रविवार, 9 मार्च 2008

कलम उनकी कातिल है.

कलम उनकी,
कातिल है ,
हम रोज मरते हैं॥

कुछ कही,
और अनकही,
हम रोज पढ़ते हैं॥

कभी दोस्त,
कभी दुश्मन बनके,
हम रोज मिलते हैं॥

कभी दिखने को,
कभी बिकने को,
हम रोज सजते हैं॥

एक जगह पर,
रुक कर भी,
हम रोज चलते हैं॥

मैल बनी चमड़ी , उतरती नहीं,
वैसे तो ख़ुद को ,
हम रोज मलते हैं।

कभी अपनों से,
कभी अपने आप से,
हम रोज जलते हैं॥

नींद ख़राब है, कि सोच हमारी,
अब तो सपनो में,
हम रोज़ डरते हैं.

2 टिप्‍पणियां:

मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला