सोमवार, 9 जून 2008

जब उन्हें मैं दिल्ली का नहीं लगा.

यूं तो मेरा अधिकांश बचपन पिताजी के साथ कई राज्यों और बहुत से बड़े छोटे शहरों में बीता , मगर समय के उस चक्र में जब शायद मैं बचपने से थोडा बाहर निकल रहा था , तब अचानक बहुत से कारणों से हमें अपने गाँव जाना पडा , सच कहूं तो मुझे तो ज़रा भी अलग या बुरा नहीं लगा,हालांकि मैं शहर की चकाचौंध के बाद सीधी लालटेन की पीली रौशनी में पहुँच गया था। मगर मुझे लगता है की ऐसा शायद इसलिए था क्योंकि मुझे शहर की नियमित दिनचर्या से अलग कुछ मिल गया था। मैंने गाँव में बिठाये पलों के बारे में बताना शुरू किया तो शायद सब कहें की उसके लिए तो एक अलग चिटठा ही बना लूँ तो बेहतर होगा। खैर , जब अपनी पढाई लिखाई के बाद मैंने दिल्ली आने का फैसला लिया था तो ये उन दिनों एक प्रचलित रिवाज़ सा बन गया था। और चूँकि अपने सारे फैसले मैं न जाने कब से ख़ुद ही करने लगा था इसलिए इस फैसले को भी सबने खुशी खुशी मान लिया।

गाँव की आबो हवा के बाद जब कुछ दिनों तक दिल्ली की बसों में और ट्रेफ्फिक की धूल धुएं को अपने फेफड़ों में महसूस करने लगा तो पता चला की यार ये दिल्ली कैसी है। आप तब भी मेरे अनुभव का अंदाजा चंद इन्हें बातों से लगा सकते हैं। मुझे पहली बार किसी दोस्त की पार्टी में खाने के लिए मिली चौउमीन को देख कर मैं बुरी तरह बिदक गया था, कि कमबख्त ने मुझे केंचुए क्यों दे दिए हैं, क्योंकि उससे पहले मैंने कभी चौउमीन नहीं देखा था। दोसोतोंके कहने पर बस में मुफ्त चलने के लिए मैंने जब staaff कहा तो बस वाले के पूछने पर मैंने हदबदा कर एक गर्ल्स कोल्लेज का नाम ले दिया था। तो आप समझ ही गए होंगे की उस वक्त शायद मैं दिल्ली में रहने वाला सबसे बड़ा गंवार था।

एक दिन ऐसी ही एक बस यात्रा के दौरान मैंने देखा की मेरे सीट के पास एक वृद्ध महिला आकर खड़ी हो गयी । बस अभी अभी चली थी और मैंने नज़र दौडाई तो कहीं भी जगह नहीं थी , इसलिए मन में सोचा की छोडो यार इतनी दूर जाना है, और फ़िर मैं कौन सा लडीस सीट पर बैठा हूँ। मगर न जाने किस भावना के वशीभूत मैं चुपचाप खडा हो गया और उन्हें बैठने का इशारा किया। वे कृतागाया भाव से देखते हुए बैठ गयीं। मैं थोडा आगे जाकर खडा हो गया। तकरीबन सवा घंटे के बाद जब वे महिला उतरने के लिए खड़ी हुई तो उन्होंने चौंक कर मुझे देखा, फ़िर कहा, "पुत्तर तुसी ओथी उतरे नहीं मैं समझी त्वानु ओत्थे ओतारना हैगा " मैंने कहा जी नहीं मुझे तो आगे उतरना है।
वे और चकित होते हुए मेरे पास आकर अपने हाथ मेरे सर पर फेरती बोली, पुत्तर तू मेनू दिल्ली दा नही लगदा। " कहकर वे चली गयीं। मैं आज भी उनके वे शब्द और वाक्य नहीं भूल पाया हूँ।

काश की मैं कभी भी दिल्ली का नहीं हो पाऊं

6 टिप्‍पणियां:

  1. कहानी बहुत अच्छी है.
    जो लोग अस्सी साल के बूढ़े बुढियों को मार कर लूट ले जाते हैं वो भी दिल्ली के नहीं होते. दिल्ली का दिल बहुत बड़ा है.
    न दिल्ली बुरी है न दिल्ली के लोग. जहां रह रहे हैं उस जगह की कद्र कीजिये.
    लिखने को क्या है, कुछ भी लिखा जासकता है.

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  2. दिल्ली हर उस शख्स की महबूबा है जिसे दिल्ली से प्यार है । और जिसे दिल्ली से प्यार है वो दिल्ली में दिल से रहेगा ।

    आपका अनुभव पढना बडा सुखद रहा, ऐसे ही बने रहें ।

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  3. दिल्ली के तो हम भी हैं... जन्मे पले बड़े हुए और पढाई भी वहीं की फ़िर भी कुछ लोग मजाक में कहते हैं कि हम दिल्ली के नही... शायद कुछ लोगो का कड़वा अनुभव ऐसा कहने को बाध्य करता हो .... वैसे शहर कोई भी हो... अच्छे बुरे लोग सभी जगह पाए जाते हैं...

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  4. एकदम सच सच सब इतने अच्छे तरीके से कह गये/इतना साफ कोई बताता है क्या अपने बारे-पुत्तर तू मेनू दिल्ली दा नही लगदा। :)

    बहुत अच्छा लगा. कभी मत बनना पूरा दिल्ली वाला/ या कहीं का भी वाला. जैसे हो वैसे ही रहो-हमेशा अच्छे इंसान बने रहो, बस्स!!! शुभकामनाऐं.

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  5. शहरो का या दिल्‍ली का होना मतलब सिर्फ अपने लिये जीना
    और दिल्‍ली में ये खासियत है कि ये सबको शरण देती है और उनमें कुछ ज्‍यादा नालायक ऐसे है जो छीनने मे ज्‍यादा विश्‍वास करते है

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  6. are baap re , mujhe nahin pata tha hujoor ki sirf dilli ka kehne bhar se aisee aisee pratikriyaaein aayengee, waise main itnaa bata doon ki ye koi kahaanee nahin thee jaisaa mere saath beetaa maine bata diya, aur rahee baat dilli ki to dilli to mera bhee dil aur jaan hai yaaron fir jis shaher mein rojee rotee ke liye pahunchaa use kaise kos saktaa hoon haan kuchh shikaayat shahreepan se jaroor rahtee hai wo rahegee hee.

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला