शुक्रवार, 20 जून 2008

एक कविता या पता नहीं कुछ और

होगा कई,
शहरों -कस्बों ,
मैदानों-सड़कों,
का मालिक,
फ़िर भी,
चला वो,
सड़क किनारे,
नहीं बीच में,
चलते देखा॥

कहते होंगे,
उसे सभी , वो,
है बड़े,
दिल का मालिक,
पर वो तो,
हाथ मिलाता सबसे,
कभी किसी से,
नहीं गले मिलते देखा॥

मुझको लगता था,
मैं ऐसा हूँ,
दोस्तों से भी,
चिढ जाता हूँ,
पर उसको भी,
अक्सर,
यारों की,
कामयाबी पर,
जलते देखा॥

सूखी ही सही,
रोटी ही सही,
पर माँ , मुझको,
ख़ुद देती है,
उसके बच्चों ,
को तो ,
आया के हाथों,
पलते देखा॥

मुझको लगा की,
कमजोरी ने,
मुझको बूढा बना दिया,
देखा तो,
कुछ,
झुर्रियां ही,
थोड़ी कम थी,
उम्र के उस मोड़ पर,
उसको भी,
ढलते देखा॥

अमा, काहे के अमीर हो यार, ?

6 टिप्‍पणियां:

मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला