सोमवार, 4 अप्रैल 2011

किक्रेट की कुछ यादें .....कुछ भी कभी भी

ये जोश , ये जज़्बा , ये जुनून ................और कहां ??


मुझे ये याद नहीं कि कब मैंने क्रिकेट देखना बंद कर दिया था , ये भी नहीं कि बंद ही क्यों कर दिया उस खेल को जो कि मैं अपने बचपने से से युवापन तक खेलते रहने के कारन मेरा सबसे प्रिय खेल था और मेरे जैसे ही लाखों करोडों भारतीयों का भी । अब थोडा ज़ोर डाल कर सोचता हूं तो याद आता है कि शायद ये फ़िक्सिंग की आंधी का दौर था जब एक वितृष्णा सी हो गई थी मन में कि यार इस खेल को ही जेंटलमैन खेल कहते थे ? और दूसरी वजह शायद ये रही कि , कभी क्रिकेट सीज़न के स्वरूप से बदलते हुए अब ये खेल न तो खेल ही जैसा लग रहा था और सालों भर चलते रहने के कारण वो आकर्षण बरकरार रख पा रहा था । हालांकि प्रदर्शन और टीम के लिहाज़ से कभी भी भारतीय टीम न तो लचर रही और न ही कभी कमज़ोर हुई इसके बावजूद कि बहुत बार एकदम निराश करते हुए पहले ही दौर में प्रतियोगिता से बाहर हो गई । लेकिन बरसों पहले ऐसा नहीं था , कतई नहीं था ।



1983 के चैंपियन




अगर क्रिकेट से जुडी पुरानी से पुरानी यादों को टटोलता हूं तो ठीक ऐसा ही जोश जुनून और एक सनसनाहट महसूस की थी जब भारत ने पहली बार विश्व कप जीता था । उस समय बहुत ज्यादा खेलता तो नहीं था क्रिकेट हां शुरूआत जरूर हो चुकी थी और हम नियमित रूप से शाम को खेला करते थे । ये नियमितता और ज्यादा तब बढ जाती थी जब क्रिकेट सीज़न हुआ करता था । ओह वो समय , मुझे अब तक याद है वो जिंबाब्वे के खिलाफ़ भारत का मैच , सुशील दोषी की कमेंट्री ( उन दिनों रेडियो पर किक्रेट कमेंट्री में मिला रोमांच अब टीवी और सीधे स्टेडियम में बैठ कर देखने में भी नहीं मिल पाया ) भारत की ऐसी स्थिति जहां से जीत की कल्पना करना भी बेमानी सा लगता था , उस समय कपिल देव ने जो भुतहा पारी , हा हा हा उस समय हमारे बीच एक बात बडी लोकप्रिय हो गई थी कि उस दिन कपिल के ऊपर कोई सवार हो गया था और उसने ऐसी धुलाई की कि बस समां ही बांध दिया । जब एक छोर से विकेट पे विकेट गिरते जा रहे थे तो सबने रेडियो बंद करके बातें शुरू कर दीं । लगभग आधे घंटे के बाद एक शोर सा सुनाई दिया किसी के रेडियो पर , हमें लगा चलो मैच खत्म , रेडियो ऑन किया तो ..सुनाई दिया , दिल के मरीज़ कृपया अपना ध्यान रखें और रेडियो सेट से दूर हो जाएं ,हालात ही ऐसे थे , कपिल मैच का रुख पलट चुके थे , लेकिन फ़िर भी स्कोर इतना था कि लगता था कि अब खत्म हुआ सब कुछ , लेकिन उस दिन कपिल , कुछ और ही ठान कर बैठे थे ।



कपिलदेव और गावस्कर दो ऐसे नाम थे जो क्रिकेट का क जानने वाला बच्चा बच्चा जानता था , हालांकि फ़ायनल में वेस्टइंडीज़ के जबडे से जीत को निकाल लाने वाले मोहिंदर अमरनाथ , सबके प्रिय फ़ायनल के बाद ही हुए थे , कम से कम हमारे तो जरूर ही । और फ़िर वो फ़ायलन , सोचता हूं कि इस फ़ायनल से कम जुनून था उसमें , दो बार की चैंपियन , कालूओं की टीम । वो भी उन कालूओं की जो उन दिनों क्रिकेट दानव ही थे । बाप रे बाप रे सब के सब तवे , एकदम मजबूत । और जब भारत जीत कर पहुंचा था । पटाखों का शोर शराबा तो याद नहीं लेकिन लोग पागलों की तरह तो उस समय भी घर से निकल आए थे । ओह क्या दिन थे वे भी ..........





