शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

जनांदोलन और आम आदमी....झा जी कहिन



ये आम आदमी की तस्वीर है , बस जरा पास पास खडा है एक दूसरे से



देश अभी सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनशीलता के दौर से गुजर रहा है  । ऐसा नहीं है कि कहीं को अस्थिरता या असंतोष प्रकटत: दिखाई नहीं दे रहा है बल्कि अब जिस तरह से चौबीस घंटों में हुई बहुत सी घटनाओं , दुर्घटनाओं , अदालती कार्यवाहियों , समाचार संकलनों और तो और राजनीतिक बयानों तक पर आम आदमी अपनी प्रतिक्रिया दे रहा है वो बहुत कुछ प्रमाणित करने के लिए काफ़ी है । पिछले कुछ वर्षों में भ्रष्टाचार और उसमें सरकार की दुखद भागीदारी ने महंगाई का एक ऐसा आसमान खडा कर दिया है कि जिसमें से थोडे थोडे अंतराल पर आम आदमी पर बिजली टूट टूट के गिरती रहती है । अब तो वो जमाना आ गया है कि लोगों को खाना पीना पहनना और रहना जैसी बुनियादी आवश्यकताएं भी भारी पडने लगी हैं ।

आज सरकार , पुलिस , प्रशासन , अधिकारी , कर्मचारी , मीडिया , अदालत और तमाम छोटे बडे कारक अपने अपने हिस्से के काम बखूबी कर रहे हैं । बखूबी कहने का तात्पर्य ये नहीं कि दुरूस्त कर रहे हैं , बस ये है कि जैसा वे कर सकते हैं , और जैसी करने की उनकी मानसिकता और नियति है वे कर रहे हैं । हालात पिछले कुछ समय से लगातार बिगडते चले जा रहे हैं और बात अब उस स्तर तक पहुंच गई है जहां पर कई विद्वान लोग भ्रष्टाचार , घूसखोरी के वैधानिकीकरण यानि उसे बिल्कुल कानूनी और ज़ायस बनाने की बातें तक करने लगे हैं । एक बहुत बडी जमात उन लोगों की भी है , जिन्हें न तो सरकार की अकर्मठता , उसके धूर्त चरित्र और उसके द्वारा की जा रही बेइमानी से कोई सरोकार न है न ही इसके खिलाफ़ या फ़िर सरकार के ही समर्थन या विरोध में खडे लोगों में कोई दिलचस्पी । वे मस्त हैं ये मान कर कि अब कुछ नहीं हो सकता और इस देश को और इन हालातों को कोई भी कभी भी नहीं बदल सकता । मेरा मानना ये है कि आम आदमी जब अपनी सोच और अपने नज़रिए से सरकार और सत्ता को अपना गुस्सा दिखाने लगता है तो सरकारें भी भीतर से कांप रही होती हैं ,तो इसलिए बेशक जो खुल कर इस लडाई में आगे नहीं आ सकते , वे चुप ही रहें इससे बेहतर कि वे रूदालियों की तरह यही कहते फ़िरें कि ऐसा अब नहीं हो सकता वैसा अब संभव नहीं है । और सरकार को भी भलीभांति ये समझना चाहिए कि आज ये सवाल नहीं है कि मुद्दों को उठाने वाले कौन हैं , असली बात ये है कि जो मुद्दे उठाए जा रहे हैं , उनके बारे में सरकार का क्या सोचना है । आज अगर आम लोग अलग अलग रूप और जनसंगठनों के सहारे सरकार के सामने सीना तान के खडे हो गए हैं और सिर्फ़ चंद सवालों के जवाब , लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए कुछ अधिकार और जनांदोलनों का रास्ता अख्तियार करके उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए दृढबद्ध हो गए हैं तो इसमें अनैतिक , गैरकानूनी और असंवैधानिक क्या है , ये सरकार को जरूर बताना चाहिए ।

बेशक कुछ व्यक्तियों ने कुछ बहुत से वाजिब सवालों को उठाकर और बनने वाले कुछ प्रस्तावित कानूनों में कुछ बुनियादी बदलाव की मांग करके न सिर्फ़ सरकार के थिंक टैंक की चूलें हिला दीं बल्कि आम आदमी के विचारों को , उसके गुस्से को , उसकी लाचारी को एक हवा सी दे दी है । आज जो इस स्थिति से जरा भी रूबरू है वो जानता है कि आने वाले समय में उसे दो में से एक रास्ता ही चुनना होगा । या तो आप बदलाव के साथ हैं या बदलाव के साथ नहीं है । और समाजशास्त्री ये बात बखूबी समझते हैं कि जब समाज में फ़ासला इतना बडा हो कि नब्बे प्रतिशत की किस्मत दस प्रतिशत की मुट्ठी में जबरन कैद हो तो फ़िर संभावना इसी बात की ज्यादा रहती है कि नब्बे प्रतिशत उस दस प्रतिशत को उखाड फ़ेंकने की योजना में ही शामिल होता है । और ऐसा भी नहीं है कि आज आम आदमी तटस्थ है , चुपचाप सब होता ,देख रहा है । नहीं कतई नहीं है , बल्कि असल में तो आज हर दफ़्तर , हर महकमें , हर संस्थान में उन मुट्ठीभर ईमानदार लोगों के चेहरे की चमक और आत्मविश्वास दोगुना सा दिख रहा है । लोग अब आरटीआई और कंज्यूमर कोर्ट की भभकी से बडे बडों की हवा टाईट करने में लगे हैं । सीएम पीएम भी अदालतों के चक्कर यूं काटते दिख रहे हैं मानो चोर गिरहकट और जेबकतरे हों ,लेकिन  इसके बावजूद सिर्फ़ दो बातों की अकड , पहली ये कि जनता के चुने हुए नुमाइंदे हैं , वो भी उस अंदाज़ में कि अब तो आ गए चुन कर , अब पांच सालों तक कुछ भी न बिगाड सकोगे किसी भी सूरत में , दूसरी ये कि आज भी भारतीय जनता ने लोकतंत्र पर विश्वास करना नहीं छोडा है और वो अब भी आमतौर पर उतनी हिंसक नहीं होती जितने कि आज विश्व के अन्य देशों की आम जनता हो जाया करती है , नहीं तो किसी की भी समझ में ये बात आ सकती है कि कसाब जैसे मुलजिम भारत जैसे देशों में ही इतने दिनों तक जीवित रह सकते हैं ।



ऐसे में भी अगर आम लोग अभी ये तय कर लें कि उन्हें आज नहीं , बल्कि अपना कल कैसा चाहिए तो ये माना जा सकता है कि , आने वाले कुछ दिनों में उबलता हुआ जनस्मूह कोई बहुत कारगर उपाय न भी तलाश पाए तो ऐसा एक माहौल जरूर बना दे लगे कि हां वाकई सब कुछ बदलने के दौर में है । तय तो खुद लोगों को करना है , समाज को करना है क्योंकि कोई भी पेशा हो या कोई भी पद हो , आता और बनता तो हमारे बीच से ही है न आखिर । लेकिन उस बदलाव की शुरूआत के लिए यही उपयुक्त समय है और यही उपयुक्त माहौल भी । सबसे जरूरी बात तो ये कि सबको अपनी अपनी स्थिति जरूर मजबूत रखनी चाहिए , यानि कि आप जहां है , वहां से खुद की बेहतरी के लिए सोचते रहें , जरूर सोचें , क्योंकि आप बढेंगे तो देश बढेगा , लेकिन हां रास्ते वही चुनिए , जिस पर आप चाहते हैं कि आपकी अगली पीढी को किसी इससे भी बदतर स्थिति से गुजरना न पडे । इसलिए ये बहुत जरूरी है कि आज एक कदम तो जरूर ही उठाया जाए । इसलिए आज के युवाओं को अपनी ताकत का अपनी धमक का और अपनी सोच ,जिम्मेदारी के एहसास को भलीभांति इस सरकार को सुनाना चाहिए । आसपास के हर दफ़्तर , हर संस्था में गलत बातों का विरोध , खुदबखुद कतारबद्ध होकर काम करने करवाने की प्रवृत्ति , ट्रैफ़िक  और नागरिक नियमों का सम्मान और उनका पालन , आसपास के समाज के साथ पारस्परिक सहभागिता निभाते हुए एक दूसरे की सहायता की भावना का विकास , लालच और विकास की अंधी दौड में भागते रहने से बेहतर है कि बेहतर इंसान बनने के मायने सीखें और सिखाएं जाएं , लेकिन इसके लिए एक बेहतर राजनीतिक नेतृत्व और जनसंगठन की जरूरत होगी । पिछले दिनों से तयशुदा मानकों को तोडना होगा और जंग फ़ंफ़ूद लगे अनुच्छेदों को कांट छांट के इस समय के अनुकूल करना होगा ।



इसलिए आज देश के न सिर्फ़ युवाओं , बल्कि महिलाओं , मजदूरों , छात्रों , खिलाडियों , सबको देश के लिए , लोकतंत्र के लिए , और नागरिकों की मानसिक शारीरिक आजादी की रक्षा के लिए अपने अपने हिस्से की लडाई लडनी ही होगी । हो सकता है कि कहीं कहीं पर अगुआ और लडाई का तरीका थोडा बहुत अलग हो लेकिन उद्देश्य वही होना चाहिए । छोटे छोटे जनसंगठनों का निर्माण , आम लोगों में सभी नागरिक अधिकारों के प्रति सजगता और गरीब वंचित तबके के लिए यथा संभव सहायता के बहुत सारे छोटे छोटे ऐसे काम हैं जिनके लिए किसी तहरीर चौक और किसी आंदोलन की जद में आए इसे किया जा सकता है । लेकिन हां इसके साथ ही ये बहुत जरूरी हो जाता है कि ऐसा हर वर्ग , हर तबका , हर समूह , हर संगठन , हर जनतांत्रिक मुहिम में अपनी सक्रियता का परिचय जरूर कराए , पक्ष या विपक्ष में ये दीगर बात है । धार्मिक विद्वेष , सामाजिक कुरीतियों और पश्चिमी विकृतियों से निपटने के लिए और उनमें बदलाव लाने के लिए किसी कानून से ज्यादा मानसिकता बदलने की जरूरत है और ये मुहिम अभी से शुरू कर दी जाए तो बेहतर होगा और शायद एक दिन जाकर वो स्थिति भी आए जब आज के ये दिन और स्थिति एक दु: स्वप्न की तरह याद किया जाए ।

11 टिप्‍पणियां:

  1. जनता के विभिन्न वर्गों के संगठन और उन में तालमेल ही जनतंत्र का भविष्य हैं।

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  2. धार्मिक विद्वेष , सामाजिक कुरीतियों और पश्चिमी विकृतियों से निपटने के लिए और उनमें बदलाव लाने के लिए किसी कानून से ज्यादा मानसिकता बदलने की जरूरत है और ये मुहिम अभी से शुरू कर दी जाए तो बेहतर होगा और शायद एक दिन जाकर वो स्थिति भी आए जब आज के ये दिन और स्थिति एक दु: स्वप्न की तरह याद किया जाए ।

    अजय भाई,सुन्दर सार्थक गहन चिंतन प्रस्तुत किया है आपने.सकारात्मक मानसिक बदलाव की ही अत्यंत जरुरत है,किसी भी क़ानून से कहीं अधिक.

    सुन्दर लेखन के लिए बहुत बहुत आभार.

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  3. Aapke vicharon se sahmat hun.Mansikta badle bina kuchh nahee honewala.

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  4. इसमें कोई शक नहीं कि जिम्मेदारी का अहसास ही बहुत कुछ बदल सकता है !
    बहुत बढ़िया लेख ....
    शुभकामनायें !

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  5. भ्रष्‍टाचार के विरोध में प्रत्‍येक शहर और गाँव में छोटे-छोटे और प्रभावी संगठन बनने चाहिए। जिससे भ्रष्‍टाचार होने वाले स्‍थान पर एक फोन कॉल से पहुंचा जा सके। जनता को जागृत तो होना ही पड़ेगा और अपने बच्‍चों के भविष्‍य के लिए स्‍वच्‍छ देश देने की शपथ भी लेनी पड़ेगी।

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  6. बेशक कुछ व्यक्तियों ने कुछ बहुत से वाजिब सवालों को उठाकर और बनने वाले कुछ प्रस्तावित कानूनों में कुछ बुनियादी बदलाव की मांग करके न सिर्फ़ सरकार के थिंक टैंक की चूलें हिला दीं बल्कि आम आदमी के विचारों को , उसके गुस्से को , उसकी लाचारी को एक हवा सी दे दी है ।....................

    sau fisadi sahi akalan..............

    pranam.

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  7. लगता है कि कुछ निष्कर्ष निकलने तक यह हलचल बनी रहेगी।

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  8. आपने सरकार-बहादुर पर हल्ला बोल दिया है !अपनी लाठी को बहुत तेज़ से चलाय रहे हो,एक-आध को तो ले गिरोगे ही.जब शुरुआत हो जाएगी तो पूरी बुलंद इमारत को भी खँडहर में तब्दील होते देर नय लगेगी !

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  9. हम आप के विचारो से पूरी तरह सहमत है |
    आज हमारे समाज और देश में भ्रस्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हो गयी है की हमें तो उम्मीद नहीं है की ये कभी पूरी तरह से ख़तम हो पायेगी क्यों की कही न कही इन सब के जिमेदार हम लोग ही है |

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  10. जिम्‍मेदारी का एहसास ही सर्वोपरि है। और आप अपनी जिम्‍मेदारी बखूबी निभा रहे हैं।

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    जादुई चिकित्‍सा !
    इश्‍क के जितने थे कीड़े बिलबिला कर आ गये...।

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला