एक वक्त हुआ करता था , सच उस वक्त तो वक्त के सरकने का एहसास हुआ करता था , वक्त के गुजरने का आभास हुआ करता था और वक्त के आने का इंतज़ार भी हुआ करता था । हमें तो वो वक्त भी याद है जब साल के शुरूआती दिनों में ही दीपावली के सर्द उजली टिमटिमाती रातों के घनघोर इंतज़ार में हिंदी की कविता " आई दीवाली रे " पढ पढ के ही खुश हो लिया करते थे , और उन्हीं दिनों में एक दिन हुआ करता था रविवार ।
आप कहेंगे , लो रविवार तो अब भी होता है , अरे धत , ये तो संडे है जी संडे , संडे यानि फ़न डे और फ़न के नाम पर आज जो कुछ मैं कम से कम इस शहर की भोर दुपहरी और शाम को देखता हूं अपने आसपास वो मुझे किसी भी लिहाज़ से सांप के फ़न से कम खतरनाक नहीं लगता । खैर तो बात हो रही थी रविवार की । सप्ताह भर के बाद मिली छुट्टी और उस छुट्टी के आने का इंतज़ार , मानो सब कुछ एक कमाल का अनुभव हुआ करता था । रविवार के जाने से लेकर अगले रविवार के आने तक का कुल सिलेबस मानो यही था बस , कि बीते रविवार को दिखाई गई पिक्चर कितनी अच्छी थी , और आने वाले रविवार की तो क्या कहने ।
सुबह सुबह ही नहा धो कर चकाचक हो जाना , और फ़िर उन दिनों के क्रिकेट मैच । चट से मैच का फ़ैसला और पट से मैच शुरू । अजी काहे का पैड , और काहे का गल्वस । बस टीम में एक या दो बैट वाले दोस्तों का होना जरूरी होता था , सबसे एक एक रुपया इकट्ठा करके बॉल का जुगाड । पास के किसी पेड की टहनियों को काट छील कर विकेट तैयार और वो भी नहीं हुआ तो फ़टाक से नौ दस ईंटों को इकट्ठा करके करीने से एक के ऊपर एक रख कर उसे ही विकेट का रुप दे दिया जाता था । बस हो गया मैच शुरू और नियम भी तभी के तभी मैच दर मैच बना लिए जाते थे । जैसे प्रमोद अंपायरिंग करेगा , तो नॉ बॉल और एलबीडब्लयू नहीं रखा जाएगा मैच में , क्योंको प्रमोद को ही नहीं पता , विकास खाली है तो उसे लेग अंपायर बना दिया जा सकता है । बस उसके बाद कुल पंद्रह बीस ओवरों का मैच और क्या खाक मुकाबला करेंगे आज के फ़िक्स्ड सट्टेबाजी वाले मैच उस मैच के रोमांच का । लेकिन उससे पहले सात साढे सात बजे वाले टीवी कार्यक्रम को देख निपटा लिया जाता था ।
मुझे याद है कि उन दिनों शो थीम , स्टार ट्रैक ,विक्रम और बेताल , बेताल पच्चीसी , और सबसे अधिक सप्ताह में दिखाई जाने वाली पिक्चर हमारे मुख्य आकर्षण हुआ करते थे रविवार को मनाने के । टीवी और क्रिकेट ही क्यों , गर्मी के दिनों या उन दिनों जब घर पर ही रहने की बाध्यता होती थी तब , लूडो और कैरम की धमाधम मची होती थी , इतनी कि कभी कभी तो अलग अलग गुट बनाकर सब बैठ जाते थे खेलने के लिए और न कुछ हुआ तो अंताक्षरी ही सही । कॉमिक्स और बाल पत्रिकाओं में और नंदन , चंपक ,बालहंस , के अलावा बेताल , मेंड्रेक , चाचा चौधरी , बिल्लू , पिंकी ,लंबू मोटू , नागराज जैसे सैकडों किरदार उन दिनों बच्चों के साथी हुआ करते थे ।
कुल मिलाकर समां कुछ इस तरह बंधता था कि आसपास के सभी बच्चे इकट्ठे होकर एक साथ ही पूरा रविवार बिता दिया करते थे । मम्मीओं के लिए जहां ये दिन सप्ताह भर के छूटे छोडे कामों को पूरा करने और कुछ विशेष बनाने का होता था तो पापाओं के लिए दोस्तों के यहां जाकर जरूरी काम निपटाने का , बाज़ार से सामान राशन लाने का , या फ़िर घर के आंगन में या पीछे लगी बगीची क्यारियों की निडाई गुडाई का । और सब मज़े मज़े में अपने काम को निपटाते थे ।
उस रविवार को खोए हुए इतना समय बीत चुका है कि न तो अब उसे वापस लाया जा सकता है न ही उसे भुलाया जा सकता है । अब तो बस हम अपने बच्चों को उस रविवार के किस्से सुना सुना कर ललचाते रहते हैं । कॉमिक्स और पत्रिकाओं का स्थान ले लिया है उनके कार्टून चैनलों ने और लूडो शतरंज और कैरमबोर्ड को रिप्लेस कर दिया है वीडियो कंप्यूटर ने । हम भी कहां वो रहे हैं अब , कहां तो अपने युवापन में रविवार को सभी दोस्तों के पते ढूंढ ढूंढ कर उनके पत्रों को पढा करते थे ,उनका जवाब दिया करते थे और अब यहां बैठे कंप्यूटर पर खिटपिट कर रहे हैं उन दिनों की याद बिसूरते बैठे हैं । ऊपर से पानी की बिजली की और अब तो बारिश और मौसम की फ़िक्र अलग से ।
सनडे को फ़नडे में बदलते देख लिया अब जाने आने वाले समय में इसे रन डे (भागते दौडते दिन ) के रूप में भी परिवर्तित होते देख ही लेंगे शायद , तभी तो अक्सर ये मन गुनगुना उठता है ...
दिल ढूंढता है फ़िर वही फ़ुर्सत के रात दिन
क्रिकेट तो हम नहीं खेले लेकिन देखने में बड़ा मज़ा आता था .
जवाब देंहटाएंसचमुच वक्त बहुत बदल गया है . अब मनुष्य सारे दिन कंप्यूटर पर बैठकर वक्त गुजार सकता है .
जैसे-जैसे दिन बीतते जाएंगे ये दिन और ज्यादा याद आएंगे
जवाब देंहटाएंफ़न डे/रन डे..कुछ और में भी बदल सकते हैं आगे.........
रविवार को कितनी उम्मीदें बँधती है..
जवाब देंहटाएंगर्मी की दोपहर और लूडो, चेस, व्यापारी(पता नहीं ये खेल यहाँ कितने लोगों को पता होगा), कैरम और कॉमिक्स...... क्या दिन थे.....
जवाब देंहटाएंवो भी दिन होते थे ..
जवाब देंहटाएंलौटकर नहीं आनेवाले अब !!
दिल तो बच्चा है जी
जवाब देंहटाएंअब कहाँ रविवार जी। अब तो मुवक्किल पाँच दिन यही पूछते हैं कि रविवार को आ जाएँ, उस दिन तो आप फ्री रहेंगे। होता यह है कि रविवार को घर पर रहूँ तो कभी फ्री नहीं रहता।
जवाब देंहटाएंबचपन के दिन भी क्या दिन थे,,,,,
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुती,
RECENT POST काव्यान्जलि ...: आदर्शवादी नेता,
सच रविवार जैसा अब कुछ भी नहीं .... वैसे भी हमारे लिए तो अब सारे दिन ही रविवार हैं ।
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद रविवार आया है जी.ऐसे संस्मरण बड़े तारीखी होते हैं,लिखते रहा करो !
जवाब देंहटाएंbehtreen post....
जवाब देंहटाएंएक बार फिर याद आ गया रविवार
जवाब देंहटाएंएक बार फिर याद आ गया रविवार
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