रविवार, 20 जनवरी 2008

एक शीर्षकहीन कविता

यूं तो हम,
गर्दिशों की रेत से भी,
इक बुलंद इमारत'
खादी करने का,
माद्दा रखते हैं।

पर क्या करें '
कि मजबूर हैं हम,
लोग उम्मीद तो '
हमसे ,इससे भी '
ज्यादा रखते हैं॥

वो जानते हैं कि ,
मैं तोड़ देता हूँ,
सभी कसमें, और वादे,
फिर भी ,जाने क्यों'
हर बार मुझसे इक,
नया वादा रखते हैं॥

उन्हें शक है ,
मेरी मयकशी का,
इसलिए क्यों ना पीना हो,
पूरा मयखाना भी,
मगर हर बार,
जाम हम ,
अपना आधा रखते हैं..

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