रविवार, 11 मई 2008

एक कविता

आज सोचा कि, आपको एक छोटी सी कविता पढ़वाऊं जो मुझे बहुत पसंद आयी। पिछले दिनों जनसत्ता के वार्शिकांक में मित्र बैजू कानूनगो की एक अनाम कविता पढी , आपके लिए प्रस्तुत है :-

तुझे जो काम करना है, वो कर जाने से डरता है,
तू अपनी बात के पीची ये सर जाने से डरता है।
सड़क के बीच ट्रैफिक में फंसा कमज़ोर इक बूढा,
इधर आने से डरता है, उधर जाने से डरता है।
तू काँटा है तो तेरा फ़र्ज़ है गुलशन की रखवाली,
अगर तू फूल है तो क्यों बिखर जाने से डरता है।
बदन के घाव दिखलाकर जो अपना पेट भरता है,
सुना है वो भिखारी जख्म भर जाने से डरता है।
मैं शिक्षक हूँ मुझे मालूम है, तुम भी समझ लेने,
जो बच्चा घर से भागा है, वो घर जाने से डरता है।
तवायफ़ के बुढापे सी है तेरी जिंदगी बैजू,
तू मरने के लिए बैठा है, मर जाने से डरता है॥

यदि आपको पसंद आयी तो और कवितायें भी हैं........

6 टिप्‍पणियां:

  1. अजय जी,

    बदन के घाव दिखलाकर जो अपना पेट भरता है,
    सुना है वो भिखारी जख्म भर जाने से डरता है।

    हर शेर बेहतरीन, रचना पढ कर आनंद आ गया।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  2. bahut alag si ........kintu bahut sachhi abhivyakti ......aur jaroor likhe

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  3. सही कहा आपने, हर आदमी के अपना अपना डर है। इस प्यारी सी कविता के लिए बधाई।

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला