ,भुखमरी से , कुपोषण से और इन जैसे तमाम कोढ खाजों से छुटकारा दिलाने का वादा  न करते हुए मुद्दों की लडाई के लिए प्रेरित किया तो वे उनके पीछे हो लिए । आम आदमी को आज भी किसी टीम टाम और किसी देव परदेव से अधिक उन मुद्दों की फ़िक्र रही है जिनका उठाया जाना और जिनके लिए लडा जाना जरूरी है । ये एक सुखद संयोग रहा कि , वो चाहे बाबा रामदेव हों या अन्ना हज़ारे से जुडे हुए सिविल सोसायटी के दल के लोग कम से कम किसी भी तुलना में वे उन जन प्रतिनिधियों से , जो कि हर बार आम लागों को किसी न किसी बहाने से खुद को सत्ता सौपे जाने और फ़िर पूरे देश को दीमक की तरह चाटे जाने के लिए मजबूर कर देते रहे , उनसे पहली ही नज़र में बेहतर तो लगे ही , ऐसे में यदि जनता ने उन्हें अपने लिए आवाज़ उठाने वाला , सियासत से आंखें मिला कर डंके की चोट पर उन्हें भ्रष्ट , अमर्यादित , चरित्रहीन कहने का साहस/दु:साहस करने वाला माना तो कुछ भी अनुचित नहीं था ।

विश्व में आर्थिक मंदी ने आम लोगों की लगभग एक सी स्थिति कर दी थी और अरब देशों सहित जाने कितने ही मुल्कों में आम और मध्यम वर्गीय लोगों ने सियासत और सत्ता के साथ पूंजीपतियों के गठजोड का पुरजोर विरोध किया । निरंकुश सरकारों के प्रति न सिर्फ़ अपना गुस्सा दिखाया बल्कि आम अवाम की ताकत को महसूस कराते हुए  कई स्थानों पर उसे पूरी तरह उखाड फ़ेंका । भारत में भी संचार एवं सूचना तंत्र के प्रसार ने एक क्रांति ला दी वो थी विचारों के प्रवाह और प्रसार की क्रांति । मोबाइल , कंप्यूटर , इंटरनेट तक लोगों की पहुंच ने उनका आपस में न सिर्फ़ संपर्क सूत्र जोड दिया बल्कि लोगों को किसी मुद्दे और समस्या पर बहस करने विमर्श करने और तर्क वितर्क करने का मौका दे दिया । इतना ही नहीं इन सभी मत अभिमतों का सारी सूचना प्रसार तंत्र और मीडिया के माध्यम से न सिर्फ़ सरकार बल्कि समाज तक भी पहुंचने लगी जिसने इसे और विस्तार दे दिया । वैश्विक समाज से लोगों के जुडाव होने का एक लाभ ये हुआ कि पश्चिमी और विकसित देशों में चल रहे प्रशासनिक कायदे कानूनों की जानकारी , व्यवस्था को सुचारू करने चलाने के लिए अपनाए जाए रहे उपायों और अधिकारों की समझ भारत में भी लोगों को होने लगी । ऐसे ही समय में देश का बुद्धिजीवी वर्ग सक्रिय होकर , सीधे सीधे उन कानूनों की मांग उठा बैठा । पहली और बडी सफ़लता उसे सूचना के अधिकार की लडाई जीत कर मिल भी गई ।



पिछले कुछ ही समय में सूचना के अधिकार का उपयोग करके लोगों ने सरकार और सियासत के हलक में हाथ डाल कर उससे वो वो सूचनाएं और जानकारियां हासिल कर लीं जो सरकार और सत्ता में बैठे हुए लोग कभी भी अन्य किसी भी तरह से कम से कम आम लोगों तो कतई नहीं पहुंचने देते । आज ये स्थिति हो गई है कि सरकार को सूचना का अधिकार , उस भस्मासुरी वरदान की तरह महसूस हो रहा है जो अब खुद सरकार के गले की फ़ांस बन गया है । हालात का अंदाज़ा सिर्फ़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ समय में ही सूचना के अधिकार के कारण जाने कितने ही लोगों की हत्या हो चुकी है और सरकार अब तक नौ बार इसमें संशोधन और बदलाव की कोशिश कर चुकी है । अब भी रोज़ाना हज़ारों अर्ज़ियां रोज़ नए खुलासे कर रही हैं ,और यदि सरकार को लेश मात्र भी इसकी ताकत का अंदाज़ा पहले हो जाता तो नि:संदेह सरकार इस कानून को कम से कम इस शक्ल में तो कतई पास होने नहीं देती । इस सफ़लता ने प्रशासन और व्यवस्था से जुडे भिडे और उसके भीतर पैठ कर सब कुछ देख परख चुके कुछ संवेदनशील लोगों को ये मौका दिया कि वे एक जगह संगठित होकर उन मुद्दों और समस्याओं के पीछे जनता को कर सकें जिसके लिए आज तक भारतीय अवाम ने कभी भी आवाज़ नहीं उठाई थी ।

सिविल सोसायटी के नाम पर संगठित उस समूह ने पूरे सुनियोजित तरीके से और सारी लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुरूप पहले सरकार द्वारा प्रस्तावित एक भ्रष्टाचार विरोधी कानून के मसौदे को न सिर्फ़ पढा बल्कि पूरे तर्कों और कारणों से उसमें व्याप्त कमियों को बताते हुए उससे बेहतर कानून का मसौदा सरकार के सामने रख दिया । इतना ही नहीं उस संगठन ने ये सारी प्रक्रिया खुलेआम जनता के सामने रख बांट दी और सरकार के मंशे की कलई खोल कर रख दी । जनता जो पहले ही सरकारी नीतियों और राजनैतिक भ्रष्टाचार के कारण बढी महंगाई की वजह से भुखमरी के कगार पर पहुंची हुई थी उसने फ़ौरन बात को समझा और बिना किसी शक शुबहे , बिना कोई कारण परिणाम जाने और उसकी परवाह किए इस संगठन का साथ देने लगी । इस संगठन के अगुआओं में बहुत सारे व्यक्तियों में से कुछ चेहरे ऐसे थे जिन्हें अवाम उनकी ईमानदार छवि के कारण सम्मान देती आई थी और इस बात ने इस संगठन की लडाई को हवा दी । रही सही कसर इस संगठन के लडाई के उस तरीके ने पूरी कर दी जिसका नाम ले लेकर देश की सबसे बडी राजनीतिक पार्टी अब तक अपनी दुकान चलाती आई थी यानि गांधीवादी आमरण अनशन का रास्ता । मौजूदा समय में जहां किसान और मजदूर आंदोलन तक हिंसक रूख अपनाए हुए थे इस संगठन ने आमरण अनशन का गांधीवादी हथियार आजमाया । तरकीब काम कर गई और बरसों बाद ऐसा लगा मानो आम जनता सडक पर उतर कर सत्ता और सरकार को अपनी बात कहने को उद्धत हुई । मीडिया का दखल और इस आंदोलन की मिनट दर मिनट कवरेज ने इसे पूरे देश में फ़ैलाने में कोई कसर नहीं बाकी रखी ।


सबसे पहले जब मुट्ठी भर लोग जंतर मंतर पर जनलोकपाल बिल को संसद पटल पर रखे जाने की मांग को लेकर बैठे तब किसी को ये अंदाज़ा भी नहीं था कि ये अवाम द्वारा अपनाई और लडी जानी वाली कुछ बडी लडाइयों में से एक बन जाएगी , लेकिन ऐसा हुआ । इस बीच बाबा रामदेव ने विदेशों में भारतीयों द्वारा जमा किए कराए गए काले धन को देश में वापस लाए जाने की मांग को लेकर अपनी मुहिम छेड दी , जिसे भी लोगों ने हाथों हाथ लिया । एक आंदोलन से दूसरा आंदोलन अलग होकर भी जुड गया । सरकार जो पहले से ही इस तरह आम आदमी द्वारा सडक पर किसी कानून के बनने बनाए जाने के मुद्दे की लडाई को अपने दशकों से स्वप्रदत्त अधिकार में हनन मान कर उबाल खाए बैठी थी उसने पूरी राजनीतिक बिसात बिछा दी । पहले ना नुकुर करते हुए उन्हें वार्ता के लिए बुलाया गया और इस बहाने टूटा पहला अनशन और सडकों पर उतरा हुज़ूम घर लौटा कि चलो लडाई शुरू तो हुई ,इस आस और धोखे में कि शायद सरकार को जनमानस की भावना का ख्याल आ गया और उनकी ताकत और आक्रोश का अंदाज़ा हो गया है ।


लडाई की अगली किस्त तब शुरू हुई जब संसद सत्र के दौरान सिविल सोसायटी की टीम ने जनलोकपाल बिल के मसौदे को संसद पटल पर रखने की पुरज़ोर मांग की । न सिर्फ़ इस संगठन को बल्कि अवाम को भी ये स्पष्ट होना बहुत जरूरी था कि असल में सत्ता के पक्ष विपक्ष में बैठे और राजनीति कर रहे तमाम धुरों में कौन कौन इस कानून के साथ खडे हैं और कौन विरोध में खडे हैं । ये बात स्पष्ट भी हुई जब संसद सत्र के दौरान इस प्रस्तावित विधेयक पर बोलते हुए लगभग हर दल और हर नेता ने अपने मन की बात कही जो शासक द्वारा गुलाम से उसे उसकी हद में रहने की हिदायत और चेतावनी देने जैसा कुछ था । यहां चूक ये हुई कि जिस सरकार और राजनीति की मंशा पहले ही स्पष्ट हो चुकी थी उसको दूसरा मौका दिया जाना गलत था कम से कम तब तो जरूर ही जब अवाम की प्रतिक्रिया समग्र और मुखर थी । आखिर क्यों नहीं सत्र को आगे बढाया जा सकता था , क्यों नहीं उस बहस को चलने दिया जा सकता था । दबाव को और बढने देना चाहिए था इतना कि आर पार का निर्णय हो सकता । लेकिन बहुत सारी बातें स्पष्ट होते हुए भी बहुत कुछ अस्पष्ट ही रहा ।


अब बात हालिया जनांदोलन और अनशन की , इस अनशन और आंदोलन का उद्देश्य था दागी केंद्रीय मंत्रियों पर जांच की मांग , जिसके लिए कतई भी इतने दिनों तक भूखे रहकर अपनी बात कहने रखने की जरूरत नहीं थी । मौजूदा हालातों में ये सर्वविदित है कि सिर्फ़ जांच के दायरे में लाए जाने और उन पर मुकदमा चलाए जाने से सरकार , व्यवस्था और राजनीति के चरित्र पर लेशमात्र भी फ़र्क नहीं पडने वाला था । इन चौदह के बाद अगले अट्ठाईस भी उसी रास्ते पर चलने वाले मिलने वाले थे और हैं देश को । सरकार और सत्ता जो दो बार सडक पर उतरे जनसमूह को बरगलाने और घर वापस भेजने में सफ़ल हो चुकी थी उसे बहुत अच्छी तरह पता था कि दो वक्त की रोजी रोटी के लिए लडता आम आदमी बार बार इस लडाई में अपना सर्वस्व दांव पर लगाने नहीं आ सकेगा । तिस पर भूल ये हुई कि टाइमिंग की गलती ने सारी स्थिति को उलट कर रख दिया । यदि राजनैतिक विकल्प का रास्ता चुना जाना ही तय था तो फ़िर ये अभी हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव से पहले ही क्यों नहीं चुना गया या फ़िर कि सिर्फ़ एक पत्र के आने भर ने कैसे इस निर्णय तक पहुंचा दिया अचानक । सबसे बडी कमी ये रही कि जिस तरह का नियोजन और प्रतिबद्धता और उससे अधिक पारदर्शिता अब तक लोगों को दिख रही थी , उन्हें महसूस हो रही थी सब कुछ झटके से होने के कारण उन्हें हटात ये समझ ही नहीं आया ।


अब बात जहां तक राजनैतिक विकल्प देने की है तो अन्ना के सहयोगी पहले ही इस बारे में बहुत कुछ स्पष्ट कह कर चुके हैं लेकिन फ़िर भी अब ये लडाई न तो जनलोकपाल बिल तक सीमित रही है न ही सरकार बदलने तक । अब एक नई दिशा देने की बात की जा रही है तो ये लडाई नि:संदेह बहुत लंबी और निर्णायक होगी । देखना ये है कि क्या सच में ही साठ सालों तक उपेक्षा का शिकार आम आदमी दिए जाने वाले राजनैतिक विकल्प में और जो देने जा रहे हैं उनमें अपना विश्वास जत पाएगा । रही सरकार और सियासत की बात तो उसके लिए ये किसी भी नज़रिए से लाभदायक नहीं होगा । अवाम ने अपना विकल्प चुना तो भी सत्ताच्युत होकर शक्तिहीन होने के लिए उन्हें तैयार रहना होगा और यदि ऐसा नहीं हो पाया तो फ़िर ये असंतोष किस करवट ले जाएगा देश को ये भी देखना होगा । दोनों ही सूरतों में आम आदमी के लिए निराश होने , थक कर बैठ जाने और चुप हो जाने का कोई अवसर नहीं है । उसे नए मुद्दे , नई लडाई , नई सोसायटी खडी करनी होंगी और तब तक इस लडाई को जारी रखना होगा जब तक स्थिति वास्तव में सुधार की ओर न बढे और इसके लिए पहले उसे खुद को भी दुरूस्त , ईमानदार करना होगा ।

4 टिप्‍पणियां:

  1. यह आन्दोलन अब तक सफल रहा है और आगे भी अपना उद्देश्य पूरा करेगा.इसने आम आदमी को मथा है,नेताओं और भ्रष्टाचारियों को खुलकर बाहर आने को मजबूर किया है.
    अभी भी कुछ बुद्धिजीवी वर्ग असल बात नहीं समझ रहे हैं.उन्हें अन्ना टीम में लाख खराबी दिखाई दे रही है,जबकि वर्तमान व्यवस्था को सुधारने का कोई विकल्प उनके पास नहीं है या वे ऐसा ही रखना चाहते हैं.
    डगर कठिन है,पर उम्मीद क़ायम है.अन्ना का आन्दोलन पार्टी बनने के बाद भी आन्दोलन ही रहेगा.

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  2. आकांक्षायें अधिक हैं, निदान कम, कोई न कोई उपाय तो निकालना ही होगा।

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  3. चुनाव लड़ने मात्र से उद्देश्य की पूर्ती नही होगी,जब तक सबकी सोच एक नही होगी सफलता मिलने में मुश्किल होगी,,,,,

    RECENT POST ...: रक्षा का बंधन,,,,

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला