शनिवार, 11 नवंबर 2017

ये उन दिनों की बात थी ..







आजकल जो दीवानापन युवाओं का मोटरसाईकिल और युवतियों का स्कूटियों के प्रति और बच्चों की ललक भी स्कूटी दौडाने की और दिखाई देती है , ठीक वैसी ही और वैसी ही क्यूँ , बल्कि उससे कहीं ज्यादा (ये भी मैं बताउंगा कि उससे ज्यादा कैसे और क्यूँ ) उन दिनों में हमें और हमारी उम्र के बच्चों में सायकल के प्रति हुआ करती थी | अरे नहीं , उन दिनों बच्चों की सायकल के नाम पर सिर्फ बहुत छोटे बच्चों वाली ट्राय सायकल का ही चलन था सो , घर में पिताजी की सायकल, जिसकी सीट से बस थोड़ा सा ऊपर हमारी मुंडी पहुंचा करती थी , उसके प्रति हमारा दीवानापन था | और फुर्सत के समय जब कभी वो सायकल बिना ताले के मिल जाती थी समझिये कि वो पल , वो समय यादगार बन जाता था |

उन दिनों सायकल भी अन्य सबकी तरह चुनिन्दा ब्रांड में ही उपलब्ध हुआ करता था , तो वो हुआ करता था एवन , एटलस और हरक्यूलस | और सायकल ही क्यूँ उसके बेकार हो चुके टायर को भी नहीं छोड़ा जाता था , वो हमारा सबसे पसंदीदा दोस्त हुआ करता था , हाथ में छडी लेकर या फिर सीधा हाथ से ही , उस टायर को सडकों गलियों में उसकी पीठ पर शाबासी के अंदाज़ में थपकाते हुए दूर दूर तक दौड़ना और ये इक्का दुक्का नहीं बल्कि पूरी टोली निकला करती थी अपने अपने इकलौते टायर को लेकर | और इस नायाब खेल से हमारा परिचय भी लखनऊ के कैंट एरिया (तोपखाना के आसपास ) वाले फ़ौजी कालोनी में ही हुआ था | पिताजी की पोस्टिंग उन दिनों लखनऊ सेन्ट्रल कमांड के रिक्रूटमेंट सेंटर में हुआ करती थी | मौक़ा मिला और हम सायकल को स्टैंड (बड़ा ही कठिन हुआ करता था उसे स्टैंड से उतारना खासकर वो बीच वाले स्टैंड से ) से उतार कर फुर्र ...|

ऊँचाई और वजन के हिसाब से , वो भी अपनी औकात से बाहर था सो सीट के ऊपर दाहिना कंधे को टिका कर , बीच में पैर घुसा कर विशेष आसन में (जिन्हें उन दिनों हम कैंची स्टाईल कहा करते थे ) उसे पैडल मार कर चलाने की भरपूर कोशिश करते थे और जब सायकल पूरी स्पीड से चल देती थी तो बस कयामत आ जाती थी क्यूँकी ब्रेक मार कर रोकने जैसी उत्तम ड्राईविंग कतई नहीं आती थी सो आजकल जैसे हमारी महिला ब्रिगेड दोनों तरफ अपने पैर फैला कर स्कूटी रोकती हैं , उससे भी कहीं अधिक छितरा के अपनी दोनों टाँगे खोल के सड़क पर घिसटा कर सायकल को रोकने की कोशिश होती थी | और इस बीच यदि सामने से कोई आ गया तो फिर उसकी दोनों टांगों के बीच जाकर इस रोमांचक सायकल ट्रेनिंग का अस्थाई अंत हो जाता था | वापसी में छिले हुए घुटने और कुहनियाँ इस बात का पूरा सबूत होती थीं कि कितनी शिद्दत से मेहनत की जा रही है |

थोड़े और बड़े हुए तो सायकल के कैरियर पर गेंहू की बोरी बाँध कर उसे पिसवाने के लिए आटे चक्की तक ले जाने का कार्यक्रम भी किसी स्टंट से कम नहीं होता था ,जहां से पच्चीस पैसे की वो गुड में मूंगफली के दाने चिपके वाली पट्टी खाते हुई घर वापसी होती थी |थोड़े और वीर हुए तो गैस का सिलेंडर भी पुराने सायकल की ट्यूब से बाँध कर रिफिल कराने का फीयर फैक्टर वाला स्टंट भी बखूबी अंजाम दिया गया | मुझे पूरी तरह सायकल चलाने के लिए दसवीं पास करने के बाद ही मिली थी | और उसके बाद ग्राम जीवन में खेतों की मेड पगडंडी कच्ची सड़कों पर चलाते हुए हम उसके चैम्पियन होते गए |


घर से मधुबनी कुल 14 किलोमीटर आना व् जाना , वो भी पूरे कालेज की पढ़ाई के दौरान , ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत सुकून भरे सफ़र जैसे रहे | गाँव की स्वच्छ हवा में हम खुद कब उस सायकल पर हवा से बातें करने लगते थे हमें पता नहीं चलता था | मुझे याद है कि एक मित्र के कहने पर हम सिर्फ 35 मिनट में ये दूरी नाप कर मधुबनी के मिथिला टाकीज में फिल्म "लैला मजनू " देखने जा पहुंचे थे | उन दिनों सायकल का टैक्स भी लगता था जो दो रुपये हुआ करता था और एक लोहे का पत्तडनुमा टुकड़ा सायकल के टायरों में फंसा कर टैक्स भुगतान प्रमाण चिन्ह लगा दिया जाता था ...|


सायकल से मेरी मुहब्बत के साक्षी न सिर्फ मेरे परिवारवाले बल्कि गाँव के संगी साथी भी रहे और मैं अब भी शायद ही कभी ग्राम प्रवास के दौरान सायकल से गाँव से मधुबनी आने जाने का लोभ छोड़ पाता हूँ और सबके लाख मना करने के बावजूद कम से कम एक बार तो सायकल से पूरे शहर का चक्कर लगा आता हूँ ....
ये उन दिनों की बात थी .....हाँ ये उन्हीं दिनों की बात थी ..

रविवार, 23 जुलाई 2017

ज़रा बता कितने दिनों से मिट्टी को नहीं छुआ




रे मिटटी के मानुस आखिर ये तुझे क्या हुआ ,
ज़रा बता कितने दिनों से मिट्टी को नहीं छुआ ...

आज शाम अचानक पैर की एक उंगली हल्की से चोटिल हो गयी , पास पड़े गमले में से मेरे डाक्टर साहब को निकाल कर मैंने वहां लगा लिया ,सो बरबस ही मुझे ये किससे याद आ गए | वैसे मेरा बहुत सारा समय मिट्टी के साथ ही गुजरता है , मैं मिट्टी मिट्टी होता रहता हूँ और पूरी तरह मिट्टी ही हो जाना चाहता हूँ ......


यकीन जानिये मैं गंभीर होकर पूछ रहा हूँ और खासकर हमारे जैसे उन तमाम दोस्तों से जो अपनी जड़ो से दूर , खानाबदोश बंजारे हो कर , इस पत्थर , सीमेंट की धरती वाले जड़(बंज़र) में कहीं आकर आ बसे , सच बताइये आपको कितने दिन हुए , कितने महीने या शायद बरस भी , मिट्टी को छुए महसूसे , मिट्टी में खेले कूदे और मिट्टी की सौंधी सुगंध को अपने भीतर समेटे हुए ......


चलिए जितनी देर आप सोचते हैं उतनी देर तक कुछ पुरानी बातें हों जाएँ , जैसा कि मैं अक्सर कहता रहा हूँ कि , बचपन से ही बहुत सारे दूसरे बच्चों की तरह हम भी पूरे दिन घर से बाहर ही उधम मचाते थे और हर वो शरारत और खेल में शामिल पाए जाते थे जो उन दिनों खेले जाते थे और ज़ाहिर था कि खूब चोट भी खाते थे , बचपन में ही एक नहीं दो दो बार बायें कोहनी में हुआ फ्रेक्चर भी , खेल खेलते ही हुआ था |


मगर मैदान में खेलते हुए जितनी भी बार गिरे , चोटी चोट खाई , छिलन हुई ...उसका तुरंत वाला फर्स्टएड ईलाज और बेहद कारगर था ......धरती की मिट्टी | कोइ बैंडएड कोइ पट्टी कोइ मरहम जब तक आता तब तक तो मिट्टी लगा के मिट्टी के बच्चे फिर मिट्टी में लोट रहे थे | आज के बच्चों के तो कपड़ों पर भी मिट्टी लग जाए तो न सिर्फ बच्चा बल्कि उसके अभिभावक भी एकदम से चिंतित हो जाते हैं , जबकि वैज्ञानिक तथ्य ये कहते हैं कि मिट्टी में कम से कम बयालीस से अधिक तत्व पाए जाते हैं जो मिट्टी के बने इस मनुष्य के लिए निश्चित रूप से लाभकारी होते हैं |



यहाँ देखता हूँ तो पाता हूँ कि शहरों में मानो होड़ सी लगी है ज़मीन को छोड़ कर आसमान की ओर लपकने की , हमारा फैलाव ज़मीन से जुड़ कर नहीं , जमीं से ऊपर उठ कर हो रहा है , गगन चुम्बी अपार्टमेंट अब एक आम बात हो गयी है , यहाँ हम ये भयंकर भूल कर रहे हैं कि जिन पश्चिमी देशों से ये ऊंची ऊंची इमारतों में निवास बनाने की परिकल्पना आयातित की गयी है वे इस देश और इस देश की धरती से सर्वथा भिन्न हैं | इन्सान बार बार ये भूल जाता है कि बेशक जितना ऊपर उड़ ले , आखिर उसे आना इसी मिट्टी में ही और उसे क्या उसके पहले के सभी कुछ को सदियों और युगों या शायद उससे भी पहले से भी यही और सिर्फ यही होता आया है |




रविवार, 16 जुलाई 2017

पुरुष तन के भीतर स्त्री मन ....




कल हमारी बहुत सी मित्र दोस्त सहेलियों ने बड़ी ही मार्के की बात कही , वैसे ऐसा तो वे अक्सर करती हैं , कि सालों साल और लगभग पूरी उम्र हमारी माँ , बहिन और पत्नी की भांति वे सब , घरेलू काम , जिसमें सबसे प्रमुख घर के सभी सदस्यों के पौष्टिक और सुस्वाद भोजन तैयार कर सबको खिलाना , सबसे अहम् , को चुपचाप , बिना किसी पारिश्रमिक , मेहनताने और कई बार तो प्रशंसा भी नहीं , के बिना ही , निरंतर करती जाती हैं | उनका कहना कि , पुरुषों को ये काम करना आना तो दूर इन कामों के किये और करने वाली की कद्र भी नहीं होती , सच है , अक्सर ऐसा देखा भी जता है | ये उनकी नैसर्गिक ड्यूटी मान कर अनदेखा किया जाता है | अपना हाल थोड़ा जुदा है |

पढाई लिखाई के कारण , शायद इंटर कालेज के दिनों में ही माँ बाबूजी और घर से दूर रहने के दौरान , विद्यार्थी जीवन में ही खुद के लिए लगभग हर वो काम , जो गृहणियों के जिम्मे होता है , करने की पहले मजबूरी फिर आदत सी हो गयी | शुरुआत , दाल चावल ,खिचड़ी जैसे आसान विकल्पों से हुई और जाने कितने ही बरस , वही उबला उबली चलती रही |

आज से पूरे बाईस बरस पहले जब दिल्ली पहुंचे तो मामला और आगे बढ़ा ,मगर खेल असली तब शुरू हुआ जब रोटी बनाने की बारी आई | हम सब नए रंगरूटों को हमारे सीनियरों ने पूरे एक सप्ताह तक तो एकदम नई दुल्हन की तरह रखा फिर एक दिन अचानक ही बिना बताये सब गायब हो लिए और सुबह से दोपहर होते होते ,पेट में चूहे दौड़ने लगे | किचन में पूरी सफाई से ,पहले ही हमारी खिचडी का सब रसद गायब , सिर्फ आटा | वहां से शुरू हुई हमारी रोटियाँ बनाने की पूरी ट्रेनिंग | लस्सी , लपसी से होते हुए जल्दी ही हम लोई तक पहुँच गए | फिर तो हम रोटियाँ भी ऐसी बनाने लगे कि सबका सरकमफ्रेंस भी भी नाप के देखा जाता तो एक दम सेम टू सेम :) :) :) :)

इसके बाद तो हममें से सब के सब इतने दक्ष हो चुके थे कि , परीक्षाओं के दिनों में गाँव से आने वाले अपने तमाम दोस्तों के लिए हम खेल खेल में सब कुछ बना लेते थे | मुझे याद है कि , दो घंटे तक बिना रुके मैं सत्तर सत्तर रोटियाँ बना लेता था | आज जब दो संतानों का पिता हूँ तो ,किसी भी कुशल गृहणी को न सिर्फ चुनौती बल्कि हर तरह के भोजन , निरामिष भी ,दक्षिण भारतीय भी और गुलाबजामुन , मालपुए जैसे पकवान भी पूरी दक्षता से बना लेता हूँ |

बिटिया बुलबुल की चोटी गूंथना और उसे तैयार करना जितना मुझे पसंद है ,उससे अधिक बिटिया को पापा से तैयार होना | कढ़ाई , सिलाई , इस्त्री ...छोडिये ..


सौ बात की एक बात ..माँ जो कहती थी ...भोला तेरा मन भीतर से स्त्री है , और मुझे लगता है पुरुष तन के भीतर स्त्री मन होना ही सर्वोत्तम है ....बिलकुल अर्धनारीश्वर हो जाने जैसा है .........