सच कहूं तो वो तो एक युग की शुरूआत थी , उस युग की जिसने अंतत: राष्ट्रीय खेल हॉकी की लोकप्रियता को पीछे धकेलते हुए क्रिकेट को जुनूनी स्तर तक पहुंचा दिया । मैं किसी भी खेल में कभी भी अनाडी तो नहीं रहा , बैडमिंटन , वॉलीबॉल , हॉकी , फ़ुटबॉल , शतरंज , आदि सभी खेलों में एक अच्छे और जुझारू खिलाडी के रूप में जाना जाता रहा , लेकिन क्रिकेट वो खेल रहा जिसे बचपने से लेकर जवानी तक उसी जुनून से खेलते रहे और साथ साथ खेल को भी देखते सुनते रहे ।मैं अपनी टीम में एक लेग स्पिनर के रूप में जाना जाता था और कहता चलूं कि घातक इतना कि पहले ही स्पैल में कमर तोड सकने वाली कूव्वत , बैटिंग में पिंच हिटर , चौका छक्का नहीं तो घर वापस , फ़ील्डिंग स्लिप में और मजाल कि कैच निकल जाए आजू बाजू से भी । हा हा हा हा मेरे जैसे तो कम से कम करोड या शायद करोडों खिलाडी होंगे और दीवाने तो उससे भी ज्यादा । एक से एक ऐसी अनमोल यादें हैं मेरे जैसे करोडों भारतीयों के पास क्रिकेट से जुडी हुईं । बेशक उन दिनों आज वाला ग्लैमर , पैसा और शायद शोहरत भी नहीं था मगर मुझे याद है गावस्कर के सबसे अधिक शतकों पर हीरे जडित ट्रे नुमा ट्रॉफ़ी , मुझे याद है कपिल के चार सौ बत्तीस विकेट ( शायद यही रिकॉर्ड था ) लेने पर लोगों द्वारा अपने घरों दीवारों पर रंगीन बल्बों से लिखी गई मुबारकबाद , और जाने कौन कौन सी यादें । मनिंदर सिंह का आखिर में सिर्फ़ एक रन न बना पाने के कारण हारे हुए मैच भी , और तपते बुखार में गावस्कर द्वारा मारा गया एकमात्र एकदिवसीय शतक जो उन्होंने अपनी ससुराल कानपुर में मारा था शायद , श्रीकांत की बॉलिंग और एक मैच में पांच विकेट लेना , नरेंद्र हिरवानी के पहले ही टैस्ट मैच में फ़िरकी से पूरी वैस्ट इंडीज़ टीम का बाजा बजा देना , सिक्सर सिद्धो , अज़हर की फ़िल्डींग , जडेज़ा की चालीसे के बाद की बल्लेबाजी , उफ़्फ़ कहां तक क्या क्या लिखूं ।



अब चलते चलते कुछ बातें इस विश्व कप की । जब ये विश्व कप शुरू हुआ तो जैसा कि मैंने अपनी पोस्टों में भी इस बात को लिखा कि इस बात की पूरी खबर जोर शोर से फ़ैली हुई थी कि इस महाखेल प्रतियोगिता में भी सट्टेबाजी का प्रकोप ज़ारी है ..जो दो बातें बहुत पहले ही तय हुई बताई गईं वो ये कि सेमिफ़ायनल में भारत पाकिस्तान को हराएगा और चैंपियंन भारत बनेगा ..लेकिन मुझे कहीं भी ये नहीं लगा कि जो खिलाडी अपना जीजान लगा के खेल रहे थे वे किसी भी तरह की सौदेबाजी में लिप्त थे , कम से कम अपनी टीम के लिए तो मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूं । जो भी हो , ये जीत कई मायनों में एतिहासिक और यादगार रहेगी , क्रिकेट में एक किंवदंती बन चुके सचिन तेंदुलकर को दिया गया ये वो अनमोल तोहफ़ा है जो उन्हें दिया जाना बहुत ही जरूरी था । जो लोग इस जीत को , किसी भी अन्य समस्या से , अन्य मुद्दों से जोड या घटा के देख रहे हैं उन्हें ये समझना चाहिए कि कुछ मौके बहस और विमर्श से परे सिर्फ़ सेलिब्रेट करने के लिए भी होते हैं तो आप फ़िलहाल तो इस बात की खुशी मनाइए कि आप आज सिरमौर हैं , विश्व चैंपियन ...








सचिन खुद सिरमौर देश का , उसके सिर पे ताज यही  साजे


13 टिप्‍पणियां:

  1. सही है. क्रिकेट मैच देखना मैने भी फ़िक्सिंग-कांड के बाद बन्द कर दिया था. बहुत दिलचस्पी मेरी इस खेल में मेरी वैसे भी नहीं है. लेकिन इस बार विश्व कप देखा, शायद छुट्टियों की वजह से. जीत तो अच्छी लगती ही है.

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  2. रोचक संस्मरण .पुरानी यादें सहला गयी और नई बातों ने तो दिल जीत लिया.मेरी नई पोस्ट 'वन्दे वाणी विनयाकौ' पर आईये अजय भाई.

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  3. नवसंवत्सर पर हार्दिक शुभ कामनाएँ.

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  4. कुछ यादें इधर भी ताजा हुईं. रोचक!!

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  5. वाह मजा आ गया....लेकिन बहुत छोटा लगा मुझे :( अगला पार्ट भी है न ???? गुड :P

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  6. हा हा हा हा अभिषेक ....दूसरा पार्ट भी लिखना ही पडेगा अब तो मुझे ..चलो देखता हूं कब तक लिख पाता हूं उसे

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  7. कितना कुछ याद है आपको, हमको भी याद दिला दिया।

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  8. हम भी बचपन से ही देखते और सुनते रहे हैं साथ ही खूब खेला भी है। जीत की बधाई।

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  9. सचमुच आज आपने पुराने जख्म कुरेद दिए --जब रेडियो पर क्रिकेट की कामेंट्री आती थी --और छोटा भाई पागलो की तरह बेठा सुनता था--तब हम दोनों में बहुत लड़ाई होती थी क्योकि मुझे गानों का शोक था., जो आज भी है ,और वो रेडियो के पास किसी को भटकने नही देता था --आखिर पापा ने उसे एक ट्राजिस्टर लाकर दिया जो उन दिनों नया नया आया था --
    क्रिकेट से ज्यादा मुझे हाकी का शोक था जिसे मै हमेश सुनती थी -फिर गाने भी छोड़ देती थी --क्योकि मै खुद एक हाकी पलेयर थी --!
    खेर बहुत बड़ियाँ पोस्ट लगी ! धन्यवाद !

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  10. बहुत बड़ियाँ पोस्ट लगी| धन्यवाद|

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला